बेशर्म सत्ता के प्रतिनिधि

Last Updated 12 Feb 2016 01:24:38 AM IST

लोकतंत्र तकनीकी तर्कों से नहीं चलता है. लोकतंत्र में लोकलाज का ही महत्त्व होता है और वह उन मूल्यों को बचाए रखने में कारगर होता है, जो सभ्यता ने विकास के साथ संस्कृति के रूप में विकसित किया है.


बेशर्म सत्ता के प्रतिनिधि

जिस तरह से लोक संसाधनों पर तरह-तरह से हमले बढ़े हैं, उसी तरह से लोक मानस पर भी हमले की घटनाएं सामने आ रही हैं और उसे भी राजनीतिक सत्ता का समर्थन हासिल होता है.

राजेन्द्र कुमार पचौरी के खिलाफ महिलाओं और वह भी साथ में काम करने वाली महिलाएं द्वारा यौन उत्पीड़न की शिकायतें आई हैं, लेकिन आरके पचौरी के नाम से विख्यात इस शख्स की सत्ता पर कोई असर पड़ता नहीं दिख रहा है. उन्हें ‘द एनर्जी एंड रिसोर्स इंस्टीट्यूट’ यानी ‘टेरी’ के कार्यकारी उपाध्यक्ष पद पर नियुक्त करने का फैसला किया गया है. 1981 में वह टेरी (द एनर्जी रिसर्च इंस्टीट्यूट) के डायरेक्टर बने. 2001 में पचौरी ने इस संस्थान के डायरेक्टर जनरल का पद संभाला था. अदालतों में किसी के खिलाफ जब आरोप लगते हैं तो आरोपित का वकील अपने मुवक्किल की राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक पृष्ठभूमि का इस तरह से उल्लेख करता है, ताकि न्यायाधीश का ध्यान जो केवल आरोपों पर केन्द्रित है; उसकी नजर को वहां से पहले हटाया जाए.

यानी उन आरोपों को गलत ठहराने के लिए सामाजिक स्तर पर स्वीकृत मुवक्किल के राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक प्रभाव का इस्तेमाल किया जाए. वकील सच को नकारने की एक पद्धति विकसित करता है और यदि वह न्यायाधीश के सामने सफल हो जाता है तो उसे दोष मुक्त करार दिया जाता है, लेकिन यह बात नहीं भूलनी चाहिए कि वह न्याय के दर्शन के आलोक में मुक्त नहीं हो पाता है. न्यायाधीश को प्रभावित किया जा सकता है, लेकिन न्याय का दर्शन प्रभावित नहीं होता है. वह सच से ही प्रभावित होता है और उसके पक्ष में ही खड़ा होता है.

इस समय पूरे समाज में पहले की अपेक्षा एक स्थिति आईने की तरह दिखने लगी है. वह स्थिति लोकतंत्र की संस्था और व्यक्ति के व्यवहार के बीच बढ़ती दूरी है. न्यायाधीश फैसला कर रहा है, लेकिन न्यायालय का वह फैसला नहीं होता है. एक व्यक्ति खुद को न्यायालय में बैठाकर न्यायालय नहीं बन सकता है, जब तक कि वह उसके दर्शन को अपने जीवन में आत्मसात न कर लें. इसी तरह से लोकतंत्र के भीतर संस्थाओं का, नेतृत्व का और व्यक्ति के निजी स्तर के व्यवहार के बीच रिश्ते अलग-अलग दिखने लगे हैं.

व्यक्ति संस्था के नेतृत्व पर काबिज होकर उसकी ताकत का अपने व्यैक्तिक स्तर पर र्दुव्‍यवहारों के लिए इस्तेमाल करता दिख रहा है. पचौरी के खिलाफ आरोप से उनके पर्यावरण से जुड़े काम और सत्ता द्वारा दिए गए प्रमाणपत्र की ताकत से झुठलाया नहीं जा सकता है. उनकी अध्यक्षता में चल रही संस्था को आईपीसीसी (इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज) को नोबेल शांति पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया है और वे 21 किताबें लिखकर भारत सरकार से 2001 में पद्म भूषण प्राप्त कर चुके हैं.

उनके पास डिग्रियों की भरमार है और जिन पदों पर वे रह चुके हैं, उसकी एक सूची भी प्रस्तुत कर दी जाती है, लेकिन उससे सामाजिक रूप से कमजोर समझे जाने वाली महिला का उनके खिलाफ यौन उत्पीड़न का आरोप कमजोर नहीं हो जाता है. पूरे समाज को सत्ता शीर्ष पर बैठने वाले किसी ऐसे शख्स के खिलाफ लड़ने के लिए उतरना पड़ता है तो इसका सीधा-सा अर्थ यह है कि सत्ता का स्वभाव पुरुषवादी है. पुरुषवादी होने का यह भी अर्थ है कि सत्ता आखिरकार सभी स्तरों पर जो ताकतवर है. उनके जमावड़े का एक अड्डा है.

