समाज : क्रांतियां होतीं चुपचाप
क्रांतियां हमेशा शोर मचाते हुए नहीं आती. अक्सर वे चुपचाप, बिना किसी शोरगुल के घटित होती हैं. इसी से सांस्कृतिक विकास होता है.
समाज : क्रांतियां होतीं चुपचाप |
राज्य व्यवस्था एकाएक बदल सकती है. रातोंरात तख्तापलट हो सकता है, लेकिन सांस्कृतिक परिवर्तन क्रमश: और धीरे-धीरे होता है. हमारे दादाजी-पिताजी धोती पहनते थे. यही रोज की पोशाक थी और यही विशेष अवसरों की भी. लेकिन आज शहर के किसी भी इलाके में घूम आइए, धोती शायद ही कहीं नजर आए. कुरता जरूर बचा हुआ है, लेकिन अपना रूप बदल कर और फैशन की निशानी के स्तर पर. परिधान के इस परिवर्तन की न कभी घोषणा हुई, न इसके लिए संघर्ष करना पड़ा. जो हुआ वह इतना नि:शब्द था कि उसका आभास तक किसी को नहीं हो पाया.
मैं जिन तीन क्रांतियों की बात करना चाहता हूं, उनमें पहली है प्रेम विवाहों की बढ़ती हुई संख्या. बीस-पचीस साल पहले प्रेम विवाह इक्का-दुक्का होते थे. इसके लिए प्रेमी युगल को काफी संघर्ष करना पड़ता था. महीनों रोना-धोना चलता था. अक्सर विवाह तो हो जाता था, पर उसे पारिवारिक मान्यता नहीं मिलती थी. शादी के बाद लड़का-लड़की को अलग घर बसाना पड़ता था. कुछ को तो हमेशा के लिए परिवार से निष्कासित कर दिया जाता था, पर बहुतों को वापस स्वीकार लिया जाता था. आखिर, बेटा-बेटी के प्रति मोह भी कोई चीज होती है, बल्कि कहें कि होने वाले पौत्र-पौत्री का मोह ही होता था जो नाराज माता-पिता के गुस्से को काफूर करने का काम करता था.
प्रेम विवाह पहले एक असाधारण चीज लगती थी, अब साधारण-सी घटना लगती है. लेकिन है यह एक क्रांतिकारी घटना. अक्सर ऐसे विवाह अंतरजातीय और अंतरधार्मिंक होते हैं. हिंदुस्तान में जाति प्रथा जितनी मजबूत है, उसे देखते हुए इन विवाहों की सहज स्वीकृति एक अनोखी बात लगती है. ऐसे भी कहा जा कता है कि प्रेम विवाह नहीं, प्रेम एक क्रांतिकारी चीज है. यह अपने साथ जाति, धर्म, वर्ग सभी को बहा ले जाता है.
यह सच है कि प्रेम विवाहों की जैसी स्वीकृति महानगरों और नगरों में दिखाई पड़ती है, वैसी कस्बाई या ग्रामीण अंचल में नहीं. वहां अक्सर लड़का-लड़की को भाग कर शादी करनी पड़ती है. इसके बाद भी परिवार उनका पीछा नहीं छोड़ता. बहुत-से प्रेमी जोड़ों की या कुछ मामलों में लड़की या लड़के की हत्या कर दी जाती है. बहुतों को पंचायत द्वारा दंडित किया जाता है. और यह दंड बहुत क्रूर ढंग का होता है. गड़ासे से सिर को धड़ से अलग कर देना, पेड़ से लटका कर फांसी देना या जिंदा जला देना पंचों के लिए मामूली बात हो गई है. उत्तर भारत के कई राज्यों में खाप पंचायतें ऐसी हरकतों के लिए खासी बदनाम भी हुई हैं.
