भक्ति के लिए जरूरी श्रद्धा
कृष्णभावनाभावित व्यक्तियों की तीन कोटियां हैं. तीसरी कोटि में वे लोग आते हैं जो श्रद्धाविहीन हैं.
धर्माचार्य स्वामी प्रभुपाद |
यदि ऐसे लोग ऊपर-ऊपर भक्ति में लगे भी रहें तो भी उन्हें सिद्ध अवस्था प्राप्त नहीं हो पाती. संभावना यही है कि वे लोग कुछ काल के बाद नीचे गिर जाएंगे.
वे भले ही भक्ति में लगे रहें, किन्तु पूर्ण विश्वास तथा श्रद्धा के अभाव में कृष्णभावनामृत में उनका लगे रह पाना कठिन है. कृष्णभावनामृत में केवल श्रद्धा द्वारा ही प्रगति की जा सकती है. जहां तक श्रद्धा की बात है, जो व्यक्ति भक्ति-साहित्य में निपुण है और जिसने दृढ़ श्रद्धा की अवस्था प्राप्त की ली है, वह कृष्णाभावनामृत का प्रथम कोटि का व्यक्ति कहलाता है.
दूसरी कोटि में वे व्यक्ति आते हैं जिन्हें भक्ति शास्त्रों का ज्ञान नहीं है, किन्तु स्वत: ही उनकी दृढ़ श्रद्धा है कि कृष्णभक्ति सर्वश्रेष्ठ मार्ग है, अत: वे इसे ग्रहण करते हैं. इस प्रकार वे तृतीय कोटि के उन लोगों से श्रेष्ठतर हैं, जिन्हें न तो शास्त्रों का पूर्णज्ञान है और न जिनमें श्रद्धा ही है, अपितु संगति तथा सरलता के द्वारा वे उसका पालन करते हैं.
तृतीय कोटि के व्यक्ति कृष्णभावनामृत से च्युत हो सकते हैं, किन्तु द्वितीय कोटि के च्युत नहीं होते. प्रथम कोटि के व्यक्ति निश्चित रूप से प्रगति करके अन्त में अभीष्ट फल प्राप्त करते हैं. तृतीय कोटि के व्यक्ति को यह श्रद्धा तो रहती है कि कृष्ण की भक्ति उत्तम होती है, किन्तु भागवत तथा गीता जैसे शास्त्रों से उसे कृष्ण का पर्याप्त ज्ञान प्राप्त नहीं हो पाता.
कभी-कभी इस तृतीय कोटि के व्यक्ति की प्रवृत्ति कर्मयोग तथा ज्ञानयोग की ओर रहती है और कभी-कभी वे विचलित होते रहते हैं, किन्तु ज्यों ही उनसे ज्ञान तथा कर्मयोग का संदूषण निकल जाता है, वे कृष्णभावनामृत की द्वितीय या प्रथम कोटि में प्रविष्ट होते हैं.
कृष्ण के प्रति श्रद्धा भी तीन अवस्थाओं में विभाजित है और श्रीमद्भागवत में इनका वर्णन है. जो लोग कृष्ण के विषय में तथा भक्ति की श्रेष्ठता को सुनकर भी श्रद्धा नहीं रखते और सोचते हैं कि यह मात्र प्रशंसा है, उन्हें यह मार्ग अत्यधिक कठिन जान पड़ता है, भले ही वे ऊपर से भक्ति में रत क्यों न हों. इस प्रकार भक्ति करने के लिए श्रद्धा परमावश्यक है.
(प्रवचन के संपादित अंश श्रीमद्भगवद्गीता से साभार)
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