मुद्दा : महिला सैनिकों का दम-खम

Last Updated 09 Sep 2017 03:54:53 AM IST

महिलाएं अभी सेना में हैं पर लड़ाकू भूमिका में नहीं हैं. हर साल सशस्त्र सुरक्षाबलों की तीनों शाखाओं में करीब 3300 महिलाओं की भर्ती होती है, लेकिन वे चिकित्सा, लीगल, शिक्षा, सिग्नल और इंजीनियरिंग शाखाओं में काम करती हैं, सीधे दुश्मन से नहीं भिड़ती हैं.


मुद्दा : महिला सैनिकों का दम-खम

पर देश की नई रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमण ने कार्यभार संभालने से पहले ही जो पहली बात कही, वह महिलाओं को युद्ध में भूमिका दिलाने के संबंध में ही है. उनका मत है कि यह मामला सिर्फ  महिलाओं को संरक्षण देने का नहीं, बल्कि यह उनकी स्थिति बदलने, सशक्तीकरण और देश-समाज का उनके प्रति नजरिया बदलने का है.

महिलाओं को लड़ाकू भूमिका नहीं देने के कुछ अहम कारण गिनाए जाते रहे हैं. कहा जाता है कि अगर युद्ध हुआ और लड़ाकू सैनिक महिलाएं दुश्मन के कब्जे में ले ली गई, तो युद्धकैदी के रूप में उनके बदले दुश्मन देश अपनी मनमानी चला सकता है. तर्क ये भी हैं कि जितनी कठोर ड्यूटी पुरु ष सैनिकों को निभानी पड़ती हैं, हो सकता है कि महिलाएं उनमें कमजोर साबित हों. सैनिकों को नियम कायदों को तोड़ने से रोकना, सैन्य मूवमेंट, युद्ध बंदियों को संभालना और जरूरत पड़ने पर सिविल पुलिस की मदद का काम भी सेना के जवानों को करना होता है.

हालांकि इससे इतर भूमिकाएं महिलाओं को हमारे देश में दी जा चुकी हैं. जैसे पिछले साल इंडियन एयरफोर्स ने तीन महिलाओं को फाइटर पायलट के रूप में शामिल किया था. ये तीन महिलाएं-अवनी चतुर्वेदी, भावना कांत और मोहना सिंह फाइटर पायलट के रूप में काम कर रही हैं. इसके अलावा बॉर्डर सिक्योरिटी फोर्स (बीएसएफ) में भी महिला अफसरों की नियुक्ति की पहलकदमी की जा चुकी है.

हालांकि अभी भी महिलाओं को सीआरपीएफ और सीआईएसएफ में अफसर की वर्दी पहनने का मौका मिलता है, लेकिन वहां महिलाएं मोर्चे पर दुश्मन फौज का सीधा मुकाबला नहीं करती क्योंकि इन दोनों सुरक्षा बलों की जिम्मेदारी आंतरिक सुरक्षा की होती है.

जहां तक लड़ाकू सैनिक की भूमिका देने की बात है, तो जर्मनी, ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, अमेरिका, ब्रिटेन, डेनमार्क, फिनलैंड, फ्रांस, नॉर्वे, स्वीडन और इस्रइल में महिलाएं यह भूमिका निभा रही हैं. सात साल पहले 2010 में जब अदालत (दिल्ली हाई कोर्ट) के सामने यह सवाल आया था कि क्या शॉर्ट सर्विस कमीशन से सेना में आई महिलाओं को परमानेंट सर्विस कमीशन दिया जाए या नहीं, तो अदालती फैसला आने से पहले सेना ने महिलाओं को फौज में लड़ाकू की भूमिका में रखने और उन्हें लड़ाकू यूनिटों की कमान सौंपने के खिलाफ कई तर्क दिए थे.

सेना का तर्क यह था कि उसके सैनिक (पुरुष) आम तौर पर ग्रामीण पृष्ठभूमि से आते हैं और स्त्रियों के प्रति उनके मन में एक स्थायी पारंपरिक छवि बनी रहती है. महिला अधिकारियों को परमानेंट सर्विस कमीशन देने पर उन्हें सीधे सैनिक टुकड़ियों की कमांडिंग भूमिका में रखना होगा, लेकिन तब शायद सैनिक उनके नेतृत्व में जान देने और जान लेने का काम शायद उतनी तत्परता से न कर पाएं.

अदालत ने इस दलील पर तुर्की-ब-तुर्की कुछ कहना उचित नहीं समझा, लेकिन लिंगभेद के आधार पर स्त्रियों के साथ कोई अन्याय भी नहीं होने दिया. पर इससे सेना की एक स्थायी राय का पता अवश्य चला. महिलाओं को लेकर हमारी फौज की आम राय का खुलासा सेना में नौकरी कर रही स्त्रियों के खिलाफ जब-तब होते रहे कई हादसों से भी हुआ है. मामले अनगिनत हो सकते हैं, पर ज्यादा चर्चा में आए दो मामलों का उल्लेख करना इस संबंध में प्रासंगिक होगा. एक मामला वर्ष 2010 में सेना की युवा अफसर लेफ्टिनेंट सुष्मिता चक्रवर्ती की आत्महत्या का है और दूसरा वर्ष 2009 में कोर्ट माशर्ल करके सेना से बर्खास्त की गई कैप्टन पूनम कौर का.

असल में, इन मामलों में सैन्य अदालतों के फैसलों के बाद ज्यादा कुछ कहने की गुंजाइश तो नहीं बचती? असल में फौज ही नहीं, मेहनत मांगने वाले (तथाकथित मर्दानगी की मांग वाले) पेशों के साथ अपने देश में यह राय जोड़ दी गई है कि वहां अव्वल तो महिलाओं को आना ही नहीं चाहिए. उनके आने से समस्याओं में इजाफा ही होगा. यानी नये नजरिये को लेकर अभी भी उन्हें काफी परहेज है. दिमागी स्तर पर होने वाली इन तब्दीलियों के बगैर चलाई जाने वाली लेडीज स्पेशल फौज ही क्या, किसी भी उस क्षेत्र में कामयाबी से आगे नहीं बढ़ सकती जिसे फिलहाल पुरु षों तक सीमित माना जाता है?

मनीषा सिंह
लेखिका


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