बाल अपराध : बच्चों में बढ़ती क्रूरता
देश के तमाम शहरों के विद्यालयों में छात्रों के द्वारा की जा रही हिंसात्मक गतिविधियों पर लोगों को सोचने पर विवश कर दिया है। एक घटना जिसमें दसवीं के छात्र की हत्या और दूसरी घटना नरसिंहपुर में एक छात्र द्वारा अपनी शिक्षिका पर पेट्रोल डाल कर उन्हें आग के हवाले कर देना।
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दोनों घटनाएं अलग-थलग वारदात नहीं, बल्कि उस गहरे संकट की परछाई हैं, जो हमारी सामाजिक संरचना और परवरिश के तौर-तरीकों को चुनौती दे रहा है। बच्चे, जिनकी दुनिया खेलकूद, पढ़ाई और मासूमियत से भरी होनी चाहिए, आज हिंसा, हताशा और प्रतिशोध के घेरे में फंसते जा रहे हैं। ऐसे में सवाल यह नहीं कि अपराधी कौन है, बल्कि यह है कि अपराध की जड़ें इतनी गहरा क्यों गई हैं।
यदि बीते आठ वर्षो के परिप्रेक्ष्य में देखें तो 2014-22 के बीच बाल अपराधों में 81 फीसद की वृद्धि दर्ज की गई। सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि समाज की नींव कहीं न कहीं कमजोर हुई है। बाल अपराधों में सर्वाधिक हिस्सा यौन शोषण का है। बाल लैंगिक अपराध संरक्षण अधिनियम के अंतर्गत दर्ज मामलों का अनुपात लगातार 36 फीसद के आसपास बना हुआ है अर्थात हर तीसरे अपराध में कोई न कोई बच्चा यौन उत्पीड़न का शिकार होता है। यह स्थिति केवल कानून-व्यवस्था पर प्रश्न चिह्न नहीं लगाती, बल्कि समाज की सामूहिक संवेदनहीनता को भी उजागर करती है। ऐसे में अपराध ही नहीं, बच्चों का मानसिक संतुलन भी गहरे संकट में है।
एनसीआरबी की दुर्घटनावश मृत्यु और आत्महत्या संबंधी रिपोर्ट बताती है कि 2022 में लगभग तेरह हजार छात्रों ने आत्महत्या की। यह संख्या देश में हुई कुल आत्महत्याओं का लगभग सात फीसद है। सोचिए, केवल परीक्षा में असफल होने के कारण ग्यारह सौ से अधिक बच्चों ने अपनी जीवन लीला समाप्त कर दी। कुल मिला कर अठारह वर्ष से कम आयु के दस हजार से अधिक बच्चों ने 2022 में आत्महत्या का रास्ता चुना और इनमें लड़कियों की संख्या अधिक रही। यह आंकड़ा सिद्ध करता है कि बच्चे अपने ही घर और विद्यालय के दबावों से हार मान रहे हैं। वहीं नाबालिगों द्वारा किए जा रहे अपराध भी भयावह दिशा में बढ़े हैं। 2016 में किशोरों द्वारा अपराधों में हिंसक घटनाओं का अनुपात 32 फीसद था, जबकि 2022 तक यह बढ़ कर लगभग 50 फीसद हो गया अर्थात संख्या स्थिर रही, किंतु स्वरूप अधिक क्रूर और हिंसक हो गया।
दिल्ली सहित अनेक महानगरों में पिछले दो वर्षो में नाबालिगों को हत्या, लूटपाट और रेप जैसे गंभीर अपराधों में गिरफ्तार किया गया। इन घटनाओं में प्राय: मोबाइल फोन, हथियार और इंटरनेट की आसान उपलब्धता बड़ी वजह के रूप में सामने आई। डिजिटल संसार भी बच्चों की सुरक्षा के लिए चुनौती बन चुका है। 2022 में साइबर अपराधों में चौबीस फीसद की वृद्धि दर्ज की गई और इनमें अनेक मामलों में पीड़ित सीधे तौर पर बच्चे ही थे। अनियंत्रित तकनीकी पहुंच और आभासी दुनिया का मोह बच्चों को वास्तविक जीवन से काट कर असुरक्षित बना रहा है। ये सारे तथ्य बताने के लिए पर्याप्त हैं कि यह केवल कानून-व्यवस्था का विषय नहीं है। मानसिक स्वास्थ्य, शिक्षा और पारिवारिक संवाद की विफलता का सम्मिलित परिणाम है। विद्यालयों में अब भी अनिवार्य परामर्शदाता व्यवस्था नहीं है। अध्यापक ज्ञान बांटने में सक्षम हैं परंतु बच्चों के भावनात्मक संघर्ष को समझने और संभालने के लिए प्रशिक्षित नहीं। परिवारों में संवाद का दायरा सीमित होता जा रहा है। अभिभावक बच्चों की चिंताओं और हताशाओं को सुनने की बजाय केवल अंक पत्र और करियर पर ध्यान केंद्रित रखते हैं। समाज मानसिक स्वास्थ्य को विशेष वर्ग का विषय मानता है, जबकि यह हर बच्चे की मूलभूत आवश्यकता है।
अनेक देशों में विद्यालयों में अनिवार्य मानसिक स्वास्थ्य शिक्षा लागू की जा चुकी है। कला, खेल और संवाद पर आधारित पुनर्वास कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं। किशोर अपराधों से निपटने के लिए ‘पुनर्स्थापनात्मक न्याय’ पद्धति अपनाई जा रही है, जिसमें अपराधी किशोर को कठोर दंड की बजाय पीड़ित और समाज के साथ संवाद की प्रक्रिया में शामिल कर सुधार की दिशा दी जाती है। संयुक्त राष्ट्र बाल कोष और वि स्वास्थ्य संगठन चेतावनी दे चुके हैं कि किशोर अपराध को केवल अपराध मान कर कठोर दंड देना समाधान नहीं है। समस्या बहुआयामी है, और इसका समाधान संवेदनशील परवरिश, संवाद और सामाजिक सहयोग से ही संभव है। कुल मिला कर देखें तो हमारे सामने सबसे बड़ा प्रश्न यही है कि क्या हम अपनी अगली पीढ़ी को हिंसा और निराशा से बचा पाएंगे? क्या हम उन्हें किताब, कला और संवाद की दुनिया में लौटा पाएंगे? क्या हम स्वीकार करेंगे कि शिक्षा अंकों और रोजगार का साधन ही नहीं है, बल्कि संवेदनशीलता और विवेक का संस्कार भी है? और क्या हम सच्चाई का सामना करेंगे कि बच्चों की हिंसा दरअसल, हमारी सामूहिक विफलता का आईना है?
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