श्रम विभाजन की सीमाएं
अंतरराष्ट्रीय श्रम विभाजन का सिद्धांत तब पैदा हुआ था, जब खेती का उत्पादन प्रमुख था और औद्योगिक उत्पादन कम था.
राजकिशोर |
तब यह तर्क दिया गया कि प्राकृतिक कारणों से एक देश में रबर पैदा करना सस्ता है और दूसरे देश में कपास, तो दोनों देश रबर और कपास पैदा करें, इससे बेहतर है कि पहला देश ज्यादा रबर पैदा करे और दूसरा देश ज्यादा कपास पैदा करे. आवश्यक मात्रा में आयात-निर्यात कर देनों देश इस स्थानीयता का लाभ उठाएंगे और दोनों देशों की समृद्धि बढ़ेगी.
हमारे देश में इसका उदाहरण पंजाब-हरियाणा और प. बंगाल हैं. पंजाब-हरियाणा में गेहूं पैदा करना सस्ता है और प. बंगाल में चावल. इसलिए प. बंगाल में गेहूं की खेती को प्रोत्साहित नहीं किया जाता. वहां की नम जलवायु में चावल ही पैदा हो सकता है, और होता है. इसी तरह पंजाब-हरियाणा में गेहूं की फसल को प्राथमिकता प्राप्त है. यहां जो चावल उगाया जाता है, वह बेहतर किस्म का है और वह खाने के लिए नहीं, मुख्यत: निर्यात के लिए होता है. श्रम विभाजन का यह सिद्धांत सिर्फ उत्पादन की मात्रा पर जोर देता था यानी कम से कम लागत पर ज्यादा से ज्यादा उत्पादन. लेकिन इसकी भी समस्याएं थीं. जॉर्ज बर्नाड शॉ ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘एन इंटेलिजेंट वूमैन्स गाइड टू कैपिटिलज्म, सोशलिज्म एंड फैसिज्म’ में बताया है कि जब इंग्लैंड में गरीब लोग अधनंगे या लगभग नंगे रहते थे, तब इंग्लैंड की मशीनों से बना कपड़ा भारत भेजा जाता था, क्योंकि वहां इसकी बिक्री थी और इंग्लैंड के गरीब लोग कपड़ा खरीदने में असमर्थ नहीं थे. इस तरह अंतरराष्ट्रीय श्रम विभाजन भारत के काम आ रहा था और इंग्लैंड के हितों के विरु द्ध जा रहा था .
यह बात तब तर्कपूर्ण थी, जब हम मानें कि कपड़ा तन ढंकने के लिए होता है न कि पैसा कमाने के लिए. अगर पैसा कमाना ही प्रमुख हो जाए, तो इंग्लैंड के पूंजीपति मालामाल हो रहे थे और भारत में कपड़ा बनाने वाले कंगाल. यही वह समय था जब भारत का हथकरघा उद्योग पहली बार संकट में पड़ा. जुलाहे कबीर का दर्शन लोकप्रिय हो रहा था, पर उसका पेशा खत्म हो रहा था. इसी के प्रतिकारस्वरूप महात्मा गांधी ने खादी आंदोलन छेड़ा. वे खुद खादी कातते थे, और खादी पहनते थे. अगर खादी से यह प्रेम स्वतंत्र भारत में भी बना रहता और कपड़ा मिलों को शुरू करने की इजाजत नहीं दी गई होती, तो आज करोड़ों लोगों को रोजगार मिला हुआ होता और भारत उतना गरीब नहीं दिखता, जितना आज है.
कह सकते हैं कि इंग्लैंड और भारत में कपड़ा मिलें खुलने से भी नया रोजगार पैदा हुआ, लेकिन पाउंड या रुपये के प्रति यूनिट निवेश से हथकरघा से कपड़ा बनाने में जितना रोजगार पैदा होता है, उससे बहुत कम. हथकरघा समाज में आय का वितरण जम स्तर पर करता है, और मिल समाज में आर्थिक तथा अन्य प्रकार की विषमता बढ़ाती है. तो क्या हमें तकनीकी प्रगति का विरोध करना चाहिए? मिल का कपड़ा सस्ता, पतला और पहनने में आरामदेह होता है. उसका विरोध करने का अर्थ है, कपड़े का उत्पादन करने की टेक्नोलॉजी में विकास को बाधित करना. कहा जा सकता है कि मिलों में चूंकि कपड़े का बड़े पैमाने पर उत्पादन होता है, इसीलिए देश के अधिकांश लोग तन ढंक पा रहे हैं. यह तर्क सही है, लेकिन इकतरफा है. देखने की बात यह भी है कि इससे कितना रोजगार बढ़ा और कितना रोजगार कम हुआ. अगर कपड़ा सस्ता होने से रोजगार कम होता है, और लोग गरीब हो जाते हैं, पर कुछ मिल मालिक अमीर हो जाते हैं, तब हमें सोचना होगा कि नई तकनीक बेहतर है, या बदतर. उत्पादन को सिर्फ लाभ-हानि के पैमाने से नहीं देखा जा सकता. समाज की आर्थिक दशा कितनी प्रभावित होती है, यह किसी भी अन्य तत्व से ज्यादा महत्त्वपूर्ण है.
अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव की तैयारी चल रही है. पिछले कुछ वर्षो में अमेरिका में रोजगार कम हुआ है और बेरोजगारी बढ़ी है, जिससे वहां का समाज अशांत है. इसके विरुद्ध प्रतिक्रिया होनी ही थी. राष्ट्रपति पद की उम्मीदवारी के लिए संघर्ष कर रहे रिपब्लिकन पार्टी के सदस्य डोनाल्ड ट्रंप और डेमोक्रेटिक पार्टी के बर्नी सैंडर्स, दोनों ने इस बात को एक प्रमुख मुद्दा बनाया है कि अमेरिकी रोजगार को चीन और भारत से कैसे वापस लाया जाए. पूंजीवाद की भाषा में इसे संरक्षणवाद कहा जाता है, जिसका नवउदारवादी अर्थशास्त्र उग्र विरोध करता है और बाजार को अधिकाधिक खोल देने की वकालत करता है. हमारे लिए ध्यान देने की बात यह है कि बाजार के खुलेपन की अवधारणा का दुनिया भर में निर्यात करने वाला अमेरिका अब खुद इस अवधारणा से संघर्ष कर रहा है. इस पर खुशी जाहिर की जाती है कि भारतीय उद्योग बहुराष्ट्रीय कंपनियों की शक्ल ले रहा है. हमारे उद्यमी विदेशों में कारखाने खोल रहे हैं. मेरा निवेदन है कि यह खुश होने की नहीं, दुखी होने की बात है. हमारी पूंजी से हमारे ही देश में रोजगार क्यों न पैदा हो?
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