हिंदुत्व : उत्तर सिर्फ समाज के पास

Last Updated 28 Oct 2016 02:41:19 AM IST

हिंदू, हिंदुत्व, हिंदूइज्म आदि शब्दों पर भारत में विवाद चलता ही रहेगा, जब तक कि समाज में भारतीय, भारतीयता जैसी धारणाओं के अर्थ और आशय पर व्यापक सहमति नहीं होती.


हिंदुत्व : उत्तर सिर्फ समाज के पास

यह सहमति लाना किसी अदालत का काम नहीं है और न ही इसे कोई राजनैतिक दल इसे समाज पर थोप सकता है. यह हमारे समाज के हजारों साल के अनुभव से बने स्वभाव की सहज प्रक्रिया से ही विकसित हो सकता है. जब कोई नेता या अपने आपको धर्मनिरपेक्ष कहने वाला सामाजिक कार्यकर्ता इन शब्दों पर आपत्ति करता है तो राजनैतिक दल तो अपने हित-अहित का ध्यान रखते हुए या तो बगलें झांकने लग जाते हैं या गोलमोल उत्तर देकर मामला टाल देते हैं. लेकिन न्यायालय क्या करे? उसे तो कानून के दायरे में रह कर ही फैसला सुनाना है, वह नफा-नुकसान के हिसाब से उत्तर तो नहीं दे सकता. उसके लिए देश का संविधान ही महाग्रंथ है, जिसका वह सहारा ले सकता है.

यही 1995 में सर्वोच्च न्यायालय की तीन सदस्यीय पीठ ने किया और उसीका अनुमोदन सात सदस्यीय पीठ ने अब कर दिया. 1995 में सर्वोच्च न्यायालय के सामने सवाल था कि क्या उन उम्मीदवारों के चुनाव भ्रष्ट आचरण के अपराध पर रद्द किया जाना चाहिए, जिन पर हिंदुत्व के नाम पर वोट लेने का आरोप है. काफी बहस के बाद अदालत इस नतीजे पर पहुंची कि हिंदुत्व कोई मजहब नहीं है, वह एक जीवन शैली है. मतलब यह था कि हिंदुत्व किसी मजहब की तरह या किसी मत-मतांतर की भांति कुछ निश्चित रस्मो-रिवाज या नियम-कायदों की आचरण व्यवस्था नहीं है. भारत में उपजे अनेक मत और मार्ग इससे निकले हैं. लेकिन आपस में रस्मो-रिवाज और कभी-कभी दार्शनिक विचारों में भी भिन्न है. कुछ तो इस एक-दूसरे के विपरीत भी हैं. अद्वैतवादी, द्वैतवादी,शैव, वेदांती , सनातनी या आर्यसमाजी सभी अपने आप को हिंदू ही कहते हैं. इसलिए हिंदुत्व न तो किसी एक दार्शनिक विचारधारा और न किसी एक पूजा-पद्धति का नाम है. अदालत को लगा कि हिंदुत्व का नाम लेने से ही किसी के आचरण को भ्रष्ट नहीं माना जा सकता है.

लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि अदालत ने चुनाव में मजहब के आधार पर प्रचार करने की छूट दी हो. मुख्य न्यायाधीश टीएस ठाकुर ने कहा ‘सही बात यही होगी कि एक धर्मनिरपेक्ष देश में मतों के लिए अपील देश के धर्मनिरपेक्ष सिद्धांतों के आधार पर ही की जाए. हम धर्म के आधार पर वोट मांगने की प्रवृत्ति को प्रोत्साहित नहीं कर सकते. वोट बटोरने के उद्देश्य से राजनैतिक संगठनों द्वारा किसी धर्म विशेष का प्रचार करने की प्रवृत्ति को मान्यता नहीं दी जा सकती है.’

