कस्तूरबा गांधी की पुण्यतिथि 22 फरवरी पर विशेष

Last Updated 22 Feb 2011 08:24:22 PM IST

राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को अपनी जीवनसंगिनी कस्तूरबा गांधी की मौत ने तोड़कर रख दिया था.


गांधी जी को अपने जीवन में अपनी अर्द्धांगिनी कस्तूरबा गांधी का भरपूर साथ मिला और आजादी की अंतिम लड़ाई 'भारत छोड़ो आंदोलन' के दौरान भी वह पल-पल उनके साथ रहीं. इतना ही नहीं कस्तूरबा का निधन भी गांधी जी की बांहों में हुआ.

वह 22 फरवरी 1944 का दिन था जब कस्तूरबा ने पुणे के आगा खान पैलेस हिरासत केंद्र में बापू की बांहों में अपना दम तोड़ा. कस्तूरबा का स्वास्थ्य अत्यंत खराब था.1942 में भारत छोड़ो आंदोलन और गिरफ्तारियों से पैदा हुए तनाव ने उनकी हालत को और भी नाजुक बना दिया. वह दमा और क्रोनिक ब्रोंकाइटिस से पीडि़त थीं.
   
नायर के अनुसार कस्तूरबा एक आदर्श हिन्दू पत्नी थीं, जिन्होंने अपने पति और उनके कार्यों में मदद के लिए अपनी जरा भी परवाह नहीं की. बाल विवाह होने के बावजूद कस्तूरबा किसी बालिग उम्र की लड़की जैसी सोच रखती थीं और उन्होंने हर समय अपने पति का साथ दिया. कस्तूरबा ने गांधी जी के सभी आंदोलनों में भाग लिया. भारत छोड़ो आंदोलन में भी उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही.

स्वतंत्रता सेनानियों और गांधी जी के अनुयायियों में 'बा' के नाम से जानी जाने वाली कस्तूरबा का जन्म 11 अप्रैल 1869 को पोरबंदर के एक धनी व्यावसायिक परिवार में हुआ था लेकिन एक आदर्श पत्नी होने के नाते उन्होंने गांधी के सादा जीवन उच्च विचार सिद्धांत को अपना लिया.

गांधी दर्शन से जुड़े हरि गोपाल के अनुसार कस्तूरबा काफी धनी परिवार से ताल्लुक रखती थीं लेकिन उनका यह स्तर कभी भी बापू के कार्यों में बाधा नहीं बना. वह पूरी तरह से बापू के रंग में रंग गई थीं और उन्होंने आश्रम में कठोर सैद्धांतिक जीवन व्यतीत किया.

गोपाल ने कहा कि वह 1897 में गांधी जी के साथ दक्षिण अफ्रीका गईं और वहां बापू द्वारा रंगभेद के खिलाफ चलाए जा रहे आंदोलन में बढ़-चढ़कर भूमिका निभाई. 1904 से 1914 तक वह डरबन के नजदीक बापू के फीनिक्स आश्रम में सक्रिय रहीं. रंगभेद के खिलाफ आंदोलन के कारण वहां उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और तीन महीने के सश्रम कारावास की सजा सुनाई गई.

गांधी जी 1915 में जब भारत पहुंचे तो कस्तूरबा भी उनके साथ वापस आ गईं. उन्होंने महिलाओं और बच्चों को स्वास्थ्य  अनुशासन और पढ़ाई-लिखाई के लिए प्रेरित किया.
   
वह गांधी जी के हर आंदोलन में उनके साथ रहीं और इस दौरान दमा  निमोनिया  क्रोनिक ब्रोंकाइटिस जैसी कई बीमारियों से पीडि़त हो गईं. जनवरी 1944 में कस्तूरबा को दो बार दिल का दौरा पड़ा. जीवन के अंतिम दिनों में भी वह बापू के साथ थीं और 22 फरवरी 1944 को उन्होंने पुणे के आगा खान पैलेस में गांधी जी की बांहों में दम तोड़ दिया.



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