प्रसंगवश : तकनीक और बदलती जिंदगी
अब हम हाईटेक डिजिटल दुनिया के वासी होते जा रहे हैं, जिसमें सब कुछ सूचना में परिवर्तित होता जा रहा है.
गिरीश्वर मिश्र |
हम अच्छे रोबोट से बनते जा रहे हैं. कम्प्यूटरसाधित अंक ही असली है, शेष सब उसी का उत्पाद. सूचना, संचार और यातायात की अभूतपूर्व क्रांति ने जीने का पैमाना ही बदल कर रख दिया है. इन सबके बीच हमारे भीतर का आदमी कहीं खोता जा रहा है. गुप्त जी की ‘भारत भारती’ कि प्रसिद्ध पंक्ति कि ‘हम कौन थे क्या हो गए और क्या होंगे अभी’ बरबस याद आ रही है. सभ्यता विमर्श सतत चलता है, और पीछे वापसी तो संभव नहीं पर हम क्या खो रहे हैं, क्या पा रहे हैं, इस पर गौर करना लाजिमी लगता है.
एक जमाना था, जब हम अपनी छोटी सी दुनिया, जिसे हम जानते-समझते थे, के बीच जीते थे. तब बिना ‘बिग बाजार’ गए और चीजों को देख कर अपनी जरूरत तय करने के बदले, जरूरत की चीजें खरीद कर या फिर अपने इर्द-गिर्द उपलब्ध चीजों से काम चला लिए करते थे. घर में छोटे तकनीकी उपकरण हुआ करते थे, और तकनीक का आज जैसा आतंक नहीं था. सीमित सुविधाएं थीं. गांव या कस्बे, जहां रहते थे, वहां की दुनिया से आगे भी कुछ है, यह कुछ-कुछ पता तो था, पर ज्यादातर लोगों उसकी बहुत जरूरत नहीं महसूस होती थी. वह कथा कहानी की दुनिया होती थी, जिसे कभी कोई दूर शहर से आया आदमी बयान करता था, और लोग परीकथा की तरह ध्यानमग्न सुनते थे. लोगों से, चीजों से बड़ा सीधा और नजदीक का रिश्ता था. बात करने को जी हुआ तो खरामा-खरामा पैदल चल कर या फिर जल्दी हुई तो साइकिल या रिक्शे से पहुंच जाते थे. सोचने, जुड़ने और जोड़ने में हमारा काफी समय गुजरता था. जीवन में विकल्प का अभाव होता था. जूते कोई बनाता था, कपड़े कोई सिलता था, बाल कोई बनाता था. सबके अपने अपने काम थे. रिश्तों का कोई विकल्प नहीं था. वे जीने के लिए अनिवार्य थे. जिनसे मिलते उनसे बड़े अपनापे के साथ मिलते थे. वह रिच्युअल वाला ‘हाय हैलो’ न होता था.
सब कुछ बिल्कुल ठीक ही था, यह तो नहीं कह सकते पर कुछ सुकून था, और हड़बड़ी नहीं रहती थी. जिन्दगी की ताल और लय कुछ और थी. उसे ‘धीमी’ कहना तो गलत होगा क्योंकि वह तो एक आज के जमाने के सापेक्ष निर्णय होगा. हां, तब समय का दबाव उतना न था, क्योंकि होने वाली चीजों की संभावनाएं भी कम थीं, या फिर उनका ज्ञान कम था. उतावलापन या व्यग्रता नहीं थी. कह सकते हैं कि एक हद तक सिलसिलेवार जीवन चला करता था. आज के उथल-पुथल के हिसाब से तब की जिन्दगी में ठहराव ज्यादा था, कुछ सतत होते रहने, चलते रहने का वेग शायद कम था, और इंतजार स्वाभाविक और सहज था, क्योंकि चीजों के घटित होने में भी समय लगता था. कुछ भी तुरत-फुरत नहीं होता था. अगर होता भी था, तो उस तक पहुंच बड़ी धीमी रफ्तार से होती थी. शायद इसे इंतजार कहना भी ठीक न होगा क्योंकि यही लय थी. चाह कर भी दौड़ कर भी कुछ संभव न था, क्योंकि दूरियां थीं, पर गति न थी. आज के ग्लोबल हो रहे समय में देश और काल दोनों के दायरे सिमट गए हैं. अब सूचना का एक साथ एक समय सब जगह उपस्थित रह सकना संभव है.
अब हाल यह है कि सारी दुनिया और दुनियादारी के सारे सरंजाम हाथों में हैं. लैपटॉप खोल कर जब उसके की बोर्ड पर उंगली पहुंचती है, तब दिमाग सोचना शुरू करता है, लिखने का मन बनाता है. कागज पर लिखने के नाम पर अब हम सिर्फ हस्ताक्षर करने के लिए पैन का प्रयोग करते हैं. वैसे इलेक्ट्रॉनिक हस्ताक्षर भी अब होता है. औपचारिक जरूरतों को छोड़ किसी को पत्र लिखने का अवसर ही नहीं बनता. मोबाइल पर ही सारी बात हो जाती है.
तकनीक या प्रौद्योगिकी एक-एक कर सभी किले फतह करती जा रही है. यांत्रिक निर्भरता अधिक होती जा रही है. प्रौद्योगिकी के बिना सब कुछ सूना-सूना रहता है. आज प्रौद्योगिकी के बिना हम बेबस हो जाते हैं. सर्वर डाउन हुआ नहीं कि जीवन की गति ठहर जाती है. हम स्वयं को इस मोह से बचा नहीं पा रहे. इन चीजों का व्यसन पक्का होता जा रहा है. बड़े-छोटे सभी इसकी चपेट में हैं. वीडियो गेम, आई पेड, आई पौड आदि ऐसा माहौल रच रहे हैं कि मानो प्रौद्योगिकी के बिना हमारा अपना कोई वजूद ही नहीं होगा. इंटरनेट के प्रयोग से अनिभज्ञ व्यक्ति व्यावहारिक रूप से पंगु या निरक्षर माना जाने लगा है. हमें मनुष्य के स्वभाव को उसके भाव, मूल्य, आदर्श और रिश्ते-नाते को बचाने और सुरक्षित रखने के जतन करने ही होंगे.
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