विश्लेषण : स्वतंत्रता की रक्षा भी राष्ट्रवाद है

Last Updated 31 Aug 2016 03:15:54 AM IST

यह संयोग नहीं है कि इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक के उत्तरार्ध में भारत के राष्ट्रपति को यह याद दिलाना जरूरी लगा है कि विश्वविद्यालयों का अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का गढ़ होना जरूरी है.




विश्लेषण : स्वतंत्रता की रक्षा भी राष्ट्रवाद है

नालंदा विश्वविद्यालय के पहले दीक्षांत समारोह में बोलते हुए, प्रणब मुखर्जी ने जोर देकर कहा कि विश्वविद्यालय को, ‘ऐसा क्षेत्र होना चाहिए, जहां विविध और विरोधी विचार सरणियां आपस में होड़ करें.

इन संस्थाओं के दायरों में असहिष्णुता, पूर्वाग्रह और घृणा की कोई जगह नहीं होनी चाहिए.’ इस मौके पर नालंदा विश्वविद्यालय के संदर्भ में राष्ट्रपति ने याद दिलाया कि, ‘पुराने नालंदा (विश्वविद्यालय) को, वहां फलते-फूलते बहस और चर्चाओं के ऊंचे स्तर के लिए जाना जाता था’ और उन्होंने इसका भरोसा जताया कि नया नालंदा विश्वविद्यालय, ‘सचमुच पुराने नालंदा का दर्जा हासिल कर सकेगा.’ इस मौके पर मुखर्जी यह कहने से भी नहीं चूके कि, ‘चर्चा और बहस, हमारे मानस और जीवन का अभिन्न हिस्सा है.’ बताने की जरूरत नहीं है कि मोदी सरकार आने के बाद से आम तौर पर असहमति के स्वरों के खिलाफ और खासतौर पर विश्वविद्यालयों और अन्य उच्च शिक्षा संस्थाओं में विचारों की स्वतंत्रता के खिलाफ जिस तरह युद्ध जैसा छिड़ा रहा है, उसकी पृष्ठभूमि में ही राष्ट्रपति को विश्वविद्यालय और विचार व अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की अभिन्नता को रेखांकित करना जरूरी लगा होगा.

यह विडंबनापूर्ण है कि राष्ट्रपति जब विश्वविद्यालय की इस जरूरी शर्त को रेखांकित कर रहे थे, वहां नालंदा विश्वविद्यालय के ही संस्थापक चांसलर, नोबेल पुरस्कार से सम्मानित अमृत्य सेन भी मौजूद थे, जिन्हें इस विश्वविद्यालय की अंतरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा की कीमत पर, नरेन्द्र मोदी के राज में कार्यकाल विस्तार से ठीक इसीलिए वंचित किया गया था कि वह, मोदी के आलोचक रहे थे. याद रहे कि कुछ ऐसा ही सलूक संघ परिवार की ‘आलोचना’ के लिए हाल ही में रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन के साथ भी किया गया है.

और हां, राजन की ही तरह अर्मत्य सेन ने भी नए शासन के रुख को समझकर, कार्यकाल विस्तार के लिए खुद ही अनिच्छा जता दी थी. बेशक, उच्च शिक्षा संस्थाओं की स्वतंत्रता पर, विशेष रूप से शीर्ष पदों पर नियुक्तियों आदि के स्तर पर, अंकुश लगाने की प्रवृत्ति पहले भी रही है. लेकिन मौजूदा एनडीए निजाम में इस प्रवृत्ति ने जिस तरह, विचार विशेष को स्थापित करने की सुव्यवस्थित मुहिम के जरिए, इन संस्थाओं के समूचे वातावरण को ही स्वतंत्रता तथा सहिष्णुता से उल्टी दिशा में बदलने की कोशिश का रूप ले लिया है, वह इस चुनौती को गुणात्मक रूप से भिन्न बना देता है. मिसाल के तौर पर यह संयोग ही नहीं है कि पहले हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय और फिर जेएनयू में, राष्ट्रवाद की दुहाई के साथ, स्मृति ईरानी के नेतृत्व में केंद्रीय सत्ता का जो हस्तक्षेप हुआ था, उसके पीछे एक प्रयास संघ परिवार के छात्र संगठन, एबीवीपी को सत्ताधारी छात्र संगठन के रूप में स्थापित करने का भी था.

