मुद्दा : सेक्युलर मुल्क में आस्था केंद्रित बैंकिंग

Last Updated 28 Jun 2016 04:47:07 AM IST

भारत में जल्द ही ‘इस्लामिक बैंकिंग’ की शुरुआत होगी. मालूम हो कि सऊदी अरब स्थित इस्लामिक डेवलपमेंट बैंक/आईडीबी/ अपने कामकाज की शुरुआत गुजरात के अहमदाबाद से करेगा.


सेक्युलर मुल्क में आस्था केंद्रित बैंकिंग

आप कह सकते हैं कि अप्रैल माह में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की सऊदी अरब की यात्रा का यह एक हासिल है. उनके साथ गए शिष्टमंडल ने इसे लेकर एक विस्तृत करारनामा बैंक के साथ किया है. मालूम हो कि जनवरी माह में रिजर्व बैंक ने शरिया अनुकूल सूदविहीन या इस्लामिक बैंकिंग की शुरुआत के लिए हरी झंडी दिखाई है.

‘मीडियम टर्म पाथ फॉर फाइनांशियल इन्क्लुजन’ के नाम पर बनी आरबीआई की कमेटी, जिसकी अगुआई दीपक मोहंती ने की थी, ने पारंपरिक बैंकों में भी ‘सूदहीन खिड़कियां’ खोलने की सिफारिश की थी. कहा गया था कि इससे न केवल अर्थव्यवस्था में गति आएगी बल्कि  ‘वित्तीय समावेशन’ को भी बढ़ावा देगा. आकलन किया गया था कि वर्ष 2015 में कुल इस्लामिक वित्तीय परिसंपत्तियां 2 ट्रिलियन के करीब थीं, जो एक दशक के दौरान दस गुना बढ़ी थीं, और तमाम मुल्कों ‘पारंपरिक वित्त संसाधनों’ की तुलना में तेज गति से बढ़ रही थीं.

प्रश्न उठता है कि अन्य बैंकों से इस्लामिक बैंक किस मामले में अलग समझे जाते हैं? दरअसल इस्लामिक बैंक अलग-अलग वित्तीय उत्पाद ऑफर करते हैं जैसे सुकूक बांड या इटिशी फंड, जहां सूद नहीं लिया जाता क्योंकि इस्लाम में सूदखोरी पर प्रतिबंध है. निवेश पर आधारित परिसंपत्तियों के परफाम्रेस के आधार पर ही उनका निपटारा किया जाता है, जिसमें मुनाफा और घाटा, दोनों साझा किया जाता है. ऐसी आर्थिक गतिविधि जो ‘पाप’ समझी जाती है, जैसे सट्टेबाजी या अल्कोहल तथा अन्य नशीली चीजों में पैसे का निवेश नहीं किया जाता है.

दिलचस्प है कि पिछली सरकार के दिनों में शरिया अनुकूल फंड के लिए रिजर्व बैंक ने अनुमति दी थी, मगर उसने विशुद्ध इस्लामिक बैंकिंग के लिए रजामंदी नहीं दी थी. उसकी एक रिपोर्ट के मुताबिक एक ऐसी प्रणाली जिसमें सूद लिया-दिया नहीं जाता है, वह अस्तित्वमान कानूनों से मेल नहीं खाती.

रिजर्व बैंक का मानना था कि भारत में बैंकों के संचालन के लिए बैंकों को कर्ज लेने पड़ते हैं, जिस पर उन्हें सूद देना पड़ता है. इसके अलावा बैंकों को रिजर्व बैंक के पास ‘कैश रिजर्व रेश्यो’ के तहत नगदी जमा करनी पड़ती है, जिस पर उन्हें सूद मिलता है. इस वजह से बैंक ने सरकार को सलाह दी थी कि अगर इस्लामिक बैंकिंग को अनुमति देनी हो तो उसे इसी के अनुरूप विधेयक लाना पड़ेगा. अब उपरोल्लेखित दीपक मोहन्ती रिपोर्ट को पलटें तो यही कहा जा सकता है कि आरबीआई ने अपना रुख बदला है.

पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान का उदाहरण काबिलेगौर है, जहां अस्सी के दशक में जब इस्लामीकरण की बढ़ती प्रक्रिया में सूद आधारित बैंक प्रणाली को शरिया आधारित बैंक प्रणाली से पुनस्र्थापित करने की बात चली तो सुप्रीम कोर्ट का फैसला नजीर बना. अदालत ने सूद आधारित आधुनिक बैंक प्रणाली की हिमायत करते हुए स्पष्ट कहा कि अगर शरिया आधारित बैंकों को बढ़ावा दिया गया तो देश की अर्थव्यवस्था के पास अपने कज्रे चुकाने के लिए पैसे नहीं होंगे.

प्रश्न उठता है कि एक ऐसी योजना, जिस पर खुद इस्लामिक देशों में भी प्रश्नचिह्न खड़े किए गए हों, की नए सिरे से पड़ताल की आवश्यकता है या नहीं. निश्चित ही है, यह समझने की जरूरत है कि एक ऐसे मुल्क में जहां गैर-मुस्लिमों का बहुमत है, जहां मुसलमानों की माली हालत एक समुदाय के तौर पर बहुत खराब है, जो अपने से किसी बैंकिंग प्रणाली को मजबूत आधार नहीं दे सकते, वहां ऐसी कोई भी योजना पहले से अलगाव में पड़े अल्पसंख्यक समुदाय के अलगाव को और बढ़ावा देगी.

दूसरे, चूंकि इस्लामिक बैंक में निवेश से आम बैंकों की तरह सूद नहीं मिलता है, मुनाफा और घाटा, दोनों साझा करने की बात होती है, लिहाजा इसका असर यही होगा कि मुस्लिम आबादी का एक हिस्सा जो अन्य बैंकों के बजाय ऐसे में निवेश करेगा तो उसे अपनी मेहनत की कमाई में वाजिब बढ़ोतरी का लाभ भी नहीं मिलेगा.

तीसरे, ऐसी कोई योजना जो किसी खास संप्रदाय की आस्था संबंधी मान्यताओं की बुनियाद पर शुरू की जा रही हो, वह धर्मनिरपेक्षता के बुनियादी मूल्यों के प्रति एक समझौता होगी, जो दूरगामी तौर पर अधिक समस्याओं को जन्म देगी. बहरहाल, इस्लामिक बैंकिंग के संदर्भ में समझना जरूरी है कि दरअसल, इस्लाम के अंदर हावी होती रूढ़िवादी धारा का परिणाम ही है कि  विगत दो-तीन दशकों से ही फिजां बदल रही है.

सुभाष गाताडे
लेखक


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