न्यायपालिका : अति उत्साह या अधिकारों का मसला

Last Updated 24 May 2016 06:20:47 AM IST

सुप्रीम कोर्ट ने व्यवस्था दी है कि सरकार को आपदा से संरक्षण करने में नाकामी स्वीकारते हुए एक कोष बनाना चाहिए जो आपदा-पीड़ितों को राहत प्रदान करे.




अति उत्साह या अधिकारों का मसला

शीर्ष अदालत के इस मत से वित्त मंत्री अरुण जेटली विचलित दिखलाई पड़ रहेहैं, और उनका का कहना है कि इस प्रकार का आदेश विधायिका की क्षमता पर संदेह किए जाने सरीखा जाना है. वह आगे कहते हैं कि यह आदेश सत्ता के विकेंद्रीकरण का उल्लंघन और वित्तीय अनुशासनहीनता को बढ़ावा देने वाला है क्योंकि यह संसद द्वारा पारित बजट तथा विनियोग अधिनियम के इतर आवंटन की बात कहता है. ऐसे में यहजिज्ञासा उठना सहज है कि क्या अदालत ने विधायिका के क्षेत्र में घुसपैठ कर दी है, या वह वही सब कर रही है जो उसका दायित्व-यानी मान्य अधिकारों को लागू करने में सहूलियत के हालात बनाना-है.

ऐसा कोई अधिकार नहीं है, जिसमें राहत पहुंचाने या उपाय किए जाने का तत्व नदारद हो. भारत के संविधान के अनुच्छेद 32 में इस सिद्धांत की संवैधानिक मान्यता का प्रावधान है. अनुच्छेद 21 के तहत प्रत्येक नागरिक के जीवन और स्वतंत्रता का अधिकार सुनिश्चित किया गया है. सरकार द्वारा जीवन के अधिकार की गारंटी सुनिश्चित नहीं किए जाने तथा इसके संरक्षण के उपाय करने में विफल रहने पर अनुच्छेद 21 के तहत यह प्रावधान लागू हो जाता है. सरकार आपदा से लोगों का संरक्षण करने में नाकाम रहती है, तो उसकी इस चूक से लोगों के जीवन का अधिकार प्रभावित होता है. कहा गया है कि किसी भी अधिकार के लिए उपाय की दरकार होती है, सुप्रीम कोर्ट द्वारा सरकार को राहत की व्यवस्था किए जाने का निर्देश दिया जाना उपाय मात्र है, जो अदालत आपदा के तथ्यों को जानने के पश्चात मुहैया करा सकती है. अगर अदालत इतना भी नहीं कर पाती है तो यकीनन अपने आधारभूत कर्त्तव्य को निभाने में नाकाम रहती है, या मानी जाएगी.

अदालत द्वारा इस मामले में मुहैया कराए गए उपाय या राहत के लिए लागत की जरूरत होगी. लेकिन अदालत अगर इस बाबत आदेश दे रही है, तो क्या वह विधायिका की सक्षमता के हिस्से में नाहक प्रवेश कर रही होगी. अगर वित्तीय आवंटन की बात कह रही है, तो क्या वह विधायिका के अधिकार क्षेत्र में अनाधिकार प्रवेश कर रही है, या विधायिका के क्षेत्र को यकायक लांघने के बाद भी क्या वह अपने ही अधिकार क्षेत्र में बनी हुई है?

विधायिका, कार्यपालिका तथा न्यायपालिका को संविधान के अनुरूप कार्य करना होता है. संविधान ने मौलिक अधिकारों को तरजीही दरजा दिया है, और सरकार के सभी अंगों के लिए परस्पर सामंजस्य के साथ इस दिशा में बढ़ने को जरूरी बताया है. मौलिक अधिकारोंकी अनदेखी करने वाला कानून बनाया जाना बेमानी है. अधिकारों का संरक्षण तथा उनकी उल्लंघना न होने देने के उपाय करने का दायित्व सुप्रीम कोर्ट के ऊपर है. अगर शीर्ष अदालत को कोई उल्लंघना देखने को मिले तो संविधानिक रूप से उसका दायित्व है कि जरूरी उपाय करे. और ऐसा कई दफा हुआ है, जब शीर्ष अदालत ने आगे बढ़कर अपना दायित्व निभाया है.

वित्त मंत्री का कहना है कि बजट तथा विभिन्न योजनाओं और कार्यक्रमों के लिए संसाधनों के आवंटन का प्रारूप तैयार करना राजनीतिक कवायद है. इस मामले में अदालत हस्तक्षेप नहीं कर सकती. अगर विधायिका तथा कार्यपालिका संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकारों के अनुरूपइन दायित्वों का निवर्हन करते हैं, तो अदालत के लिए हस्तक्षेप की कोई सूरत नहीं बचती. लेकिन वोट बैंक की राजनीति के चलते हड़बड़ी में ऐसे कार्यकिए जाते हैं, जिनसे सामाजिक न्याय के तकाजे चोटिल होतेहों, तो अदालत के लिए दखल करना लाजिमी हो जाता है. अल्बी साश के शब्दों में बजटीय आवंटनों को तय करने का न तो अदालतों के पास अधिकार है, और न ही इस बाबत कुछ नियत करने का दायित्व ही है. लेकिन वे यह तय करने में यकीनन सक्षम हैं कि किन तबकों को आवंटन की जरूरत है. अदालतआपदा-पीड़ितोंके लिए क्षतिपूर्ति की बात कह रही है, तो इसी मत का अनुसरण कर रही है. और उसका आदेश बजट का खाका खींचने या संसाधनों के आवंटन की प्रक्रिया में दखल जैसा कार्य नहीं है.

अगर किसी मामले को मौलिक अधिकार के रूप में वर्गीकृत करके न्यायाधिकार का उपयोग कर रही है तो अदालत पर सवाल उठाया जा सकता था लेकिन ऐसा तो ही न. आधार अधिनियम के मामले में देखा जा चुका है, जब सरकार ने अधिनियम बनाने की गरज से इसे मनी बिल के रूप में वर्गीकृत करते हुए पेश किया था. राज्य सभा में अवरोध से बचने के लिए मनी बिल का सहारा लिया गया ताकि राजनीतिक चर्चा औरविवाद सरकार के मंसूबे को नाकाम न करने पाएं. चूंकि मनी बिल राज्य सभा की स्वीकृति हासिल किए बिना भी कानून बनसकता है, इसलिए सरकार ने वर्गीकरण संबंधी अधिकार का उपयोग करते हुए आंकड़ों के संरक्षण और निजता जैसी तमाम आपत्तियों से बचते हुए अपना रास्ता बनाया. अगर ऐसा नहीं करती तो यह पारित नहीं हो पाता.

वर्गीकरण से न केवल राज्य सभा से बचा गया बल्कि अटॉर्नी जनरल के इस तर्क के जरिए अदालत को भी जवाब दिया जा सकता है कि स्पीकर द्वारा मनी बिल के रूप में वर्गीकृत किए जाने के बाद वर्गीकरण अंतिम होता है, और अदालत भी इस पर सवाल नहीं उठा सकती. न्यायिक पुनरीक्षण को संविधान का बुनियादी अंग ही करार दिया गया है, यहां तक कि राष्ट्रपति के विशेषाधिकार भी न्यायिक समीक्षा से परे नहीं हैं. इसलिए मुझे नहीं लगता कि अदालत इस तर्क से सहमत होगी. बहरहाल, अभी उसका रुख देखा जाना है.

अमिता ढांडा
लेखक


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