वैसे इसकी शुरुआत तो करीब-करीब मोदी सरकार के बनने के साथ ही हो गई थी, जब एक ओर तो पुणे फिल्म व टेलीविजन इंस्टीटूट के अध्यक्ष के पद पर एक ऐसे दोयम दज्रे के अभिनेता को बैठाया गया, जिसकी नियुक्ति से इस अंतरराष्ट्रीय ख्याति के संस्थान की छवि पर जो आंच आने वाली थी, उसके विरोध में इस इंस्टीट्यूट के छात्रों को तीन महीने से ज्यादा की हड़ताल करनी पड़ी थी. दूसरी ओर, चेन्नै आइआइटी में पेरियार अंबेडकर स्टडी सर्किल को, किसी संघ परिवारी की गुमनाम शिकायत पर, मानव संसाधन मंत्रालय के हस्तक्षेप पर, प्रतिबंधित कर दिया गया. उस पर, जाति व्यवस्था का विरोध करने और मोदी सरकार की आलोचना करने जैसी ‘राष्ट्रविरोधी गतिविधियों’ का इल्जाम था. हैदराबाद विश्वविद्यालय में, जहां दलित स्कॉलर रोहित वेमुला को आत्महत्या करने के लिए मजबूर कर दिया गया और जेएनयू में, जहां छात्र संघ के निर्वाचित अध्यक्ष समेत, अनेक वामपंथी छात्रनेताओं पर राजद्रोह का मामला थोपा गया, वही मुहिम और मुकम्मल और उग्र रूप में सामने आई.

फिर भी, राष्ट्रपति ने जिस ‘चर्चा और बहस’ को, ‘हमारे मानस और जीवन का अभिन्न हिस्सा’ बताया है, उसका दायरा सिर्फ विश्वविद्यालयों तक ही सीमित नहीं है. विचार और सृजन के सभी रूपों के लिए यह स्वतंत्रता प्राणवायु है और इसमें नागरिकों के कल्याण व बराबरी पर आधारित, एक बेहतर समाज का सृजन भी शामिल है. यहां आकर विचार व अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के साथ तमाम नागरिक स्वतंत्रताएं भी जुड़ जाती हैं.

मौजूदा एनडीए सरकार के जरिए संघ परिवार के देश की सत्ता तक पहुंचने के बाद से, इन सभी स्वतंत्रताओं को दबाने, सिकोड़ने की व्यवस्थित कोशिशें की जा रही हैं, ताकि एक गैर-समावेशी और वास्तव में बहुसंख्यावादी मूल्य व्यवस्था को समूचे राष्ट्रीय जीवन पर लादा जा सके. अचरज नहीं कि इसी परिघटना की चरम अभिव्यक्तियों के रूप में, एक ओर पानसरे और कलबुर्गी जैसे तर्कवादी लेखकों की शारीरिक तथा तमिल लेखक मुरुगन की लेखकीय हत्याओं और दूसरी ओर, सिर्फ गोमांस रखने/खाने की अफवाह पर अखलाक की भीड़ के हाथों हत्या के बाद, ‘राष्ट्र की आत्मा’ माने जाने वाले लेखकों को बढ़ती असहिष्णुता के खिलाफ आवाज बुलंद करने के लिए ‘पुरस्कार वापसी’ का सहारा लेना पड़ा था.

दुर्भाग्य से राष्ट्रपति द्वारा अपनी मर्यादा में रहकर समय-समय पर किए जा रहे इन परामशरे का, मौजूदा शासकों पर कोई खास असर हुआ नहीं लगता है. ‘चर्चा और बहस’ को, ‘भारतीय मानस और जीवन का अभिन्न हिस्सा’ बताकर, राष्ट्रपति ने यह याद दिलाने की कोशिश की है कि नागरिकों की स्वतंत्रताओं की रक्षा भी राष्ट्रवाद है. क्या मोदी सरकार सुन रही है?

राजेंद्र शर्मा
लेखक


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