लेकिन अगर अदालत ने इस बात पर विचार करने की आवश्यकता महसूस नहीं की कि हिंदुत्व की चर्चा करने को धार्मिक प्रचार माना जाए कि नहीं, तो यही अर्थ निकलेगा कि अदालत को आज भी न्यायमूर्ति वर्मा की खंड पीठ के आदेश में कोई बुराई नहीं दिखाई देती. इसलिए अदालत की सोच को समझने के लिए हमें उसी पीठ के फैसले पर ध्यान देना होगा. न्यायमूर्ति वर्मा के अनुसार ‘हो सकता है कि इन शब्दों को इस्तेमाल करने का आशय धर्मनिरपेक्षता को बढ़ावा देना और भारतीय समाज की जीवनशैली, संस्कृति-नैतिक मूल्यों पर जोर देना ही हो, और किसी दल की असहिष्णुता और भेदभावपूर्ण नीतियों की आलोचना करना ही हो.’

हिंदुत्व के पक्ष में इतना कहने के बाद अदालत ने चेतावनी दी कि अगर इन शब्दों को जानबूझ कर गैर हिंदुओं को निशाना बनाकर धर्म या मजहब के तौर पर ही इस्तेमाल किया जा रहा हो तो इसे कदापि स्वीकार नहीं किया जा सकता है. लेकिन सवाल यह उठता है कि तीस्ता सीतलवाड़ और अन्य प्रतिवादियों की असली शिकायत क्या है? उनका कहना है कि न्यायमूर्ति वर्मा के फैसले ने ‘विनाशकरी स्थितियां’ पैदा कर दीं हैं; क्योंकि अब तो हिंदुत्व को भारतीयता के समान माना जाने लगा है और इसे भारतीय नागरिकता की पहचान बताया जाने लगा है.
दरअसल, प्रतिवादियों की परेशानी वास्तविक है. पिछले दशक में हिंदुत्व पर इतना बोला-सुना गया कि स्वाभाविक रूप से इसकी विशद व्याख्याएं होने लगीं और धीरे-धीरे यह धारणा बनने लगी है कि हिंदुत्व दरअसल भारत में जन्मे धर्मो के बीच सेतु है या उनको जोड़ने वाला धागा.

अगर धर्म को मजहब के समतुल्य माने तो इस्लाम और ईसाइयत के भारत में आने से पहले भी भारत बहुधर्मी देश रहा है. हिंदू नाम भी इन सब धर्मो को एक पहचान देने के उद्देश्य से मिला. अगर आरम्भ से ही हिंदुत्व इनके बीच की सामान्य धुरी रही है तो उसे किसी एक धर्म के बराबर कैसे माना जा सकता है? कई सालों से यह एहसास बढ़ता रहा है और इससे न केवल मत-मतांतारों बीच निकटता आने लगी है अपितु सिख, बौद्ध और जैन धर्मो के मुकबले भी हिंदुत्व कोई टकराव की स्थिति नहीं रहा है. यह हालत सचमुच उन दलों के लिए अनुकूल नहीं जो छोटे-बड़े साम्प्रदायिक गुटों की राजनीति करते हैं और जिनके लिए कोई सार्वदेशिक पहचान भले ही वह संस्कृति ही क्यों न हो; अनुकूल वातावरण नहीं बनाती है.

भाजपा जैसे दलों के लिए प्रत्यक्ष इसका कोई प्रभाव न भी पड़े, क्योंकि यह दल भी अपने राजनैतिक हितों के लिए अल्पसंख्यकों को मनाने में लगा है. लेकिन इससे धर्मनिरपेक्षता के बदले सर्वधर्म समभाव की धारणा को बढ़ावा देना अधिक आसान हो जाता है. धर्मनिरपेक्षता जहां धर्म से हटने का भाव है तो समभाव में धर्म को साथ लेकर चलने की भावना है. स्वाभाविक है कि इसका राजनैतिक प्रभाव दूरगामी होगा क्योंकि वर्तमान स्थितियों में भाजपा ही नहीं, कोई भी दल जो सार्वजनिक राजनीति करता है, इस अदालती फैसले से टकराने की कोशिश नहीं करेंगे. इसलिए जो लोग इस स्थिति से असंतुष्ट हैं, उन्हें भी समझ लेना चाहिए कि विचारों और धारणाओं की जंग अदालतों में नहीं लड़ी जा सकती है. उन्हें विचारों के क्षेत्र या फिर राजनीतिक के मैदान में ही लड़ा जा सकता है.

जवाहरलाल कौल
लेखक


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