निराशा
अनाचार अपनाने पर प्रत्यक्ष व्यवस्था में तो अवरोध खड़ा होता ही है, साथ यह भी प्रतीत होता है कि नियतिक्रम के निरंतर उल्लंघन से प्रकृति का अदृश्य वातावरण भी इन दिनों कम दूषित नहीं हो रहा है.
श्रीराम शर्मा आचार्य |
किंकर्तव्यविमूढ़ स्थिति में पहुंचा हुआ हतप्रभ व्यक्ति क्रमश: अधिक निराश ही होता है, विशेषतया तब-जब प्रगति के नाम पर विभिन्न क्षेत्रों में किए गए प्रयास खोखले लगते हों, महत्त्वपूर्ण सुधार हो सकने की संभावना पर से विश्वास क्रमश: उठता जाता हो.
इतना साहस और पराक्रम तो विरलों में ही होता है, जो आंधी तूफानों के बीच भी अपनी आशा का दीपक जलाए रह सकें.
सृजन प्रयोजनों के लिए साथियों का सहयोग न जुट पाते हुए भी सुधार संभावना के लिए एकाकी साहस संजोए रह सकें, उलटे को उलटकर सीधा कर देने की योजना बनाते और कार्य करते हुए अडिग बने रहें, गतिशीलता में कमी न आने दें, ऐसे व्यक्तियों को महामानव-देवदूत कहा जाता है, पर वह यदाकदा ही प्रकट होते हैं. उनकी संख्या भी इतनी कम रहती है कि व्यापक निराशा को हटाने में उन प्रतिभाओं का जितना योगदान मिल सकता था, उतना मिल नहीं पाता.
आज जनसाधारण का मानस ऐसे ही दलदल में फंसा हुआ है. होना तो यह चाहिए था कि अनौचित्य के स्थान पर औचित्य को प्रतिष्ठित करने के लिए साहसिक पुरु षार्थ जागता, पर लोक मानस में घटियापन भर जाने से उस स्तर का उच्चस्तरीय उत्साह भी तो नहीं उभर रहा है. अवांछनीयता को उलट देने वाले ईसा, बुद्ध, गांधी, लेनिन जैसी प्रतिभाएं भी उभर नहीं रही हैं.
इन परिस्थितियों में साधारण जनमानस का निराशाग्रस्त होना स्वाभाविक है. यहां समझ लेना चाहिए कि निराशा भी हल्के दर्जे की बीमारी नहीं है. वह जहां जड़ जमाती है, वहां घुन की तरह मजबूत शहतीर को भी खोखला करती जाती है. निराशा अपने साथ हार जैसी मान्यता संजोए रहती है, खीझ और थकान भी उसके साथ जुड़ती है.
इतने दबावों से दबा हुआ आदमी स्वयं तो टूटता ही है, अपने साथ वाले दूसरों को भी तोड़ता है. इससे शक्ति का अपहरण होता है, जीवनी शक्ति जवाब दे जाती है, तनाव बढ़ते जाने से उद्विग्नता बनी रहती है और ऐसे रचनात्मक उपाय दिख नहीं पड़ते, जिनका आश्रय लेकर तेज बहाव वाली नाव को खे कर पार लगाया जाता है. निराश व्यक्ति जीत की संभावना को नकारने के कारण जीती बाजी हारते हैं. निराशा न किसी गिरे को ऊंचा उठने देती है और न प्रगति की किसी योजना को क्रियान्वित होने देती है.
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