आरबीआई : नए गवर्नर की चुनौतियां

Last Updated 23 Aug 2016 05:25:09 AM IST

सबसे पहले तो हमें देश में आर्थिक माहौल में सुधार के लिए डॉ. रघुरामन राजन के कुशल नेतृत्व की सराहना करनी होगी.




आरबीआई : नए गवर्नर की चुनौतियां

आर्थिक माहौल में स्थिरता और इसकी मजबूती के मद्देनजर उनके दूरदर्शी और सतर्क फैसलों से आने वाले समय में अर्थव्यवस्था को उच्च वृद्धि दर हासिल करने में मदद मिलेगी. उनके तीन वर्ष के कार्यकाल में भारतीय अर्थव्यवस्था ने अनेक महत्त्वपूर्ण उपलब्धियां हासिल की.

विश्व में सर्वाधिक तेजी से बढ़ने वाली अर्थव्यवस्थाओं में शुमार होने, भारतीय मुद्रा में स्थिरता लाने, विदेशी मुद्रा के भरे भंडार होने, बैंकिंग प्रणाली खासकर गैर-निष्पादित परिसंपत्तियों से निजात पाने के जोरदार प्रयास जैसे मील का पत्थर तय करने सरीखी उपलब्धियां हासिल की गई. अन्य उपलब्धियों में बैंक बोर्ड ब्यूरो की स्थापना करके बैंकिंग प्रणाली को प्रोत्साहन और यूनिवर्सल पेमेंट इंटरफेस प्रणाली शुरू करने के साथ ही मुद्रास्फीति को नियंत्रण में रखने के उपाय शामिल हैं.

मजबूत आर्थिक वृद्धि विरासत में मिलने के कारण जो अनेक  चुनौतियां नए गवर्नर के समक्ष होंगी उनमें सबसे पहली औद्योगिक क्षेत्र खासकर लघु स्तर के उद्यमों (एमएसएमई) की वृद्धि दर में तेजी लाने की होगी. यह क्षेत्र भारतीय अर्थव्यवस्था की वृद्धि एवं विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है. भारत के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी), रोजगार सृजन, निवेश और आयात में इस क्षेत्र का खासा योगदान है. जिन प्रमुख अड़चनों का इस क्षेत्र को सामना करना पड़ रहा है, उनमें धन की तंगी, वित्त की ऊंची लागत और वित्तीय सतर्कता की कमी जैसी अड़चनें शुमार हैं. एमएसएमई क्षेत्र भारतीय उद्यमशीलता की आधारशिला है, और इसकी तरफ समुचित ध्यान दियाजाना बेहद जरूरी है जिससे कि यह भारत की विकास संभावनाओं का ज्यादा से ज्यादा दोहन में सहायक बन पाए.

रोजगार सृजन, निर्यात बढ़ाने तथा विनिर्माण आधार के विकास के लिए जरूरी है कि इस क्षेत्र को वित्त आसानी से मुहैया हो. उच्च ब्याज दर के मौजूदा माहौल में नये निवेश आकषिर्त करने और अपना अस्तित्व बनाए रखने में इस क्षेत्र को बहुत मुश्किल दरपेश है. इस करके उद्योग को उम्मीद है कि एमएसएमई क्षेत्र के ब्याज दर को कम किया जाएगा. उच्च ब्याज दर का दबाव न केवल विनिर्माताओं को चिंता में डाले हुए है, बल्कि एमएसएमई निर्यातकों को भी मुश्किलें पेश आ रही हैं.

उधार लेने की अंतरराष्ट्रीय दर और धन जुटाने में घरेलू लागत के बीच ज्यादा अंतर होने के चलते हमारे उद्योगों की प्रतिस्पर्धी शक्ति प्रभावित हो रही है. अच्छा मानसून रहने तथा दामों में ज्यादा  उछाल न आने की संभावनाओं को देखते हुए रेपो दर में कमी करने की स्थिति अनुकूल है. अभी जो हालात हैं, उन्हें देखते हुए जरूरी है कि ब्याज दरों को कम रखकर टिकाऊ उत्पादों की मांग में बढ़ोतरी के हालात बनाए जाएं. विनिर्माण क्षेत्र को प्रोत्साहन दिया जाए. अनेक प्रतिस्पर्धी अर्थव्यवस्थाओं की तुलना में अपने यहां उद्यमों को ऋण की ऊंची लागत वहन करनी पड़ती है.

