मुद्दा : पहले हिमालय को तो बचाइए

Last Updated 08 Sep 2017 03:41:33 AM IST

भगीरथ प्रयास से हिमालय रूपी स्वर्ग से गंगा धरती पर आई है. गंगा के पवित्र जल को स्पर्श करके भारत ही नहीं दुनिया के लोग अपने को धन्य मानते हैं.




पहले हिमालय को तो बचाइए

हिमालय से निकलने वाली सभी नदियों को नौ हजार से भी अधिक ग्लेश्यिरों ने जिंदा रखा हुआ है, जिनसे देश को 60 प्रतिशत जल मिलता है. हिमालय पर संकट है कि पिघलते ग्लेश्यिरों के कारण नदियों में बरसात के समय को छोड़कर शेष मौसम में जल धीरे-धीरे कम होती जा रही है.

गोमुख ग्लेिश्यर प्रति वर्ष 3 मीटर पीछे हट रहा है. इस ग्लेश्यर से आ रही भागीरथी के बहाव की दिशा में इस बार भारी भूस्खलन के कारण बदलाव हो गया है. कभी बर्फ अधिक तो कभी कम पड़ती है लेकिन पिघलने की दर दोगुनी हो गई है. बर्फ का तेजी से पिघलने का सिलसिला सन 1997 से अधिक बढ़ा है. जलवायु परिवर्तन इसका एक कारण है. दूसरा वह विकास है, जिसके कारण हिमालय का सीना छलनी कर दिया गया. जून 2013 का केदारनाथ आपदा कभी भुलाया नहीं जा सकता, जिसने लोगों के तामझाम नष्ट करने में कुछ ही मिनट लगाए. हिमालय ने यह भी बता दिया कि मानवजनित कथित विकास के नाम पर पहाड़ों की गोद को अंधाधुंध रूप में छीलना कितना मंहगा पड़ सकता है?

2017 की आपदा ने भी सरकार को सचेत किया कि मौजूदा विकास का ढांचा हिमालय के अनुकूल नहीं है. केंद्र सरकार ने हिमालय इको मिशन बनाया है, जिसके अंतर्गत समुदाय व पंचायतों को भूमि संरक्षण व प्रबंधन के लिए जिम्मेदार बनाने की प्रक्रिया प्रारंभ करनी थी. इसके पीछे मंशा यह थी कि हिमालय में भूमि प्रबंधन के साथ-साथ वन संरक्षण और जल संरक्षण के काम को मजबूती दी जा सके, ताकि गंगा समेत इसकी सहायक नदियों में जल की मात्रा बनी रहे. लेकिन ऐसा करने के स्थान पर आधुनिक विज्ञान ने सुरंग बांधों को मंजूूरी देकर गंगा के पानी को हिमालय से नीचे न उतरने की सलाह दे दी. टिहरी के बाद पंचेर और पूरे हिमालयी क्षेत्र में प्रस्तावित, निर्माणाधीन 1000 से अधिक बांधों के नाम पर ऊर्जा प्रदेशों की कल्पना से हिमालय नहीं बचेगा.

वर्तमान भाजपा सरकार ने अपने घोषणा पत्र में हिमालय का जिक्र किया है. प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने गंगा को बचाने के लिए ‘नदी अभियान मंत्रालय’ बनाया है. जिस अभियान को पहले ही कई स्वैच्छिक संगठन, साधु संत और पर्यावरणविद् और मीडिया समूह चलाते रहे हैं, वह अब सरकार का अभियान बन गया है. लेकिन हिमालय से बह रही गंगा की अविरला निर्मलता के उपाय सिर्फ केंद्रीय व्यवस्था से नहीं चल सकते हैं. यह तभी संभव है जब तटों पर रहने वाले लोगों को जिम्मेदारी दी जा सके. यह जरूरी है कि गंगा के उद्गम से गंगा सागर तक प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण व हरियाली बचाने वाले समाज को रोजगार देना प्राथमिकता बननी चाहिए. तटों पर बसी हुई आबादी के बीच ही पंचायतों व नगरपालिकाओं की निगरानी समिति बनानी होगी. लेकिन इतना अवश्य ध्यान रहे कि इस नाम पर सरकार जो भी खर्च करे वह समाज की सहमति के साथ करे. लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि हिमालय के बिना गंगा का अस्तित्व संभव है.

केंद्र सरकार को गंगा के साथ ही हिमालय के विकास के मॉडल पर विचार करना जरूरी है. आज के विकास से हिमालय को बचाकर रखना पहली प्राथमिकता होनी चाहिए. इसके लिए संसद को एक समग्र हिमालय नीति बनानी चाहिए. नवम्वर 2010 में उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर, दिल्ली समेत कई राज्यों के पर्यावरणविदों ने मिलकर देहरादून में ‘हिमालय लोक नीति’ का दस्तावेज केंद्र सरकार को सौंपा था. हिमालय नीति क्यों जरूरी है, अध्ययन करके ही इसे समझा जा सकता है. पांचवी पंचवर्षीय योजना में केंद्र को हिमालयी क्षेत्रों के  विकास की याद आई थी. बाद में हिल एरिया डेवलपमेंट के नाम से योजना भी चलाई गई. इसी के तहत हिमालयी क्षेत्र को अलग-अलग राज्यों में विभक्त किया गया है. नहीं भूलना चाहिए कि हिमालय भारत का ताज है. इसके नजदीक रह रहे जम्मू कश्मीर, हिमाचल, उत्तराखंड, सिक्किम, अरुणाचल, मणिपुर, मिजोरम, त्रिपुरा, मेघालय, नागालैंड, पश्चिम बंगाल का पर्वतीय क्षेत्र और असम राज्यों की एक विशिष्ट भौगोलिक संरचना, सामाजिक आर्थिक स्थिति, पहाड़ी सांस्कृतिक विविधता भारत के अन्य सभी राज्यों से भिन्न है. इसलिए केंद्र सरकार द्वारा इन पहाड़ी राज्यों में निर्धारित की जाने वाली विकास की नीतियां मैदानी पैटर्न से संचालित नहीं करनी चाहिए.

सुरेश भाई
लेखक


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