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- ऐसा दशहरा जिसमें रावण नहीं मारा जाता

फूल-रथ परिक्रमा समाप्ति के दिना बेलपूजा का विधान होता है नगर सीमा से लगे ग्राम सरगीपाल वर्षों पुराना एक बेल का वृक्ष है. इसमें एक डाली में दो फल लगते हैं. इस इकलौते और दुर्लभ वृक्ष के आगे और पीछे दो बेल वृक्ष हैं जिनमें केवल एक ही फल लगता है. वास्तव में बेल पूजा की रस्म विवाह से सबंधित है. जानकार बताते हैं कि बस्तर के एक राजा सरगीपाल जंगल में शिकार करने गये थे. वहां इस बेल वृक्ष के नीचे खड़ी दो सुंदर कन्याओं को देख राजा ने उनसे विवाह की इच्छा प्रकट की जिस पर कन्याओं ने उन्हें बारात लेकर आने को कहा. अगले दिन जब राजा बरात लेकर पहुंचे तो दोनों कन्याओं ने उन्हें बताया कि वे उनकी ईष्ठ देवी मणेकश्वरी और दंतेश्वरी हैं. उन्होंने ठिठोली में राजा को बारात लाने को कह दिया था. इससे शर्मिंदा राजा ने दण्डवत होकर अज्ञानतावश किये गये अपने व्यवहार के लिए क्षमा मांगी और उन्हें दशहरा पर्व में शामिल होने का न्योता दिया. तब से यह विधान चला आ रहा है. जोडी बेल फलों को दोनों देवियों का प्रतीक माना जाता है. राजा स्वयं इस गांव में आकर जोड़ी बेल को सम्मानपूर्वक पूजारी से ग्रहण करता है और उसे दंतेश्वरी के मंदिर में रखता है. इन बेल फलों के गूदे का लेप माई जी के छत्र पर किया जाता है और इसी से राजा स्नान भी करता है. बेल पूजा विधान पर्व उत्सव जैसा माहौल रहता है जिसमें स्वागत और बेटी की विदाई दोनों का अभूतपूर्व नजारा देखने को मिलता है.