ऑड-ईवन राउंड टू

Last Updated 14 Feb 2016 02:51:07 AM IST

यह शायद इस लेखक का भरम हो कि आजकल हम किसी ‘कमान सोसाइटी’ की तरह संगठित किए जा रहे हैं.


सुधीश पचौरी

ऐसा बार-बार महसूस होता है कि इन दिनों मीडिया के जरिए कई तरह से कमानें दी जाती हैं और उनको मनवाने के प्रयत्न किए जाते हैं. इस काम में मीडिया की मदद ली जाती है और मीडिया ऐसे कमान करने वाले संदेशों को इस कदर रिपीट करता रहता है कि हर पांच मिनट में एक ही प्रकार का संदेश बार-बार सुनाई या दिखाई पड़ता है. तब ऐसा महसूस होने लगता है कि कोई नेता अब अपनी अवाज के अनुसार हमको ढालने की कोशिश कर रहा है. यह संदेश इतना ताकतवर हो जाता है कि उसकी आलोचना की जगह ही नहीं बचती. वह दुहराव से इतनी  ताकत ग्रहण कर लेता है कि उसके आगे-पीछे सोचने की जरूरत खत्म हो जाती है. ऐसे संदेश अपनी आलोचना को खत्म कर देते हैं और आलोचना से परे निकल जाते हैं. वे एक भेड़चाल पैदा कर सकते हैं और ऐसा ही होता दिखता है. लगता है कि दिल्ली की जनता को हांकने की प्रैक्टिस की जा रही है. लेकिन अति सर्वत्र वर्जयेत.

इन दिनों दिल्ली ऐसे नेताओं से घिरी है, जिनको अपनी ही आवाज पसंद है. वे किराए की आवाज से अपना संदेश देने की जगह संदेश देने खुद आ जाते हैं. ऐसे नेता मानकर चलते हैं कि किसी की आवाज उधार लेने से बेहतर है कि खुद ही जनता से बात की जाए. तब जनता उनकी बात सीधे फॉलो करेगी; क्योंकि वह उनको चाहती है. वे बहुत लोकप्रिय हैं. जनता उनकी बात का सीधा विश्वास कर सकती है. ऐसे नेता अपनी लोकप्रियता के चलते एक प्यारी-सी गलतफहमी के भी शिकार हो सकते हैं कि वे चाहें तो जनता को प्रेरित कर सकते हैं. उनकी समझ में जनता अपने आप प्रेरित होती नहीं. हजार बार समझाए बिना जनता समझने की नहीं. ऐसा सोचने वाले नेता अपने को ‘जननायक’ की तरह देखने लगते हैं जबकि सिविल समाज में कायदे-कानूनों को अपना काम करने देना होता है. नेता को उतना बोलना-हांकना नहीं होता. जनता के बीच बार-बार आने के कारण नेता ‘अति परिचय’ का शिकार भी हो सकता है. उसे अपनी आवाज से जरूरत से ज्यादा प्यार हो जाता है. जनता से बार-बार बात करने से बात का असर भी कम हो जाता है. यही हुआ. कैसे ? आइए देखें :

ये ‘ऑड-ईवन’ के सेकिंड राउंड की खबर के दिन हैं. केजरीवाल जनता को उसी तरह संबोधित करेंगे, जिस तरह 15 दिन तक लगातार किया था. इससे पहले कि हम उनके संदेशोें की बौछार से नहाएं, एक बार फिर हमें केजरीवाल के उस तरह के संदेशों को डकिंस्टक्ट करने की कोशिश करनी चाहिए और देखना चाहिए कि जनता को कमान सिस्टम में ढालने का नतीजा कैसा होता है? ‘ऑड-ईवन’ योजना शुरू होने के दौरान केजरीवाल की अपनी आवाज वाला विज्ञापन पूरे पंद्रह दिन बार-बार रेडियो पर रिपीट होता रहा. कई बार दस मिनट में तीन बार तक रिपीट होता.

विज्ञापन वही था, जो दिल्ली वालों को अच्छा आदमी बताता था और हमें दिल्ली को मिलजुल कर सुधारना है, का संदेश देता था. यह विज्ञापन केजरीवाल की विज्ञापन कौशल का बड़ा प्रमाण था और एक नेता के रूप में उनके रिस्क लेने की क्षमता को दिखाता था जिसकी प्रशंसा इसी कॉलम में की गई थी लेकिन तब ऐसे दुहराव भरे विज्ञापनों में निहित ‘एक आदेशात्मकता’ को रेखांकित नहीं किया गया था, जिसे अब किया जा रहा है. नहीं उस नाकामयाबी को जो ‘ऑड ईवन’ के बाद नजर आई. वह विज्ञापन केजरीवाल और दिल्ली जनता के बीच एकतरफा संवाद का नमूना था. उसका दुहरना लोगों को उन पर शंका करने का अवसर ही न देता था और यह पूछने का अवसर भी नहीं देता था कि इस तरह की योजना के कारण दिल्ली के प्रदूषण में कितनी कमी आई? बाद की बहसों से यह साफ हुआ कि प्रदूषण पर बेहद कम असर हुआ क्योंकि कारें उतना प्रदूषण नहीं बनातीं जितना कि दो पहिए वाले वाहन और छोटे भार वाहन यानी विक्रम टाइप के वाहन फैलाते हैं.

लेकिन अचानक इतने अच्छे संदेशों के बाद  सफाई कर्मचारियों की हड़ताल ने दिल्ली के स्वच्छता अभियान की पोल खोल दी. क्यों? कहां वो विज्ञापन जनता की तारीफ कर उसे अपने पक्ष में फुसलाने में बर्बाद हुआ जाता था और कहां से हाल कि कूड़ा पड़ा रहा और जनता को तकलीफ होती रही. क्यों? इन सवालों के टिकाउ जवाब ढूंढ़ने की जगह ऑड-ईवन के दूसरे राउंड की तैयारी शुरू कर दी गई है. यह भी कुछ जल्दी-जल्दी हो रहा है. हो सकता है कि नए सम-विषम के लिए किए गए फीड बैक के आंकड़े सच्चे हों. लेकिन इसका कोई प्रमाण पब्लिक में नहीं मिला कि नए अभियान के लिए जनता की कितनी कैसी प्रतिक्रियाएं या सुझाव मिले? और वे गारंटी कहां हैं, जो यह डिक्लेअर करती हों कि वे न अपने आप बनाए गए हैं, न किसी से बनवाए गए हैं!

पब्लिक डोमेन में ऐसे प्रमाणों के सहज उपलब्ध न होने और मीडिया में प्रेषित न होने के कारण कोई भी यह सोचने को आजाद है कि नए फीडबैक की कहानी फ्रॉड हो सकती है. हो सकता है कि इन संदेशों में कुछ को अपने हिसाब से बनवाया गया हो और वे स्वत: आए हुए न हों. जिस तरह एफएम गोल्ड पर फिल्मी गानों के कार्यक्रमों को प्रस्तुत करने वाली/वालों द्वारा गानों के कार्यक्रम के बारे में अच्छे संदेश देने वाले वही दस-पांच नाम बार-बार रिपीट किए जाते हैं. उसी तरह, सामाजिक संदेशों को लेकर ‘बनाया गया’ फीडबैक भी पैदा किया जा सकता है. हम नहीं कहते कि केजरीवाल ऐसा करेंगे,लेकिन फीडबैक की पारदर्शी अनुपलब्धता चिंता पैदा करती है. इसीलिए कई विचारकों ने पहले ही कहा कि पहले सम-विषम का मूल्यांकन कर लें तब दूसरी बार का ऑड-ईवन करें.



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