हमारे अंबेडकर या अंबेडकर के हम

Last Updated 29 Nov 2015 12:38:07 AM IST

जो मार्क्‍स का नाम लेता है, वह मार्क्‍सवादी नहीं हो जाता. इसी तरह, जो अंबेडकर का नाम लेता है, वह अंबेडकरवादी नहीं हो जाता.


डॉ. भीमराव अंबेडकर

भारतीय जनता पार्टी अगर श्रद्धा के साथ डॉ. भीमराव अंबेडकर के साथ अपने को जोड़ना चाहती है, तो यह अधिकार उससे छीना नहीं जो सकता. यह कहना कि वह अंबेडकर की विरासत को हड़पना चाहती है, सरासर नादानी है. मकान, दुकान, संस्थान, प्रतिष्ठान आदि को तो हड़पा जा सकता है, क्योंकि ये भौतिक वस्तुएं हैं, लेकिन वैचारिक या राजनीतिक विरासत एक वैचारिक समुच्चय है. इसे स्वीकार या अस्वीकार किया जा सकता है, कोई हड़प कैसे सकता है?

झूठे भक्त या झूठे प्रेमी को पहचानने में देर नहीं लगती. इसलिए कि आदमी की परख इससे नहीं होती कि वह क्या कहता है, बल्कि इससे होती है कि वह करता क्या है. ‘मुंह में राम बगल में छुरी’ बहुत पुराना अनुभव है, तभी यह कहावत जन जीवन में व्यापक स्वीकृति पा सकी है. जैसे, कांग्रेस पर आरोप लगाया जाता है कि वह अब गांधीवादी नहीं रही. कुछ लोग इस तरह से भी कहते हैं कि कांग्रेस ने गांधी के साथ विश्वासघात किया है. यह सही है, लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि कांग्रेस यह दावा भी नहीं करती कि महात्मा गांधी उसके आदर्श पुरुष हैं और गांधीवादी कार्यक्रम ही कांग्रेस का कार्यक्रम है. वह गांधी का नाम जरूर लेती है, पर खादी को छोड़ कर उसके पास गांधी की कोई और विरासत नहीं है.

कुछ दिन पहले राहुल गांधी ने कांग्रेस की वर्दी बदलने का सुझाव दिया था, लेकिन उसे खारिज कर दिया गया. बेशक यह सूट-बूट की सरकार है, लेकिन इस सरकार के सभी लोग खादी का कुरता पहनते होते, तो वे अंतिम जन की सरकार नहीं हो जाते. इसलिए नरेन्द्र मोदी ने लंदन में डॉ. अंबेडकर की मूर्ति का अनावरण किया और दिल्ली में भी अंबेडकर की भव्य मूर्ति तैयार की जा रही है, तो सिर्फ  इससे यह साबित नहीं होता कि वह अंबेडकर के भक्त हैं. अगर अंबेडकर से इतना ही प्रेम होता, तो गुजरात में पटेल की मूर्ति स्थापित करने के पहले उन्हें अंबेडकर का खयाल आया होता. तो फिर अंबेडकर के प्रति अचानक इतना अनुराग क्यों? अनुमान है कि यह अंबेडकर को गांधी के बरक्स रखने की कोशिश है.

भारत को गांधी का देश माना जाता है, यह बात राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को फूटी आंखों भी नहीं सुहाती. गांधी जी अपने को हिंदू मानते थे, पर संघ उन्हें हिंदू-विरोधी मानता है. गांधी के बरक्स नेहरू को खड़ा किया जा सकता है, क्योंकि नेहरू गांधी के सबसे प्रिय शिष्य थे और नेहरू भी बापू का नाम लेते थे, लेकिन आजादी मिलते ही यह स्पष्ट हो गया था कि नेहरू का रास्ता गांधी से अलग है, लेकिन नेहरू के साथ संघ की और ज्यादा मुश्किल है. नेहरू पूरी तरह से सेकुलर थे. धर्म में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं थी. ऐसे आदमी के आदर्शों का प्रचार करने का काम मोदी सरकार कैसे कर सकती है?

वल्लभभाई पटेल निश्चय ही बड़े नेता थे. गांधी जी उन्हें बहुत मानते भी थे. कुछ लोग सरदार को सांप्रदायिक बताते हैं, लेकिन वास्तव में ऐसा था नहीं. पटेल गांधी और नेहरू के कद के नेता नहीं थे. महापुरुषों के बीच तुलना करना ठीक नहीं है. कल्पना कीजिए कि लंदन में अंबेडकर के बजाय पटेल की मूर्ति लगाई जाती, तो कैसा दृश्य बनता? अंबेडकर का कद इतना बड़ा जरूर था कि उन्हें गांधी और नेहरू के बरक्स खड़ा किया जा सकता है. इसीलिए मोदी सरकार अपने को अंबेडकर के साथ जोड़ना चाहती है, लेकिन गोंद बहुत कच्चा है. मोदी के कार्यकाल में भय का जो वातावरण बना है, उसके साथ बुद्धिजीवी-तर्कवादी अंबेडकर का कोई मेल नहीं है. बड़ी बात यह है कि मोदी की सरकार बनने के बाद दलितों के साथ सलूक में कोई परिवर्तन नहीं आया है.
असल में, मामला यह नहीं है कि अंबेडकर हमारे हैं या आपके. किसी भी महापुरु ष की कोई ओनरशिप नहीं होती.

मामला यह है कि हम अंबेडकर के हैं या नहीं. सच पूछिए तो स्वतंत्र भारत में अंबेडकर को न कांग्रेस पसंद करती थी, न कम्युनिस्ट पार्टयिां और न जनसंघ. अंबेडकर में जान फूंकी उन्हीं के लोगों ने. अंबेडकर ने दलितों को जगाया और दलितों ने अंबेडकर को इतिहास में स्थापित कर दिया. पहले महाराष्ट्र में, फिर उत्तर प्रदेश और अन्य राज्यों में अंबेडकर का नाम लेने वाले जब राजनीतिक और वैचारिक स्तर पर मजबूत होने लगे, तब जा कर अंबेडकर का तेज देश के सामने आया. लेकिन क्या दलितों की प्रतिनिधि बसपा को अंबेडकर का अनुयायी माना जा सकता है? क्या यह अंबेडकरवादी पार्टी है? वह अंबेडकर के किन आदर्शों और सिद्धांतों का पालन कर रही है? भारत की और कौन-सी पार्टी है, जिसका नेता खुद तो कुरसी पर बैठता है और सांसदों और विधायकों को फर्श पर बिठाया जाता है?

दलितों की इसी अवमानना के खिलाफ लड़ने में अंबेडकर ने सारा जीवन लगा दिया, लेकिन दलित जीत कर भी हार गए. इसका अर्थ यह नहीं है कि बसपा को सत्ता नहीं मिलनी चाहिए. बसपा के सत्ता में आने से दलितों का मानसिक सशक्तीकरण होता है, लेकिन कृपा कर इसे आंबेडकर की विरासत से मत जोड़िए. सभी महापुरु षों को अपने लोग चाहिए. गांधी के अपने लोग होने चाहिए, सुभाष को अपने लोगों की जरूरत है, भगत सिंह के लोग होने चाहिए, वैसे ही अंबेडकर को भी अपने लोग चाहिए. यही लोग गांधी, भगत सिंह या अंबेडकर की विरासत को संभाल सकते हैं और आगे बढ़ा सकते हैं. अंबेडकर को अपना बताने वाले आते-जाते रहते हैं.

राजकिशोर
लेखक


Post You May Like..!!

Latest News

Entertainment