मोदी के मास्टर स्ट्रोक की महिमा

Last Updated 24 Jul 2022 07:17:49 AM IST

द्रौपदी मुर्मू अब देश की नई महामहिम हैं। सोमवार को वे राष्ट्रपति पद की औपचारिक शपथ ले लेंगी। आजादी के अमृतकाल में उनका निर्वाचन कई ऐतिहासिक संयोग का कारण बना है।


मोदी के मास्टर स्ट्रोक की महिमा

आजादी के बाद पहली बार जनजातीय समाज का कोई प्रतिनिधि देश के संवैधानिक प्रमुख के पद को सुशोभित कर रहा है। इसके साथ ही द्रौपदी मुर्मू पहली ऐसी राष्ट्रपति हैं, जिन्होंने आजाद भारत में जन्म लिया है। ये संयोग इस वजह से भी अभूतपूर्व बन जाता है कि अब देश के दो सबसे प्रमुख पद  राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री पद पर आसीन प्रतिभाएं स्वतंत्र देश में जन्मी हैं।

साल 2014 में जब नरेन्द्र मोदी ने प्रधानमंत्री पद की शपथ ली थी, तो उनको लेकर तमाम चर्चाओं के बीच इस बात को भी प्रमुखता मिली थी कि वे पहले ऐसे प्रधानमंत्री हैं, जिन्होंने स्वतंत्र देश में अपनी आंखें खोली थीं। आज जब द्रौपदी मुर्मू नया इतिहास लिख रही हैं तब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी एक अलग वजह से चर्चा में हैं। दरअसल, मुर्मू की जीत को बीजेपी खासकर पीएम मोदी के मास्टरस्ट्रोक के रूप में देखा जा रहा है।

रायसीना की रेस को शुरू से ही लोक सभा चुनाव-2024 के सेमीफाइनल और विपक्षी एकता का टेस्ट माना जा रहा था। कोई और नहीं, विपक्ष खुद ही अपनी एकता की दुहाई भी दे रहा था, लेकिन जब नतीजे आए तो इस दुहाई की जमकर धुलाई हो गई। एनडीए उम्मीदवार के रूप में मुर्मू को 64 फीसद वोट मिले, जो विपक्ष में अच्छी-खासी सेंध का इशारा करता है। दावा है कि मुर्मू के पक्ष में 13 राज्यों के 119 विधायकों ने क्रॉस वोटिंग की। असम, गुजरात, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड, राजस्थान जैसे राज्यों में अंतरात्मा की आवाज आलाकमान के फरमान पर भारी पड़ गई। ये वो तमाम राज्य हैं, जहां पर कांग्रेस सत्ता या विपक्ष में है। इसके अलावा 17 सांसदों ने भी राष्ट्रपति चुनाव में क्रॉस वोटिंग की है।

इतना ही नहीं, राष्ट्रपति पद के लिए आदिवासी कार्ड मोदी का ऐसा मास्टरस्ट्रोक रहा, जिसकी काट न तो वे दल ढूंढ पाए जिनका अपने राज्य में बीजेपी से सीधे मुकाबला है, न ही गैर-एनडीए और गैर-यूपीए दल इसका विरोध कर पाए। वाईएसआर कांग्रेस, बीजू जनता दल, शिरोमणि अकाली दल, बीएसपी, शिवसेना, झारखंड मुक्ति मोर्चा आदि। यह फेहरिस्त केवल अपनी लंबाई से हैरान नहीं करती, बल्कि इस तथ्य के कारण भी चौंकाती है कि विचारधाराओं के सिरों पर खड़े इन दलों ने पहले कभी एक समान लक्ष्य के लिए इस तरह की एकजुटता नहीं दिखाई। राष्ट्रपति चुनाव अगर लोक सभा चुनाव 2024 का सेमीफाइनल है तो क्या इन दलों का एनडीए के करीब आना उसी से जुड़ा ‘बहाना’ है?

 इस मास्टरस्ट्रोक के जरिए प्रधानमंत्री मोदी ममता बनर्जी को भी जबर्दस्त पटखनी देने में कामयाब हुए हैं। विपक्ष का उम्मीदवार ममता की पार्टी टीएमसी ने ही तय किया था, लेकिन मुर्मू का नाम आगे कर प्रधानमंत्री मोदी ने ममता के लिए ‘न उगलने, न निगलने’ वाले हालात बना दिए। बंगाल में जनजातीय समाज की खासी अधिकता के दबाव में ममता न मुर्मू का विरोध कर पाई, न ही अपने पुराने राज्य सभा सांसद यशवंत सिन्हा का खुलकर समर्थन कर पाई। हालत ये हुई कि देश भर में घूम-घूमकर अपने पक्ष में वोट मांगने वाले यशवंत सिन्हा को प्रचार के लिए पश्चिम बंगाल में जमीन ही नहीं मिल पाई।

