परमात्मा और प्रेम

Last Updated 02 Aug 2014 12:31:49 AM IST

संसार उदास है. लोग लाख मुखौटे लगा लें हंसी के, आंसू छिपाए छिपते नहीं हैं. लाख आभूषण पहने लें सौंदर्य के, हृदय घावों से भरा है.


धर्माचार्य आचार्य रजनीश ओशो

संसार में कांटे ही कांटे हैं. फूल तो केवल वे ही देख पाते हैं जो स्वयं फूल बन जाते हैं. जैसी दृष्टि वैसी सृष्टि. तुम्हें वही मिलता है जो तुम हो. तुम्हारी पात्रता के अनुकूल मिलता है.

तुम्हारे पात्र आंसू ही संभाल सकते हैं. इसलिए अमृत की आकांक्षा भले करो, आकांक्षा कोरी की कोरी रह जाएगी. अमृत पाने के लिए पात्र साफ करना होगा, उसे अमृत के योग्य बनाना होगा. प्रभु को तो पुकारते हो, मगर उस अतिथि को बिठाओगे कहां? वह द्वार पर आकर खड़ा हो जाएगा तो और भी तड़पोगे.  सिंहासन तो दूर, बिछाने के लिए घर में बोरा भी नहीं होगा. परमात्मा को पुकारना हो तो पुकार के पहले हृदय की तैयारी चाहिए; हृदय में एक उत्सव चाहिए, वसंत चाहिए. हृदय गुनगुनाता हुआ हो, प्राण नाचते हुए हों.

हम प्रेम के लिए बंद हैं, इसलिए प्रार्थनाएं झूठी हो जाती हैं. तुम्हारे हृदय से नहीं उठती  तुम्हारी प्रार्थना. तुम्हारे प्राणों की अभिव्यक्ति नहीं है उसमें. और जिसमें प्राण समाहित न हों वह प्रार्थना परमात्मा तक न कभी पहुंची है, न पहुंच सकती है. जिस प्रार्थना में प्राण ढल जाते हैं, उसे पंख मिल जाते हैं. लेकिन हमने थोथा संसार बसा रखा है. भीतर रोते रहते हैं, बाहर हंसते हैं. भीतर घाव हैं, बाहर फूल सजा लिए हैं. दूसरों को धोखा हो जाए पर तुम खुद कैसे धोखा खा जाते हो, यह आश्चर्य है.

तुम कैसे अपनी मुस्कुराहटों पर भरोसा कर लेते हो? लेकिन जब दूसरे भरोसा कर लेते हैं तो सोचते हो, जब इतने लोग भरोसा करते हैं तो बात ठीक ही होगी. दर्पण बेचारा क्या करे? मुस्कुराती छवि दिखा देता है. दूसरों की आंखें बस दर्पण हैं और दूसरों को जरूरत भी क्या कि तुम्हारा अंतस कुरेदें! अपने आंसू तो संभलते नहीं हैं, तुम्हारे आंसुओं की झंझट और लें! इसलिए हमने एक शिष्टाचार का जगत बनाया है, जहां दुखों को दबाते और झूठे सुख प्रकट करते हैं. शिष्टाचार का इतना ही अर्थ है कि दूसरे वैसे ही दुखी हैं, अपना दुख उन्हें और क्या दिखाना!

अपना दुख छिपाओ. झूठ के फूल खिलाओ. इससे एक बड़ी भ्रांति पैदा हुई है, सभी लोग मुस्कुराते और आनंदित मालूम होते हैं. और तब मन में संदेह उठता है, शायद मुझे छोड़ सारे लोग आनंदित हैं! अब अपनी व्यथा कहो भी तो किससे! और व्यथा कहने से सिर्फ मूढ़ता ही पता चलेगी. जिस दुनिया में सारे लोगों ने सुखी होने का आयोजन कर लिया है, उसमें मैं ही नहीं कर पाया आयोजन! इससे पीड़ा होगी, हीनता होगी. अहंकार को चोट लगेगी. अच्छा यही है, चार दिन की जिंदगी है. मत कहो किसी से अपनी पीड़ा.

साभार : ओशो वर्ल्ड फाउंडेशन, नई दिल्ली



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