इटावा कांड : सामाजिक चेतना का पतन
उत्तर प्रदेश के इटावा का कथावाचक कांड सामाजिक और राष्ट्रीय एकता की कामना करने वाले हर व्यक्ति को डराने वाली है।
![]() इटावा कांड : सामाजिक चेतना का पतन |
जिस तरह पूरा प्रकरण यादव बनाम ब्राह्मण और उससे आगे बढ़ कर पिछड़े बनाम अगड़े में बदला जा रहा है, वह बताता है कि हमारी राजनीतिक, सामाजिक चेतना सीमा से अधिक विकृत अवस्था में पहुंची हुई है।
जानकारी के अनुसार कथावाचक मुकुटमणि सिंह यादव और उनके सहयोगी आचार्य संत सिंह यादव इटावा के गांव दांदरपुर में श्रीमद्भागवत की कथा कह रहे थे। ब्राह्मण बहुल गांव में उनके व्यास पीठ को सभी पण्राम करते थे। कथावाचक के प्रति सम्मान और श्रद्धा व्यक्त की जाती है, वही स्थिति थी। फिर अचानक ऐसा क्या हो गया? दूसरी तरफ की प्राथमिकी के अनुसार गांव के जयप्रकाश तिवारी और उनकी पत्नी रेणु तिवारी ने दोनों को खाने पर बुलाया। इनके अनुसार उन्होंने कहा कि पत्नी अपने हाथों से खाना खिलाएगी। रेणु तिवारी का कहना है कि एक ने मेरी अंगुली पकड़ ली। उसके बाद इनका विरोध शुरू हुआ। उसमें यदि उनको महिला का पैर छूकर क्षमा मांगनी पड़ी हो तो आश्चर्य नहीं। कहा गया है कि उस दौरान उनके पास से दो आधार कार्ड गिरे जिसमें अलग-अलग नाम थे। गलत नाम से आधार कार्ड धोखाधड़ी का मामला बनता है। किंतु यह कानूनी विषय है।
मूल बात यह है कि गांव के लोगों ने इन्हें झूठा या चरित्रहीन मान कर दुर्व्यवहार किया या फिर यादव होने के कारण? मुकुटमणि यादव के अनुसार वह 15 वर्षो से कथा कह रहे हैं, और गुरु से उन्होंने इसकी शिक्षा ली है। संत यादव संस्कृत पढ़ाते थे और उनका विद्यालय बंद होने के बाद उनके साथ जुड़ गए। ध्यान रखिए, इस समय भी देश कई नामी कथावाचकों में उन जातियों के लोग हैं, जिन्हें पिछड़ी या दलित जाति कहा जाता है।
तो यह स्थिति आज भी है। इसलिए यह निष्कर्ष निकाल लेना कि तथाकथित ऊंची जाति के लोग पिछड़े या दलित की भक्ति या कथावाचन को स्वीकार नहीं करते पूरी तरह सही नहीं हो सकता। चिंता का विषय है कि जाति को केंद्र बना कर पूरे मामले को इस सीमा तक पहुंचा दिया गया। हिन्दू अपनी पहचान दिखाएं इसका तात्पर्य क्या हो सकता है? प्राथमिक और सर्वसाधारण भाव यही है कि शिखा रखें , ललाट पर चंदन करें आदि आदि। इस दृष्टि से देखें तो किसी परिस्थिति में कथावाचकों की शिखा काटना कानूनी अपराध ही नहीं, बल्कि धार्मिंक दृष्टि से भी महाअपराध और महापाप है। वर्तमान राज व्यवस्था में सजा देने का कार्य न्यायालय का है, और इसके लिए छानबीन और कार्रवाई पुलिस का दायित्व है। समाज में किसी से गलती हो जाने के बाद आज भी थाने जाने की आम मानसिकता नहीं है।
विशेषकर अगर महिलाओं के साथ छेड़छाड़ जैसे विषय हों तो परिवार और समाज भी पुलिस, कचहरी से आज भी बचता है। बाल मुंडन करना, शिखा उतार देना, थूक फेंक कर चटवाना जैसे दंड ही समाज की ओर से आते थे। दंड देने वालों में परिवार के लोग भी शामिल होते थे। वहां भी कुछ लोगों ने पुलिस बुलाने या थाने ले जाने का सुझाव दिया होगा। यह स्वीकार नहीं हुआ तथा दोनों को अपने अनुसार सजा देकर मुक्त कर दिया गया। वर्तमान व्यवस्था में यह कानून हाथ में लेना है तो न्यायालय इसके लिए दंड दे सकता है। बावजूद स्वीकारने में समस्या नहीं है कि यह भारतीय समाज के परंपरागत व्यवहार का ही प्रकटीकरण है।
