एकाग्रता

Last Updated 07 Jul 2022 01:26:23 AM IST

जीवन की अन्यान्य बातों की अपेक्षा सोचने की प्रक्रिया पर सामान्यत: कम ध्यान दिया गया है, जबकि मानवी सफलताओं-असफलताओं में उसका महत्त्वपूर्ण योगदान है।


श्रीराम शर्मा आचार्य

विचारणा की शुरु आत मान्यताओं अथवा धारणा से होती है, जिन्हें या तो मनुष्य स्वयं बनाता है अथवा किन्हीं दूसरे से ग्रहण करता है, या वे पढ़ने-सुनने और अन्यान्य अनुभवों के आधार पर बनती हैं। व्यक्तियों की प्रकृति एवं अभिरुचि की भिन्नता के कारण मनुष्य मनुष्य के विश्वासों, मान्यताओं एवं धारणाओं में भारी अन्तर पाया जाता है। चिन्तन पद्धति में अर्जित की गई भली-बुरी आदतों की भी भूमिका होती है। स्वभाव-चिन्तन को अपने ढर्रे में घुमा भर देने में समर्थ हो जाता है। स्वस्थ और उपयोगी चिन्तन के लिए उस स्वभावगत ढर्रे को भी तोड़ना आवश्यक है जो मानवी गरिमा के प्रतिकूल है।

प्राय: अधिकांश व्यक्तियों का ऐसा विश्वास है कि विशिष्ट परिस्थिति में मन द्वारा विशेष प्रकार की प्रतिक्रिया व्यक्त करना मानवी प्रकृति का स्वभाव है, पर वास्तविकता ऐसी है नहीं। परिस्थिति विशेष में लोग प्राय: जिस ढंग से सोचते एवं दृष्टिकोण अपनाते हैं, उससे भिन्न स्तर का चिन्तन करने के लिए भी अपने मन को अभ्यस्त किया जा सकता है। मानसिक विकास के लिए अभीष्ट दिशा में सोचने के लिए अपनी प्रकृति को मोड़ा भी जा सकता है।

मन विभिन्न विचारों को ग्रहण करता है, पर जिनमें उसकी अभिरु चि रहती है, चयन उन्हीं का करता है। यह रु चि पूर्वानुभवों के आधार पर बनी हो सकती है, प्रयत्नपूर्वक नई अभिरु चियां भी पैदा की जा सकती हैं। प्राय: मन एक विशेष प्रकार की ढर्रे वाली प्रतिक्रियाएं मात्र दर्शाता है, पर इच्छित दिशा में उसे कार्य करने के लिए नियंत्रित और विवश भी किया जा सकता है।

‘बन्दरों की तरह उछलकूद मचाना उसका स्वभाव है। एक दिशा अथवा विचार विशेष पर वह एकाग्र नहीं होना चाहता। नवीन विचारों की ओर आकर्षित तो होता है, पर उपयोगी होते हुए भी उन पर टिका नहीं रह पाता। उसकी एकाग्रता भंग हो जाती तथा वह परिवर्तन चाहने लगता है, पर अभ्यास एवं नियंत्रण द्वारा उसके बन्दर स्वभाव को बदला भी जा सकता है। यह प्रक्रिया समय साध्य होते हुए भी असम्भव नहीं है। एक बार एकाग्रता का अभ्यास बन जाने से जीवनपर्यन्त के लिए लाभकारी सिद्ध होता है।



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