एकांत ध्यान की भूमिका

Last Updated 01 Nov 2014 12:33:34 AM IST

तुम किसी शांत दशा में घर में बैठे हो और अचानक पाते हो कि घर तुम्हारे भीतर नहीं है.


धर्माचार्य आचार्य रजनीश ओशो

तो तुम्हें विहार का स्वाद मिलेगा. पत्नी के पास बैठे हो और चौंककर देखा कि कौन पत्नी, कौन पति! कौन मेरा, कौन तेरा! क्षण भर को एक अजनबी राह पर मिलन हो गया है, फिर बिछुड़ जाएंगे. न पहले इसका कुछ पता था, न बाद में पता रह जाएगा. नदी-नाव-संयोग- जल्दी ही टूट जाएगा. यह संयोगमात्र है.

पत्नी के पास बैठे-बैठे दोनों के बीच अनंत आकाश जितना फासला हो गया तो विहार का अनुभव होगा, विहार का स्वाद लगेगा. ये शब्द बड़े जीवंत हैं. ये शब्द ही नहीं हैं, चित्त की दशाएं हैं. भोजन करने बैठे हो और होश सध जाए क्षण भर भी, तो दिखेगा कि भोजन तो शरीर में जा रहा है.

चैतन्य में भोजन कैसे जाएगा! भोजन देह की जरूरत है, तुम्हारी नहीं. अगर भोजन करते समय ऐसी प्रतीति हो जाए, तो उसी क्षण बुद्धत्व के पास पहुंच गये. संसार में रहे और संसार में न रहे, कमलवत हो गये. इसका अर्थ है, जल से गुजरो, लेकिन जल तुम्हें छुए नहीं. एक झेन गुरु शिष्यों को कहता था जल से गुजरो और जल तुम्हें छुए नहीं. शिष्य-सोचते थे, यह बात हो नहीं सकती.

प्रतीक्षा में थे कि कभी मौका लग जाए और गुरु को नदी में से गुजरते देख लें. तीर्थयात्रा पर गये थे. एक नदी पार करनी पड़ी. शिष्य ध्यान से देख रहे थे कि गुरु के पैर को पानी छूता है या नहीं? पानी तो छुएगा ही. शिष्यों ने गुरु को घेर लिया- आपको भी जल छू रहा है! गुरु हंसा, उसने कहा- मुझे जल नहीं छू रहा है. जिसे छू रहा है, वह मैं नहीं हूं. पता नहीं शिष्य समझे या नहीं!

तुम तो द्रष्टा मात्र हो. कर्ता बनते ही नहीं. तुम कभी भोक्ता भी नहीं बनते. दूर खड़े देखते रहते हो. तुमने द्रष्टा के तल को कभी छोड़ा नहीं. वही तुम्हारी भगवान है. जिसको विहार आ गया, वही भगवान हो गया. भगवान जेतवन में विहरते थे. उनकी देशना में निरंतर ध्यान के लिए आमंत्रण था.  देशना का अर्थ है, कहना, समझना, फुसलाना- लेकिन आदेश न देना. देशना का अर्थ होता है- राजी करना, लेकिन नियंत्रित न करना.

देशना का अर्थ है, तुम्हारी बात के प्रभाव में, तुम्हारी बात की गंध में कोई चल पड़े, तो ठीक, लेकिन किसी तरह का लोभ न देना, दंड की बात न करना. क्योंकि जो लोग लोभ के कारण चलते हैं, वे चलेंगे ही नहीं. जो दंड के कारण चलते हैं, वे भी नहीं चलेंगे. तुमने चोरी इसलिए नहीं की क्योंकि नर्क का भय है. तो चोरी भले न की हो, फिर भी चोर हो. नर्क का भय न होता तो जरूर करते. अगर दान दिया स्वर्ग के लोभ में, तो दिया ही नहीं. दान लोभ के विपरीत है. तुमने दिया इसीलिए कि पा सको.

साभार : ओशो वर्ल्ड फाउंडेशन, नई दिल्ली



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