रंगमंच : दम तोड़ रही हैं कठपुतलियां
हर साल 21 मार्च को विश्व कठपुतली दिवस (World Puppet Day) मनाया जाता है। आज तकनीकी विकास के बदलते दौर में दिल बहलाने के साधनों में अपार वृद्धि के कारण कठपुतली की लोक कला लुप्त होने के कगार पर है।
रंगमंच : दम तोड़ रही हैं कठपुतलियां |
यह लोक कला लोक-शिक्षण, सामाजिक सरोकार, ऐतिहासिक घटना, प्रसंग और भाईचारे की संदेशवाहक होने के साथ ही लोगों में जागृति लाने का सशक्त माध्यम भी रही है। कठपुतली कला द्वारा महिला शिक्षा, प्रौढ़ शिक्षा, परिवार नियोजन जैसे सम-सामयिक विषयों पर आधारित कार्यक्रमों ने लोगों की गलत धारणाओं को बदल कर उन्हें सही दिशा एवं मार्गदर्शन देने का काम किया है। लेकिन कद्रदानों की कमी और सरकारी संरक्षण के अभाव में यह कला अब दम तोड़ रही है। कठपुतली कलाकारों के जीविकोपार्जन का संकट गहराने लगा है। वस्तुत: कठपुतली कलाकार अपना पुश्तैनी धंधा छोड़कर अन्य कामकाज करने लगे हैं।
भले ही देश में इस कला के चाहने वालों की तादाद लगातार घट रही है, लेकिन विदेशियों में यह कला काफी लोकप्रिय है। आज यह कला चीन, रूस, रोमानिया, इंग्लैंड, चेक गणराज्य, स्लोवाकिया, अमेरिका, जापान जैसे उन्नत देशों में भी पहुंच चुकी है। पर्यटक सजावटी चीजों, स्मृति और उपहार के रूप में कठपुतलियां भी भारत से ले जाते हैं। मगर बेची जाने वाली कठपुतलियों का फायदा बड़े-बड़े शोरूम के विक्रेता ही उठाते हैं। बिचौलिये भी माल को इधर से उधर करके चांदी कूट रहे हैं, जबकि इन्हें बनाने वाले कलाकर दो जून की रोटी को भी मोहताज हैं। समय के साथ इस कला के प्रदर्शन में भी काफी बदलाव आया है। अब यह खेल गली-कूचों और चौपालों पर न होकर फ्लड लाइट की रोशनी में बड़े-बड़े मंचों पर आयोजित किया जाने लगा है।
कठपुतली शब्द संस्कृत भाषा के ‘पुत्तलिका’ या ‘पुत्तिका’ और लैटिन के ‘प्यूपा’ से मिल कर बना है, जिसका अर्थ है छोटी गुड़िया। सदियों पहले कठपुतली का जन्म भारत में हुआ था। कठपुतली के इतिहास के बारे में कहा जाता है कि ईसा पूर्व चौथी शताब्दी में महाकवि पाणिनी के अष्टाध्यायी ग्रंथ में पुतला नाटक का उल्लेख मिलता है। उज्जैन नगरी के राजा विक्रमादित्य के सिंहासन में जड़ित 32 पुतलियों का उल्लेख ‘सिंहासन बत्तीसी’ नामक कथा में भी मिलता है। शुरू में इनका इस्तेमाल प्राचीनकाल के राजा-महाराजाओं की कथाओं, धार्मिंक, पौराणिक व्याख्यानों और राजनीतिक व्यंग्यों को प्रस्तुत करने के लिए किया जाता था। आम तौर पर इन कठपुतलियों का सिर लकड़ी या पेपरमेशी का होता है, उसी के हिसाब से उनका धड़ होता है।
इनके हाथ-पैर लकड़ी के या कपड़े में रुई भर कर बनाए जाते हैं। इनके हर अंग से एक पतली तथा लंबी डोरी बंधी होती है, जिसका अंतिम सिरा पुतली चालक कलाकारों के हाथ की उंगलियों से बंधा होता है। अपनी उंगलियों के जादू से ही ये कलाकार इस डोर को हिला कर कठपुतलियों को अपने इशारे पर नचाते हैं। अत्यंत चिंताजनक है कि प्राचीन धरोहर और संस्कृति का अभिन्न अंग मानी जाने वाली कठपुतली कला का जादुई संसार सरकारी संरक्षण व प्रोत्साहन के अभाव में सिमटता जा रहा है। महानगरों में रहने वाले अधिकांश बच्चों और युवाओं को कठपुतली के खेल के बारे में जानकारी तक नहीं है। अभिभावकों के पास समय ही नहीं है कि बच्चों को अपने देश की सांस्कृतिक विरासत एवं ऐतिहासिक धरोहर और लोक कलाओं से परिचित करवाएं। मोबाइल और कंप्यूटर से चिपके बच्चे भी संस्कृति, रीति-रिवाजों और त्योहारों में रु चि लेना नहीं चाहते। उनकी नवीन चीजों को जानने और समझने की प्रवृत्ति का इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों से हर समय चिपके रहने के कारण दिन प्रति दिन हृास होता जा रहा है।
अलबत्ता, सकारात्मक बात यह है कि विषम परिस्थितियों में भी कठपुतली कला को समर्पित कलाकारों ने उत्साह नहीं खोया है। इन्हें उम्मीद है कि आज न सही तो कल लोक कलाओं को समाज में इनकी खोयी हुई जगह फिर से मिल जाएगी। सवाल है कि जब विदेशी पर्यटक हमारी लोक कलाओं को देखने, जानने और समझने में रुचि दिखा रहे हैं तो हम क्यों उनसे मुंह मोड़ रहे हैं। आवश्यक है कि लुप्त होती इस कला के प्रति सरकार संजीदा होकर शीघ्र संरक्षण के लिए प्रयास करे।
स्कूलों और कॉलेजों में यह खेल दिखा कर युवा पीढ़ी का ध्यान इस कला की ओर खींचा जा सकता है। गांव-कस्बों में धार्मिंक आयोजनों और मेलों में इस कला का मंचन सरकारी स्तर पर करवा कर इस कला के रुचि पैदा की जा सकती है। किसी भी राष्ट्र की लोक कला और संस्कृति ही उसकी आत्मा होती है। लोक कला से ही लोकधर्मिंता का भाव उत्पन्न होता है। जीवन ऊर्जा का महासागर है। जब अंतश्चेतना जागृत होती है तो ऊर्जा जीवन को कला के रूप में उभारती है। कला जीवन को सत्यम शिवम सुंदरम से समन्वित करती है। रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने भी कहा है कि कलाओं में मनुष्य अपने भावों की अभिव्यक्ति करता है। सो, इन्हें सहेजे रखना जरूरी है।
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