इससे बाहर निकल कर व्यापक दृष्टि से विचार करें तो इसका मूल जाति व्यवस्था के संबंध में धारणा ही है। भारत में जाति के बारे में अंग्रेजों और बाद में उनकी सोच की तहत हमारे अपने समाजशास्त्रियों आदि ने काफी झूठी धारणाएं पैदा कीं और स्वतंत्र भारत में राजनीति ने वोट के लिए इस विभाजन को और गहरा किया। कालांतर में जाति को छोटा-बड़ा, छुआछूत भेदभाव जिन परिस्थितियों में उत्पन्न हुए वे दुर्भाग्यपूर्ण थे। इन में भी बहुत सारे झूठ जोड़े गए। उदाहरण के लिए आज पिछड़े और दलित कहलाने वाली जातियों के भी राज थे। यादव, गुर्जर, प्रतिहार, जाट सबके राजवंशों के विवरण हैं, और अनेक मुस्लिम आक्रमण के बावजूद कुछ अंग्रेज काल तक भी रहे। स्वतंत्रता के बाद जिन 539 रियासतों का विलय हुआ उनमें तब भी पिछड़ी मानी जाने वाली जातियों के राजा थे।
हमारे यहां ऐसे अनेक पूजा के विधान हैं, जिनमें उन जातियों और उनके औजारों की पूजा के विधान हैं, जिन्हें पिछड़े और दलित माना गया है। पूजा का कुछ विशेषाधिकार भी इन्हें ही दिया गया था। बाबा साहब ने अपनी पुस्तक ‘हु वॉज शुद्राज’ के छठे अध्याय में बताया है कि वैदिक या महाभारत काल के शुद्र या दास आज के दलित नहीं थे। उनके अनुसार उस समय उन्हें अनेक अधिकार प्राप्त थे। दुर्भाग्य से भारत की जाति व्यवस्था को न समझने वाले अंग्रेजों द्वारा अगड़े, पिछले, दलित, आदिवासी के बोए गए विष के वृक्ष को विस्तृत करते रहे तथा अकादमी, राजनीति और सत्ता में इनकी इतनी हैसियत कायम रही कि सच सामने लाकर भेद खत्म किए जाने का आधार तिरोहित हो गया। आखिर, जहां 18 पुराणों और महाभारत के रचयिता शुद्र मां के पुत्र व्यास पूजनीय हों, वाल्मीकि की रामायण सबके लिए श्रद्धा तथा स्वयं ऋषि के रूप में उनकी मान्यता हो वहां इस तरह जाति-व्यवस्था में छूत-अछूत, ऊंच-नीच कैसे पैदा हुई यह गहराई से विचार करने का विषय है।
किसी साधु-संन्यासी या कथावाचक के साथ जाति के आधार पर हर जगह व्यवहार होता हो यह आम स्थिति नहीं है। इटावा वैसे भी अखिलेश यादव परिवार का घर है, और वहां उनकी जाति के लोग संपन्न और प्रभावी हैं। जिस परिवार में कथावाचक और उनके सहयोगी भोजन कर रहे थे वो दंपति हरिद्वार में प्राइवेट नौकरी करता है, और कथा के कारण ही गांव आया था। पुलिस जांच कर रही है, और सच्चाई सामने आएगी। इस समय जो कुछ बताया जा रहा है केवल उतना ही और वही सच होगा ऐसा मत मान लीजिए। बावजूद यह स्थिति भयभीत करने वाली है। ऐसी घटना और इसके राजनीतिक-सामाजिक दुरु पयोग और जातीय युद्ध पैदा करने की कोशिश है जो निस्संदेह भयभीत करने वाली है। इसलिए सभी जातियों के प्रबुद्ध लोगों का दायित्व है कि सामने आकर इसका सकारात्मक, संतुलित सामना करें ताकि तत्काल किसी तरह का सामाजिक तनाव आगे न बढ़े और भविष्य में ऐसी घटना की पुनरावृत्ति न हो।
(लेख में विचार निजी हैं)
| Tweet![]() |