जहरीली शराब : कब तक मौत बांटती रहेगी?

Last Updated 19 Jan 2021 04:43:31 AM IST

पिछले दिनों उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर में जहरीली शराब से पांच जान चली गई। सत्रह अन्य मौत का ग्रास बनने से बाल-बाल बचे। मध्य प्रदेश के मुरैना जिले में जहरीली शराब से बाईस लोगों की जान गई।


जहरीली शराब : कब तक मौत बांटती रहेगी?

अठारह गंभीर हालत में अस्पताल में भर्ती हैं। राजस्थान के भरतपुर जिले के रूपवास में शराब ने सात लोगों की जान ले ली है, जबकि छ: अस्पतालों में जिंदगी की जंग लग रहे हैं।
ऊपर से एक जैसी नजर आने वाली तीनों घटनाओं में एक बड़ा फर्क है। मुरैना में जान गंवाने वाले तो जिले के एक गांव में बनाई जा रही अवैध शराब के शिकार हुए, बुलंदशहर के मामले में ‘शराब के बदले वोट’ कहें या ‘वोट के बदले शराब’ ने बड़ी भूमिका निभाई। खबरों के अनुसार आसन्न पंचायत चुनाव में जीत पक्की करने के लिए एक संभावित प्रत्याशी ने वोटरों को शराब बांटी जो जहरीली सिद्ध हुई। रूपवास में शराब कांड के बाद भड़का लोगों का गुस्सा बताने को पर्याप्त है कि शराब के धंधेबाजों के अलावा किन-किन के हाथ काले हैं। अलबत्ता, अपनी स्थिति का दुरु पयोग कर ‘दुनिया मुट्ठी में करने’ की एक तबके की हवस तीनों घटनाओं में एक जैसी निर्वस्त्र हुई है। सांप निकल जाने पर लकीर पीटने की तर्ज पर सरकारों द्वारा धरपकड़, तबादले और निलंबन वगैरह कार्रवाइयां इन घटनाओं में एक जैसी हैं। इस संदर्भ में पूर्ण शराबबंदी की हिमायत करने वाली महात्मा गांधी की इस टिप्पणी को याद करने का तो अब शायद ही किसी के निकट कोई मतलब हो कि शराब औषधि के रूप में भी त्याज्य है, और इस कारण किसी भी जनकल्याणकारी सरकार के लिए उसके पूर्ण निषेध का कोई विकल्प नहीं हो सकता।

शराबबंदी के मामले में कभी सामाजिक-सांस्कृतिक तो कभी आर्थिक-राजनीतिक मजबूरियों की आड़ लेकर सरकारों द्वारा लगातार बरते जा रहे दुचित्तेपन की हद यह है कि बिहार में लागू शराबबंदी भी दुचित्तेपन से नहीं बच पाई है। अन्य प्रदेशों में जिलाधिकारी मद्यनिषेध अभियान चलाते हैं, वहीं हर नये वित्त वर्ष में शराब के सरकारी ठेकों की बढ़ी दर पर नीलामी के लिए कुछ भी उठा नहीं रखते। न कोई इन सरकारों को अब तक समझा पाया है और न वे खुद समझ पाती हैं कि नीलामी की दरें शराब के उपभोग के अंधाधुंध बढ़े बिना ज्यादा नहीं बढ़ सकतीं और इनके लिए शराब का उपभोग बढ़ाना ही है, तो मद्यनिषेध अभियान के ढोंग का हासिल क्या है? सरकारी ठेकों के समानांतर शराब का जो अवैध कारोबार कल्पनातीत पैमाने पर चलता रहता है, उसके उत्पादों के सबसे बड़े कहें या ज्यादातर ग्राहक वे ‘गरीब’ होते हैं, जो सरकारी ठेकों की ‘महंगी’ शराब नहीं खरीद सकते। शायद इसीलिए अवैध कारोबार का हाल देश में गरीबों की होकर रह गई दूसरी चीजों जितना ही बुरा है। कोई शराब कांड होने पर  सरकारें हड़बड़ाकर नींद से जागती हैं। दिखावे के लिए पीड़ितों के लिए मुआवजे व जांच के ऐलान के साथ धंधेबाजों की गिरफ्तारियां करातीं और ‘जिम्मेदार’ ठहराए गए अधिकारियों व कर्मचारियों पर कार्रवाइयों के कागजी कोड़े बरसाने लग जाती हैं, लेकिन जल्द ही सरकारें फिर झपकी लेने लग जाती हैं, और उनका अमला मौका ताड़कर सारी कागजी कार्रवाई को चुपके से खत्म कर देता है। फिर अगली त्रासदी होने से पहले किसी को यह भी देखने की फुरसत नहीं होती कि व्यवस्था पर भारी पड़ रहे शराब-कारोबारी अवयस्कों को भी शराब बेच-पिला रहे हैं, जिन्हें तंबाकू के उत्पाद बेचने तक की कानूनी मनाही है। हालात के दूसरे पहलू पर जाएं तो इस मामले में राजनीतिक नेतृत्व ही नहीं, राजनीतिक पार्टयिां भी इतनी स्वार्थाध हैं कि चुनाव के दौरान शराब बांटने की घटनाओं को रोकना चुनाव आयोग के लिए बड़ी समस्या हो जाती है। आम लोगों में ऐसी घटनाओं के खिलाफ गुस्से को भी राजनीतिक रंग देकर भटका दिया जाता है।
देश में उदारीकरण के बाद तो लगता है कि ऐसी त्रासदियों का खास वर्गचरित्र भी है। विदेशी निवेश के लिए लालयित सरकारें निवेशकों की ‘मांग’ पर देश भर में अमीरों के लिए बेहतर शराब की खरीद-बिक्री के एक से बढ़कर एक सुभीतों के सुव्यवस्थित इंतजाम करके प्रफुल्लित हो रही हैं, जबकि गरीबों को ‘अवैध’ व ‘कच्ची’ के हवाले करके उनके हाल पर छोड़ दिया गया है। काश, ये सरकारें समझतीं कि पूर्ण शराबबंदी के विरोध में उनके द्वारा जिन सामाजिक-सांस्कृतिक कारणों का प्राय: हवाला दिया जाता रहता है, शराब को जहरीली करने में उनकी कतई कोई भूमिका नहीं है। होती तो सबसे पहले वे आदिवासी मारे जाते, जिनके यहां तमाम उत्सवों का वह अनिवार्य हिस्सा है। दरअसल, यह किसी भी कीमत पर मुनाफा कमाने की बढ़ती भूमंडलीकरण पोषित प्रवृत्ति है, जो न दवा को दवा रहने दे रही है, न दारू को दारू।

कृष्ण प्रताप सिंह


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