असूया और अनसूया
कुछ का सोचने का ढंग ऐसा होता है कि दुनिया की सबसे अच्छी परिस्थिति में भी उन्हें सिर्फ त्रुटियां ही नजर आती हैं.
धर्माचार्य श्री श्री रविशंकर |
ऐसे व्यक्ति को बढ़िया से बढ़िया दो, उसे फिर भी त्रुटि ही नजर आती है. ऐसी विचारधारा को असूया कहते हैं और ऐसे व्यक्ति दिव्यज्ञान जान ही नहीं सकते. असूया का अर्थ है दोष ढूंढ़ना या सब जगह हानि पहुंचाने वाली मंशा देखना. जैसे तुम्हारी किसी से मित्रता है और दस वष्रो बाद कोई दोष देखकर तुम इसे तोड़ना चाहते हो. जब तुम तोड़ते हो, तुम पूरे सम्बन्ध में कुछ अच्छा नहीं देखते, त्रुटियां ही त्रुटियां खोजते हो. यह असूया है. ‘असूया’ मतलब दोष खोजना- सब जगह बुरा उद्देश्य ही देखना.
चेतना के अलग-अलग स्तरों पर ज्ञान भी अलग होगा. चेतना के एक विशेष स्तर पर तुम अनसूया बन जाओगे. ‘अनसूया’ अर्थात जो दोष नहीं खोजता. कृष्ण अजरुन से कहते हैं कि वे उसको यह दिव्यज्ञान दे रहे हैं क्योंकि अजरुन अनसूया है. ‘तुम मेरे इतने करीब होकर भी मुझमें कोई दोष नहीं देखते हो.’ दूर से लोगों में दोष छिप जाते हैं पर पास आकर नहीं छिप सकते. दूर से तो कन्दर भी दिखाई नहीं देते. निकट से देखें तो समतल भूमि में भी गढ्ढे होते हैं. यदि तुम्हारा ध्यान केवल गढ्ढों पर ही है तो दृश्य की विशालता तुम्हें कभी भी नहीं दिखाई देगी.
यदि तुम ‘अनसूया’ नहीं हो, तो ज्ञान तुममें पनप ही नहीं सकता. तब ज्ञान देना निर्थक है. एक दर्पण पर धूल हो तो उसे साफ करने के लिए झाड़न की जरूरत होती है पर यदि आंखों में ही मोतियाबिन्द हो तो कितनी भी सफाई कर लो, कोई लाभ नहीं. इसलिए, पहले मोतियाबिन्द निकालना है, तब देखोगे कि दर्पण तो साफ ही है. असूया- दोषारोपण तुम्हें यह धारणा देता है ‘पूरी दुनिया ठीक नहीं है. किसी काम की नहीं है.’ अनसूया है यह जानना कि इस दुनिया को देखने वाली मेरी दृष्टि ही धुंधली है और जब तुम्हें अपनी गलत दृष्टि का आभास हो गया, तो आधी समस्या तो वहीं मिट गयी.
संपादित अंश ‘सच्चे साधक के लिए अंतरंग वार्ता’ से साभार
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