मुद्दा : शहर को लीलते समंदर
मैक्सिको की खाड़ी में स्थित लुईसियाना का डेलाक्रोइस शहर इन दिनों देश-दुनिया में चर्चा का विषय बना हुआ है.
मुद्दा : शहर को लीलते समंदर |
उसका कारण यह है कि यह शहर धीरे-धीरे समुद्र में समा रहा है. एक अध्ययन के मुताबिक 17 स्क्वायर मील जमीन हर साल गंवानी पड़ रही है. ऐसा माना जा रहा है कि अगर कहीं बड़ा समुद्री तूफान आया तो शहर का काफी हिस्सा समुद्र में डूब जाएगा.
वैज्ञानिकों का कहना है कि अगर धरती का बढ़ता तापमान रोकने की कोशिश न हुई तो दुनिया भर में समुद्र का स्तर 50 से 130 सेंटीमीटर तक बढ़ सकता है, जिसका खामियाजा समुद्रतटीय शहरों को भुगतना होगा. कैंब्रिज विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने दावा किया है कि आने वाले एक-दो वर्षो में आर्कटिक समुद्र की बर्फ पूरी तरह समाप्त हो जाएगी. इसका आधार वैज्ञानिकों द्वारा अमेरिका के नेशनल स्नो एंड आइस डाटा सेंटर की ओर से ली गई सेटेलाइट तस्वीरे हैं. वैज्ञानिकों के मुताबिक इस वर्ष 1 जून तक आर्कटिक समुद्र के केवल 11.1 मिलियन स्क्वायर किलोमीटर क्षेत्र में ही बर्फ बची है, जो कि पिछले तीस साल के औसत 12.7 मिलियन स्क्वायर किलोमीटर से कम है.
गौरतलब है कि आर्कटिक क्षेत्र में आर्कटिक महासागर, कनाडा का कुछ हिस्सा, ग्रीनलैंड (डेनमार्क का एक क्षेत्र) रूस का कुछ हिस्सा, संयुक्त राज्य अमेरिका (अलास्का) आइसलैंड, नाव्रे, स्वीडन और फिनलैंड शामिल हैं. वैज्ञानिकों का कहना है कि अगर पृथ्वी के तापमान में मात्र 3.6 डिग्री सेल्सियस तक वृद्धि होती है तो आर्कटिक के साथ-साथ अंटाकर्टिका के विशाल हिमखंड भी पिघल जाएगा और समुद्र के जल स्तर में 10 इंच से 5 फुट तक वृद्धि हो जाएगी. इसका परिणाम यह होगा कि समुद्रतटीय नगर समुद्र में डूब जाएंगे. ऐसा हुआ तो फिर न्यूयॉर्क, लॉस एंजिल्स, पेरिस और लंदन, मुंबई, कोलकाता, चेन्नई, पणजी, विशाखापट्टनम कोचीन और त्रिवेंद्रम नगर समुद्र में होंगे. वर्ष 2007 की इंटरगवर्नमेंटल पैनल की रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया भर के करीब 30 पर्वतीय ग्लेशियरों की मोटाई अब आधे मीटर से भी कम रह गयी है.
हिमालय क्षेत्र में पिछले पांच दशकों में माउंट एवरेस्ट के ग्लेशियर 2 से 5 किलोमीटर सिकुड़ गए हैं और 76 फीसद ग्लेशियर चिंताजनक गति से सिकुड़ रहे हैं. कश्मीर और नेपाल के बीच गंगोत्री ग्लेशियर भी तेजी से सिकुड़ रहा है. अनुमानित भूमंडलीय तापन से जीवों का भौगोलिक वितरण भी प्रभावित हो सकता है. कई जातियां धीरे-धीरे ध्रुवीय दिशा या उच्च पर्वतों की ओर विस्थापित हो जाएंगी. जातियों के वितरण में इन परिवर्तनों का जाति विविधता तथा पारिस्थितिकी अभिक्रियाओं इत्यादि पर असर पड़ेगा. 5 जून 2007 में पर्यावरण दिवस का सबसे ज्वलंत विषय ‘पिघलती बर्फ’ ही था. इस पर मुख्य अंतरराष्ट्रीय आयोजन नॉव्रे के ट्रामसे में संपन्न हुआ और दुनिया भर में ‘ग्लोबल आउटलुक फॅार आइस एंड स्नो’ की शुरुआत हुई.
गौरतलब है कि दुनिया के 20 सबसे ज्यादा क्लोरोफ्लोरो कार्बन उत्सर्जित करने वाले देशों के बीच ओजोन परत के क्षरण को रोकने के लिए 16 सितम्बर, 1987 को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक संधि हुई जिसे ‘मांट्रियल प्रोटाकॉल’ नाम दिया गया. इसका मकसद ओजोन परत के क्षरण के लिए जिम्मेदार गैसों एवं तत्वों के इस्तेमाल पर रोक लगाना था. लेकिन इस दिशा में अभी तक अपेक्षित सफलता नहीं मिली है. वैज्ञानिकों का मानना है कि पृथ्वी का तापमान जिस तेजी से बढ़ रहा है और अगर उस पर समय रहते काबू नहीं पाया गया तो अगली सदी में तापमान 60 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच जाएगा. मनुष्य को मौसमी परिवर्तनों मसलन ग्लोबल वार्मिग, ओजोन क्षरण, ग्रीन हाउस प्रभाव, भूकंप, भारी वर्षा, बाढ़ और सूखा जैसी आपदाओं से जुझना होगा.
गौरतलब है कि जलवायु परिवर्तन को लेकर 1972 में स्टाकहोम, 1992 में जेनेरियो, 2002 में जोहांसबर्ग, 2006 में मांट्रियाल और 2007 में बैंकॉक सम्मेलन हुआ और उसे संतुलित बनाए रखने के लिए ढेरों कानून गढ़े गए. लेकिन उस पर ईमानदारी से अमल नहीं हो रहा है. लेक सेक्स सम्मेलन 1949 में इस बात पर बल दिया गया कि प्रकृति के उपकरण एक नैसर्गिक बपौती के रूप में है, जिन्हें शीघ्रता से नष्ट नहीं करना चाहिए. इसी तरह स्टॉकहोम सम्मेलन 1972 में मानवीय पर्यावरण पर घोषणा हुई. 1992 के रिओ शिखर सम्मेलन में कहा गया कि स्थायी विकास के सभी सरोकारों का केंद्र-बिंदु मानव जाति ही है और उसे प्रकृति के साथ पूर्ण समरसता रखते हुए स्वस्थ एवं उत्पादनशील जीवन जीना चाहिए.
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