और एक सशक्त कदम

Last Updated 06 Jan 2013 01:32:55 AM IST

नए साल में नई शुरुआत हुई है. केंद्रीय गृह मंत्रालय ने तय किया है दिल्ली के तमाम थानों में कम से कम नौ महिला पुलिसकर्मी होंगी.


और एक सशक्त कदम

इनमें से कम से कम दो सब इंस्पेक्टर रैंक की होंगी और सात कांस्टेबल होंगी. दिल्ली में 166 थाने हैं और हर थाने में नौ महिला पुलिसकर्मी की नियुक्ति का मतलब हुआ कुल 1,494 महिला पुलिसकर्मी. वैसे तो दिल्ली पुलिस में 4,500 महिला पुलिसकर्मी कार्यरत हैं. लेकिन इनमें से दो से ढाई हजार महिलाएं डेस्क जॉब में हैं. ज्यादातर कॉल अटेंडैंट का काम करती हैं. कई ऐसे थाने हैं, जहां कोई भी महिला पुलिसकर्मी नहीं है. दिल्ली पुलिस चाहे तो तत्काल इस फैसले को अमल में लाया जा सकता है. वैसे केंद्रीय गृह मंत्रालय का आदेश है कि इस फैसले पर अमल के लिए महिलाओं को भर्त्ती करने की जरूरत पड़ती है तो वह भी किया जाए.

क्या इस फैसले से दिल्ली की सड़कों पर महिलाएं सुरक्षित होंगी? मेरे ख्याल से हाल के दिनों में जितने फैसले लिये गए हैं, उनमें सबसे अहम फैसला यही है. और इस फैसले पर अगर पूरे देश में अमल किया जाता है तो पुलिस का मानवीय चेहरा लोगों के सामने आ सकता है. दरअसल, हमारे देश में पुलिसिंग को पुरुषत्व से जोड़कर देखा जाता रहा है, जो जितना दबंग है, उसे उतना ही सफल पुलिस अफसर माना जाता है. फिल्म ‘दबंग’ की सफलता के पीछे शायद इसी दबंग इमेज का हाथ रहा है.

लेकिन आधुनिक युग में पुलिसिंग दूसरी सर्विस की जैसी ही एक सर्विस है. दूसरी तरह की सेवा देने वालों में ‘कस्टमर कम्स फर्स्ट’ का एप्रोच रखा जाता है. इस बात का खास खयाल रखा जाता है कि ग्राहक की भावना को किसी हालत में ठेस नहीं पहुंचे. अगर कोई टेलीफोन कम्पनी से आपको फोन आए और वह आपसे बदतमीजी से बात करे तो आप तत्काल उस कम्पनी से नाता तोड़ लेंगे. उसी तरह, कोई कैटरर आपकी पार्टी में अच्छी सेवा नहीं देता है तो आगे से उसे आप हायर नहीं करते हैं. इन उदाहरणों के जरिये मेरे कहने का यह कतई मतलब नहीं है कि पुलिसिंग दूसरी सेवाओं जैसी ही है.

लेकिन यह हमें मानना ही पड़ेगा कि पुलिसिंग में भी सेवा भाव की जरूरत है. पुलिस बल को भी जनता से दोस्ताना रवैया रखने की जरूरत है. पुलिस से डर उसे होना चाहिए जो कानून तोड़ता है. कानून का पालन करने वालों को पुलिसकर्मी से डर क्यों लगे? पुलिस बल का समाज से दोस्ताना रिश्ता हो, इसके लिए जरूरी है कि पूरे बल की छवि बदली जाए, पुलिसवालों को मानवीय संवदेना के साथ सहानुभूति रखने की ट्रेनिंग दी जाए. और यह ट्रेनिंग पुलिस स्टेशन पर हर दिन मिले तो सोने पर सुहागा.

मेरा मानना है कि मानवीय संवेदना के विकास में पुरुष और नारी का इनपुट जरूरी है. पूर्ण संवेदना में समाज के दोनों अंगों का इनपुट जरूरी है. दोनों धाराओं के मिलने से जो विचार बनता है, वही पूर्ण होता है. इसलिए देखा गया है कि जो बच्चे को-एड स्कूल में नहीं पढ़े होते हैं, उनका नजरिया अधूरा रह जाता है. उनकी संवेदना में कहीं कोई कमी रह जाती है. कुछ बच्चे अपने परिवार में या फिर अपने दोस्तों के बीच इस कमी को पूरा कर लेते हैं लेकिन कुछ एक की जिंदगी में यह अधूरापन हमेशा के लिए रह जाता है.

