पक्ष-विपक्ष : कौन किस पर रहेगा भारी

Last Updated 21 Aug 2023 12:56:17 PM IST

विपक्षी दलों की पटना में पहली बैठक और फिर 26 दलों की जुलाई में आहूत बेंगलुरू बैठक ने आगामी आम चुनाव को रोचक बना दिया है।


पक्ष-विपक्ष : कौन किस पर रहेगा भारी

एनडीए के बरक्स बने गठबंधन ने अपना नाम ‘इंडिया’ (इंडियन नेशनल डवलपमेंटल इंक्लूसिव अलायंस) घोषित कर चुनावी चर्चा  का मुख्य बिंदु बन गया है। इस परिघटना से भाजपा खेमे में सरगर्मी बढ़ी है। ज्ञात हो कि जिस दिन ‘इंडिया’ की बैठक बेंगलुरू में हो रही थी, ठीक उसी दिन नई दिल्ली में भाजपा ने एनडीए की पच्चीसवीं वषर्गांठ मनाने का निर्णय किया और उसके आमंतण्रपर 38 राजनीतिक दलों ने हिस्सा लिया।

चुनावी वर्ष में विभिन्न गठबंधनों की बैठक होना बिल्कुल स्वाभाविक है। राजनीति-रणनीति का हिस्सा है। पक्ष-विपक्ष में राजनीतिक वार-प्रतिवार भी आश्चर्यजनक नहीं है। वैचारिकी, नेतृत्व, मुद्दे जैसे प्रचार-अभियान बिंदुओं पर वाद-विवाद के रास्ते सभी राजनीतिक दल जनमानस को प्रभावित करने की कोशिश करते हैं।  लोकतंत्र में प्रतिनिधित्व निर्माण का यही सरल तरीका है। 1989 में लोक सभा चुनाव के बाद लगभग एक दशक तक मिली-जुली सरकार या अल्पमत सरकार का दौर था।

न्यूनतम साझा कार्यक्रम के आधार पर जन मोर्चा से लेकर संयुक्त मोर्चा की सरकारें बनी थीं। तत्पश्चात गठबंधन राजनीति में दो स्थायी धुरी बनीं जिनमें एक तरफ भाजपा की अगुआई में एनडीए था तो दूसरी तरफ यूपीए का नेतृत्व कांग्रेस कर रही थी। अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में एनडीए की पहली पूर्णकालिक सरकार 1999 में बनी जिसे कांग्रेस के नेतृत्व में बने यूपीए गठबंधन ने लोक सभा चुनाव 2004 में हरा दिया। मनमोहन सिंह के नेतृत्व में यूपीए ने अपने दो कार्यकाल (2004-14) पूरे किए। उसके बाद नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में एक बार फिर एनडीए गठबंधन ने लोक सभा (2014) में जीत दर्ज की और अब दूसरे कार्यकाल (2019-24) का अंतिम वर्ष पूरा कर रहा है।

भारतीय चुनाव इतिहास को देखने से पता चलता है कि हरेक दशक की अपनी कहानी है। कभी मुद्दे तो कभी व्यक्ति सत्ता परिवर्तन के कारण बनते हैं। अपराजेय दिखने वाले दल, गठबंधन और नेतृत्व भी पराजित हुए हैं। पिछले दो आमों चुनाव और कई राज्यों के चुनावों में बहुत हद तक मोदी मैजिक को कारगर माना गया। हालांकि प्रधानमंत्री मोदी द्वारा राज्य के चुनावों में निरंतर चुनाव प्रचार करने के बावजूद पंजाब, बंगाल, बिहार, झारखंड, ओड़िशा, तमिलनाडु, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, केरल, कर्नाटक, राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, मेघालय जैसे कई राज्यों में भाजपा को मुंह की खानी पड़ी है। उल्लेखनीय है कि मोदी के नेतृत्व में दो आम चुनावों (2014 और 2019) में भाजपा ने जीत हासिल की।

पहली चुनावी जीत का कारण ‘सबका साथ-सबका विकास’ माना गया तो दूसरी पारी में राष्ट्रवाद का नैरेटिव अंतत: निर्णायक साबित हुआ। सनद रहे कि इस दौर में विपक्षी दलों की स्थिति किंकर्त्तव्यविमूढ़ जैसी रही  जब अपनी हार-उसकी जीत कुछ भी बोलना सरल नहीं लगता था। नोटबंदी, जीएसटी, राफेल, कोरोना प्रबंधन, ईडी, इनकम टैक्स और सीबीआई के दुरुपयोग जैसे मुद्दों पर विपक्षी दलों ने संसद से सड़क तक मुखर होकर आवाज उठाई लेकिन चुनावी निर्णय पर खास प्रभाव देखने को नहीं मिला। ऐसी परिस्थिति में नीतीश कुमार का एनडीए गठबंधन छोड़ना और महागठबंधन के सहयोग से बिहार में सरकार बनाना, विपक्षी खेमे के लिए संजीवनी सरीखा काम हुआ है। यह मात्र सत्ता परिवर्तन नहीं था बल्कि मोदी सरकार को सत्ता से बेदखल करने का उदघोष भी था। इस विपक्षी एकजुटता की मुहिम में बिहार के उपमुख्यमंत्री तेजस्वी प्रसाद यादव भी निरंतर साथ रहे हैं। फलस्वरूप जून, 2023 में 15 विपक्षी दलों की पहली बैठक पटना में हुई।

इंडिया गठबंधन के गठन ने भारतीय राजनीतिक विमर्श की दिशा बदल दी है। संसद के मानसून सत्र में अविश्वास प्रस्ताव के जरिए मणिपुर हिंसा पर प्रधानमंत्री के बयान और दिल्ली सर्विसेज विधेयक पर सरकार को घेरने में विपक्षी एकजुटता मजबूत दिखी। बहरहाल, लोकतंत्र में चुनावी वर्ष के दौरान ही सरकार के क्रियाकलाप पर खुलकर बहस होती है जो लोक मत को बहुत हद तक प्रभावित भी करती है। देखना दिलचस्प होगा कि एनडीए को टक्कर देने के लिए बना इंडिया गठबंधन जनसरोकार के मुद्दों के साथ-साथ मोदी सरकार के कार्यपालिका पर अतिवाद के संकेतों को जनता के समक्ष कैसे रखता है? क्या इंडिया गठबंधन का क्रमिक उभार सत्तारूढ़ दल और गठबंधन के लिए चिंता का सबब बन गया है? विपक्षी गठबंधन के खिलाफ आक्रामक अभियान का नेतृत्व स्वयं प्रधानमंत्री क्यों कर रहे हैं, और इसलिए मायने क्या हैं? जन सरोकार के मुद्दों पर चुनावी वर्ष में पक्ष-विपक्ष के बीच जबरदस्त तकरार का माहौल बनता दिखाई दे रहा है। अब लाख टके के सवाल का उत्तर जनता के पास ही है कि ऊंट किस करवट बैठेगा?

डॉ. नवल किशोर


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