इससे न केवल घरेलू बाजार बल्कि अंतरराष्ट्रीय बाजार पर भी प्रभाव पड़ता है. भारत की 6.5% रेपो रेट विश्व के पांच सर्वाधिक बड़े विनिर्माता देशों चीन (4.35%), अमेरिका (0.5%), जापान ((-.1%), जर्मनी (0) तथा रिपब्लिक ऑफ कोरिया (1.25%) की तुलना में खासी ऊंची है. ऋण लागत के मामले में थाईलैंड (1.5%), हांगकांग (0.75%), मलयेशिया (3%), सिंगापुर (0.37%) और ताइवान (1.38%) जैसे अन्य प्रतिस्पर्धी देश भी भारत से बेहतर स्थिति में हैं. उभरते बाजारों और विकासशील अर्थव्यवस्थाओं में चीन (4.35%), मॉरीशस (4%), मलयेशिया और फिलीपींस (दोनों 3%), सऊदी अरब (2%), थाईलैंड (1.5%)  और ओमान (1%) जैसी कुछ अर्थव्यवस्थाएं नीतिगत रूप से ब्याज दरों को भारत की तुलना में नीची रखती हैं.

इन तमाम अर्थव्यवस्थाओं में मुद्रास्फीति की दरें भी नीची हैं. जैसे कि चीन में यह 1.9%, मॉरीशस में 1.10%, मलयेशिया में 1.6%, फिलीपींस में 1.9%, सऊदी अरब में 4.1%, थाईलैंड में 0.38% और ओमान में 1.5% है. इसलिए  आवश्यक है कि हमारी अर्थव्यवस्था भी नीची मुद्रास्फीति और नीची ब्याज दरों की नीति का मॉडल अपनाए.  नए आरबीआई गवर्नर के समक्ष एक चुनौती अबाधित ऋणमुक्ति सुनिश्चित करने की भी होगी. वर्ष 2013 की गर्मियों में जब रुपये में तेजी से गिरावट आई और यह 67.85 के अभूतपूर्व स्तर तक नीचे जा पहुंचा तब भारत ने फॉरेन करंसी नॉन-रेजिडेंट बैंक अकाउंट (एफजीएनआर-बी)  के जरिए 26 बिलियन अमेरिकी डॉलर बैंकों के लिए विशेष स्वैप विंडो की व्यवस्था करते हुए जुटाए थे.

तीन वर्ष के कोष अगले माह से परिपक्व होना शुरू हो रहे हैं, और इनका विदेशी मुद्रा बाजार पर प्रभाव पड़ सकता है. नए गवर्नर के समक्ष एक और चुनौती व्यापक आधार वाली मौद्रिक नीति समिति (एमपीसी) में रिजर्व बैंक की तरफ से नामित प्रतिनिधि नियुक्त करने की होगी. इस समिति को मुद्रास्फीति को चार प्रतिशत (जिसमें 2 प्रतिशत की घट-बढ़ की गुंजाइश होगी) पर बनाए रखने के मद्देनजर ब्याज दर तय करनी है.

छह सदस्यीय एमपीसी में आधे सदस्य रिजर्व बैंक से होंगे. समिति में बाकी सदस्य सरकार द्वारा नामित किए जाएंगे. इससे पहले सरकार अधिसूचित कर चुकी है कि आने  वाले पांच वर्षो के लिए मुद्रास्फीति को चार प्रतिशत पर लक्ष्यबद्ध किया गया है. इसी लक्ष्य के मद्देनजर एमपीसी को फैसले करने होंगे. इसी को आधार बनाते  हुए एमपीसी अपने फैसलों को सिरे  चढ़ाएगी जिससे कि मौद्रिक नीति चुस्त-दुरुस्त रहने पाए. अर्थव्यवस्था के प्रत्येक क्षेत्र में  मजबूती के हालात बनने के साथ ही तमाम क्षेत्रों में ऐसा सामंजस्य बने जिससे कि देश आर्थिक विकास की डगर पर सहजता से अग्रसर हो.

(लेखक पीएचडीसीसीआई के मुख्य अर्थशास्त्री हैं)

डॉ. एसपी शर्मा
लेखक


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