इसलिए ऐसे स्कूलों को बनाया गया, जहां लड़के और लड़कियों को दाखिला मिले. कम्पनियों का इमोशनल कोशिएंट बढ़ाने के लिए और इसे ज्यादा कार्यकुशल बनाने के लिए इस बात का खास खयाल रखा जाता है कि वहां काम करने वालों में जेंडर बैलेंस सही रहे. विधानसभाओं और संसद में भी बैलेंस ठीक करने के लिए महिलाओं को रिजव्रेशन देने की बात हो रही है. इन सबके पीछे एक ही लॉजिक है-हर छोटी-बड़ी संस्था को स्वस्थ बनाने के लिए उन्हें समाज का आईना बनाया जाए.

पुलिस फोर्स में महिलाओं का प्रतिनिधित्व बढ़ाने के कई फायदे होंगे. अभी थानों में एक खास तरह की भाषा का प्रयोग होता है, जिसमें गालियों का इनपुट काफी होता है. माहौल को डरावना बना कर रखा जाता है. उससे आसपास का माहौल भी सहमा रहता है. सामाजिक रूप से भद्र व्यवहार पर बैन होता है. हंसी-मजाक को बुरा माना जाता है. थानों में महिलाओं के रहने से गालियां कम होंगी, नॉर्मल व्यवहार की वापसी होगी, पुरुष पुलिसकर्मियों को सामाजिक मर्यादाओं का खयाल रखना होगा. इससे थानों पर से ‘डर लगता है’ का टैग हटेगा और लोग अपनी शिकायत लेकर वहां जाने से घबराएंगे नहीं. इससे पुलिस की छवि सुधरेगी और पुलिसिंग बेहतर होगी.

लेकिन क्या पुलिस फोर्स में महिलाओं का प्रतिनिधित्व बढ़ाने भर से महिलाओं की सुरक्षा बढ़ जाएगी? सिर्फ इतना भर से काम नहीं चलेगा. लेकिन यह अच्छी शुरुआत है. इसके साथ-साथ और भी कई कदम उठाने होंगे. हाल के दिनों में कानून में बदलाव की खूब बातें हुई हैं. बलात्कारियों के लिए फांसी की सजा की मांग हो रही है. फास्ट ट्रैक कोर्ट की बात हो रही है. बलात्कारियों के लिए कैमिकल कास्ट्रेशन की भी बात हो रही है. कानून में बदलाव के लिए सुप्रीम कोर्ट के पूर्व चीफ जस्टिस जेएस वर्मा के नेतृत्त्व में एक कमेटी बनी है, जिसका सुझाव इसी महीने आने वाला है.

कमेटी के सुझाव के बाद कानूनी पहलुओं में तो बदलाव हो ही जाएंगे. लेकिन एक और पहलू है, जिस पर हमें गौर करना है. यौन शोषण का दुर्भाग्य से कोई महिला शिकार हो जाती है तो उसके रिलिफ और रिहेबिलिटेशन के लिए हमें सोचना होगा. उसके लिए सरकार की ओर से कुछ होता नहीं है और समाज उससे अछूत की तरह पेश आने लगता है. इन मानसिकता को तत्काल बदलना होगा. अगर समाज का नजरिया बदलता है तो पीड़िता का जख्म भरने में समाज अपनी सही भूमिका निभा रहा होगा और पीड़िता को भी वापस सामान्य होने का सकारात्मक माहौल मिलेगा.

महिलाओं की सुरक्षा के लिए मोरल पुलिस की फौज को भी तत्काल खत्म करना होगा. महिलाएं क्या पहनती हैं, क्या पढ़ती हैं, किस कॉलेज में जाती हैं या किस समय में कहां घूमने जाती हैं-इन मामलों पर प्रवचन तत्काल बंद हो जाना चाहिए. इस तरह के प्रवचन महिलाओं को डराते हैं, उन्हें कमजोर करते हैं. समय की मांग है कि नैतिकता की शिक्षा देने वालों का मुंह बंद करके ऐसे काम किए जाएं जिनसे महिलाओं का सशक्तीकरण हो.
(लेखक सहारा न्यूज नेटवर्क के एडिटर एवं न्यूज डायरेक्टर हैं)

उपेन्द्र राय


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