अब लोक सभा की लड़ाई ऐसे मुहाने पर आ खड़ी हुई है जहां एक तरफ विपक्ष है जो यशवंत सिन्हा की उम्मीदवारी के जरिए कोई राजनीतिक संदेश देने में बुरी तरह नाकाम हुआ है, तो दूसरी तरफ बीजेपी है जो राष्ट्रपति चुनाव को ही एक तरह से लोक सभा की लड़ाई का लॉन्च पैड बना देती है। इसकी एक बानगी हम पिछले चुनाव में देख भी चुके हैं। बीजेपी ने पिछला राष्ट्रपति चुनाव दलित वर्ग के कोली समुदाय से संबंध रखने वाले रामनाथ कोविंद के नाम पर लड़ा था। तब राष्ट्रपति चुनाव में बड़ी जीत के साथ ही लोक सभा चुनाव में अनुसूचित जाति की सीटों पर भी बीजेपी का जनाधार बढ़ा था। इस बार राष्ट्रपति का चेहरा आदिवासी है और वे महिला भी हैं। जनजातीय सुरक्षित सीटों के साथ ये दांव पहले से बीजेपी की वोटर बन चुकी महिलाओं के बीच पार्टी का आधार मजबूत करेगा।

वैसे भी हाल के कुछ वर्षो में बीजेपी ने दो महत्त्वपूर्ण आदिवासी राज्य गंवाए हैं-छत्तीसगढ़ और झारखंड। अगले साल छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में विधानसभा चुनाव होने हैं, जहां आदिवासी आबादी भी काफी है। जाहिर है, बीजेपी को उम्मीद है कि वह आदिवासी वोट फिर से हासिल करेगी, जो उसने झारखंड मुक्ति मोर्चा और कांग्रेस जैसी पार्टयिों के हाथ गंवा दिया था। आदिवासी वोटों के नजरिए से महत्त्वपूर्ण एक अन्य राज्य ओडिशा है, जहां नवीन पटनायक के बाद के परिदृश्य पर भी बीजेपी की नजर होगी। आदिवासी वोटों के लिहाज से गुजरात, मध्य प्रदेश और राजस्थान जैसे राज्य भी महत्त्वपूर्ण हैं। गुजरात और मध्य प्रदेश में बेशक बीजेपी की सरकारें हैं, लेकिन वहां भी सत्ता बचाने और उसे बरकरार रखने के लिए जनजातीय सीटों पर जीत जरूरी होगी। प्रधानमंत्री मोदी के दोनों कार्यकाल में उत्तर-पूर्व ने भी सरकार बनाने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है और उत्तर-पूर्वी राज्यों की पहचान ही यहां की जनजातीय संस्कृति है। मुर्मू पर दांव लगाने के पीछे निश्चित ही उत्तर-पूर्व के राज्यों में पैठ बढ़ाना भी एक वजह रही होगी।

नये राष्ट्रपति की जीत पर बीजेपी का उत्सव मनाना भी कम दिलचस्प नहीं है। ऐसा पहले कभी नहीं देखा गया कि गैर-राजनीतिक समझे जाने वाले राष्ट्रपति पद पर किसी व्यक्ति की जीत को लेकर कोई राजनीतिक दल इस तरह उसे अपनी उपलब्धि की तरह अभिव्यक्ति करे। जाहिर तौर पर इसके पीछे का संदेश राजनीतिक और मकसद राजनीतिक जमावट ही है। लोक सभा चुनाव के लिए इस बार बीजेपी ने 400+ का लक्ष्य तय किया है। सरसरी तौर पर यह लक्ष्य असंभव नहीं तो चुनौतीपूर्ण तो होगा ही। देश में अब तक किसी एक राजनीतिक दल का 400 से ज्यादा सीटें जीतने का कारनामा केवल एक बार ही हुआ है, जब पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद 1984 में हुए चुनाव में कांग्रेस ने सहानुभूति लहर पर सवार होकर 415 सीटें जीती थीं, लेकिन बीजेपी को लगता है कि यदि उसके तमाम समीकरण सटीक बैठे तो वो कारनामा बिना किसी सहानुभूति लहर के भी दोहराया जा सकता है। वैसे भी भारत में एक आदिवासी महिला के गणतंत्र प्रमुख बनने के राजनीतिक महत्त्व को कम करके नहीं आंका जा सकता, लेकिन मुर्मू की जीत आदिवासी वोट बैंक में बीजेपी की पैठ बनाने की गारंटी है, इस पर फिलहाल कुछ भी कहना जल्दबाजी हो सकती है। इतना जरूर है कि आदिवासी दांव चलकर बीजेपी ने देश के राजनीतिक विमर्श में नैतिक तौर पर एक उच्च आधार जरूर हासिल कर लिया है।

उपेन्द्र राय


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