इस सिलसिले में क्रांतिकारी बात यह है कि इन भयानक नतीजों के बावजूद ऐसे प्रेम विवाह रु क नहीं रहे हैं. नौजवान जान की बाजी लगा कर प्रेम कर रहे हैं, और भाग कर अपना घोंसला बसा रहे हैं. इसका मतलब यही है कि कोई भी सजा इन अंतरजातीय संबंधों को रोक नहीं पा रही है. यह एक शुभ संकेत है. इससे उम्मीद होती है कि शहरों की तरह गांवों और कस्बों में आधुनिकता की लहर आएगी और जाति, धर्म, वर्ग आदि की भावनाओं को समय के साथ समझौता करने के लिए बाध्य कर देगी.
दूसरी मौन क्रांति भी कम महत्वपूर्ण नहीं है. पहले लड़के भी शिक्षा पाने या नौकरी करने बाहर कम जाते थे, आज लाखों लड़कियां अपना घर-परिवार छोड़ कर सुदूर शहरों में अकेली रह रही हैं. बेशक, यह ज्यादातर महानगरों में घटित हो रहा है, जहां अकेली लड़कियों को हॉस्टल भी हैं, जो हर दृष्टि से सुविधाजनक और सुरक्षित माने जाते हैं. लेकिन किसी भी महानगर में ऐसे हॉस्टलों की संख्या तीन-चार से ज्यादा नहीं है. इसलिए लड़कियां किराए पर फ्लैट या कोई कमरा ले कर रहने लगती हैं. इनकी जिजीविषा और आत्मविास की तारीफ कौन नहीं करेगा? वे जानती हैं कि पराए शहर में ही नहीं, अपने शहर में भी लड़की होना कितना असुरक्षित है, फिर भी वे तमाम तरह के जोखिम लेकर घर से निकलती हैं, और जहां उन्हें नौकरी या कॅरियर की आशा हो, वहां जाती हैं और अकेली रहती हैं.
कई बार उन्हें आर्थिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है. तब वे एक-दूसरे के लिए छोटा-मोटा एटीएम बन जाती हैं. इन एकाकी युवतियों की दूसरी विशेषता यह है कि ये आम तौर पर यौन शोषण को बरदाश्त नहीं करतीं. ये गर्वीली और स्वाभिमानी युवतियां हैं, इन्हें आसानी से डिगाया नहीं जा सकता. ये आधुनिक हैं, चपल हैं, पुरु षों की संगत में इनकी नानी नहीं मर जाती, ये खुल कर और हर विषय पर बात कर सकती हैं, पर इससे यह नहीं समझना चाहिए कि ये सुलभ भी हैं.
जो ऐसा समझ लेता है, वह मार खाता है. टीवी मीडिया में तो कइयों की नौकरी इसलिए चली गई क्योंकि उन्होंने अनुचित प्रयास किए थे. मैनेजमेंट भी अब इन बातों को हलके से नहीं ले सकता. वह बाकायदा जांच करवाता है और शिकायत सही पाने पर बरखास्त कर देता है. इन लड़कियों को मित्र और गर्ल फ्रेंड तो बनाया जा सकता है, पर रखैल नहीं, जैसा पहले होता था.
तीसरी क्रांति का समुदाय दलित समुदाय से है. वह अब पूर्णत: मुखर है, और दबने को तैयार नहीं है. रोहित वेमुला की आत्महत्या ने देश भर में अनुगूंज पैदा की और जगह-जगह जुलूस निकाले गए. पोस्टरों की भरमार हो गई. सोशल मीडिया पर र्भत्सना के शब्दों का जैसे कोई अंत ही नहीं था. यह इस बात का स्पष्ट संकेत है कि दलित अब अपने साथ अन्याय बरदाश्त नहीं करेंगे. गुजरात में एक दलित को यंतण्रा देने के बाद दलित जितनी बड़ी संख्या में सड़क पर आ गए, वह कई दृष्टियों से ऐतिहासिक था.
ऐसी ही घटना बसपा नेता मायावती के लिए अपशब्द का प्रयोग होने पर उत्तर प्रदेश के कई शहरों और खासकर लखनऊ में हुई. दलित नेता के लिए अपमानजनक टिप्पणी का विरोध करने वाले सिर्फ उनकी पार्टी के कार्यकर्ता नहीं थे, सामान्य दलित भी थी, जिन्हें यह बहुत बुरा लगा. क्या हम इसे दलित विद्रोह की भूमिका कह सकते हैं?
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