पचौरी के खिलाफ जब पहली बार एक महिला का आरोप सार्वजनिक रूप से सामने आया तब समाज के विभिन्न हिस्सों में उसके खिलाफ गुस्सा दिखने को मिला क्योंकि लोकतांत्रिक सत्ता को एक दमनकारी के रूप में तब्दील होने से समाज विचलित होता है. उसने लोकतंत्र के इस स्वरूप को इस नाते खड़ा किया ताकि वह दमन की स्थितियों को कमजोर करे. समाज में उस महिला के आरोप के समर्थन में एक हलचल हुई, लेकिन इस सत्ता का चरित्र ये हो गया है कि वह समाज को थकाने की रणनीति अख्तियार किए हुए है.

सत्ता हर स्तर पर चाहती है कि सामाजिक मूल्यों व उत्पीड़न के खिलाफ संस्कृति को इस दौर में जितना ज्यादा रौंदा जा सके. उसके प्रयास जारी रहने चाहिए; क्योंकि मूल्यों व संस्कृति को कमजोर करने में यह अर्थ भी निहित है कि उसका लाभ राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक सभी स्तरों पर होने वाले हमलों के खिलाफ आवाज को कमजोर में उठाया जा सकता है.

पचौरी को टेरी का कार्यकारी उपाध्यक्ष बनाने का कोई मौलिक तर्क इस समय नहीं दिखता है. बहुत सारी प्रतिभाओं को सालों-साल तक जेल में डाल दिया जाता है और बाद में यह निष्कर्ष निकलता है कि जिन आरोपों में उस प्रतिभा को उत्पीड़ित किया गया, वे आरोप एक सिरे से गलत है, लेकिन सत्ता शीर्ष पर बैठने वाले लोगों के खिलाफ जब आरोप लगते हैं तो सत्ता पर काबिज पूरा समूह गोलबंद हो जाता है और वह उस व्यक्ति को किसी बात की परवाह किए बिना ही सत्ता में बैठाने को आतुर दिखने लगता है.

इसका अर्थ यह हुआ कि आरोप सत्ता शीर्ष के लिए लिए उपयुक्त नहीं है. पचौरी की नियुक्ति का अर्थ समाज के लोगों को यह संदेश देना है कि वे और उनका काम उनकी नजरों में सबसे ज्यादा महत्त्वपूर्ण हैं और उनका आचरण मूल्यों व संस्कृति से परे है, लेकिन समाज की निर्भरता सत्ता पर इस कदर नहीं हुई है कि सत्ता चाहें जो मनमानी करें. समाज अपने तरीके से सत्ता को चुनौती देने की एक प्रक्रिया ईजाद कर लेता है.

सत्ता यदि पचौरी को उपाध्यक्ष बनाकर तमाम विरोधों को चिढ़ाने की जुर्रत कर सकती है तो समाज का नया सदस्य अपनी पूरी ताकत से सत्ता और पचौरी दोनों को खारिज करने की भी जुर्रत कर सकता है. छात्र-छात्राओं ने पचौरी की नियुक्ति को इस रूप में खारिज करने का ऐलान कर दिया कि वे उसके हाथों से डिग्रियां नहीं लेंगे. इस दौर में हम यह पाते हैं कि समाज के नए वयस्क सदस्य के रूप में छात्र सत्ता को इसीलिए ठुकरा रहे हैं. पश्चिम बंगाल में भी राज्यपाल से डिग्री लेने से एक छात्रा ने मना कर दिया था, वह भी मंच पर जाकर. यदि पचौरी के खिलाफ आरोपों के बावजूद नियुक्ति की जा रही है तो सत्ता के दोहरे मानदंड अपनाने का चेहरा सामने आता है.

यदि अदालत के फैसले से तस्वीर पर पड़ी धूल को साफ कर लेने का ऐलान किया जाता है तो कम से कम उसी अदालत के फैसले का भी तो इंतजार किया जाना चाहिए. पचौरी के खिलाफ पहले से ही यौन उत्पीड़न का एक मामला अदालत में है. दूसरा आरोप भी खाकी को दागदार करता रहा, लेकिन पुरुषवादी सत्ता बेहद निर्लज्ज होती है. लोकतंत्र की सत्ता कहने के लिए है. वास्तव में वह पुरुषों द्वारा हथिया ली गई सत्ता है. इसीलिए लोकतंत्र के नाम पर चलने वाली मशीनरियों में अक्सर उत्पीड़ित समुदायों व समूहों की शिकायतें दम तोड़ देती हैं.

अनिल चमड़िया
लेखक


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