सामाजिक क्रांति को भूलने के खतरे

Last Updated 28 Nov 2015 04:56:16 AM IST

यह बहुत अच्छी बात है कि हमारी सरकार और संसद बाबा साहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर की 125 वीं जयंती के बहाने संविधान के संकल्प को याद करते हुए 26 नवम्बर को संविधान दिवस के रूप में मना रही है.


सामाजिक क्रांति को भूलने के खतरे

इस दौरान सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस सदस्यों के बीच जो बहसें हो रही हैं, वे भी रोचक किंतु जनाधार और मतदाताओं को ध्यान में रखकर ज्यादा की जा रही हैं. यह सही है कि देश की एकता-अखंडता संविधान का उद्देश्य रहा है और उसे अगर हम भूल जाएंगे तो हमारे हाथ से धरती का वह टुकड़ा भी छिन जाएगा जिस पर हम अपने सपनों का देश बना पाएं और अपने ढंग से कोई प्रयोग कर पाएं. पर हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि भारतीय संविधान कोई संकीर्ण दस्तावेज नहीं है जो हमें दुनिया से अलग एक देश बनाने की राह दिखाता है. एक तो हमारा संविधान ब्रिटेन, आस्ट्रेलिया, आयरलैंड, अमेरिका और सोवियत संघ जैसे दुनिया के कई देशों से प्रेरित है वहीं उसमें दर्ज मौलिक अधिकार संयुक्त राष्ट्र की सार्वदेशिक मानवाधिकार की घोषणाओं पर आधारित हैं.

इसलिए यह कहने में कोई हर्ज नहीं कि हमारा संविधान हमें धीरे-धीरे एक कट्टर राष्ट्र बनते जाने और बाकी दुनिया से अलहदा होने की प्रेरणा नहीं देता बल्कि उस विश्व समुदाय का हिस्सा बनने की प्रेरणा देता है जिसके अंतरंग सदस्य बनने की यात्रा दुनिया के तमाम देशों को तय करनी है. दुनिया से जुड़ने की इसी भावना के तहत कभी डॉ. राममनोहर लोहिया वि सरकार की कल्पना करते थे और इसी भावना से वि समुदाय ने संयुक्त राष्ट्र और उससे जुड़ी तमाम संस्थाओं का गठन किया है. इसलिए हमें यह कहने में संकोच नहीं होना चाहिए कि हमारा संविधान हमें वि समुदाय से अलग करने के बजाय उससे जोड़ता है. इसी भावना के तहत पंडित नेहरू ने कहा था कि जब पूरी दुनिया सो रही है तो भारत आजादी का बिहान देख रहा है. इसी भावना के तहत उनका यह भी सवाल था कि अगर भारत लड़खड़ाएगा तो दुनिया में कौन सलामत बचेगा.

दरअसल भारत का प्रयोग और उसके भीतर निहित भाईचारे और अनेकता में एकता के मूल्य सिर्फ  उसी के लिए नहीं बल्कि पूरी दुनिया के लिए जरूरी हैं. इस लिहाज से अगर नानी पालखीवाला हमारे संविधान को एक बेहद सुंदर दस्तावेज कहते हैं तो इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं है. यही भावना जब अमेरिकी लेखक पद्मश्री ग्रेनिवल आस्टिन भी अपनी प्रसिद्ध पुस्तक इंडियन कांस्टीट्यूशन: कार्नर स्टोन ऑफ ए नेशन (1966) में भी व्यक्त करते हैं तो हमें गर्व होता है, लेकिन जब भी हम अंबेडकर को संविधान निर्माता के रूप में याद करते हैं तो एक तो हमारा उद्देश्य उन्हें देवता सदृश बनाने और अन्य महत्वपूर्ण लोगों के योगदान को भुला देने का होता है तो दूसरी तरफ जब हम अपने-अपने अंबेडकर का झगड़ा करते हैं तो इस बात को भी दरकिनार कर देना चाहते हैं कि उनका उद्देश्य इस संविधान के माध्यम से भारत में शांतिपूर्ण सामाजिक क्रांति करनी थी. उस सामाजिक क्रांति का रास्ता हमारे संविधान के भाग-तीन और भाग-चार यानी मौलिक अधिकारों व नीति निदेशक तत्वों में सुझाया गया है. हालांकि संविधान का भाग-चार बाध्यकारी नहीं है लेकिन संविधान के भाग-तीन के साथ मिलकर पढ़े जाने पर इस अहसास से कोई बच नहीं सकता कि हमारे संविधान निर्माताओं ने भविष्य देखते हुए संविधान में एक विशाल समाज की प्रगति का खाका खींच दिया था.

जब मंत्री यह कहते हैं कि उद्देश्यिका संविधान की आत्मा है तो वे अधूरी बात कहते हैं. दरअसल वह संविधान का एक मंत्र है जिसमें संविधान का सार ध्वनित होता है, लेकिन संविधान की आत्मा तो भाग-तीन और चार में ही बसती है. संविधान का यही हिस्सा जब कहता है कि हम सब राज्य के सामने बराबर हैं-चाहे हमारा कोई भी धर्म, जाति, लिंग, भाषा या जन्मस्थान है, तब इसका मतलब सिर्फ  उसे मान लेना नहीं होता बल्कि उस सपने को साकार करना होता है. संविधान का भाग-चार आर्थिक लोकतंत्र का खाका तैयार करता है. वह सोवियत संघ या चीन की तरह से समाजवादी अर्थव्यवस्था को नकल करने की बात नहीं करता क्योंकि उनके साथ एक प्रकार की राजनीतिक तानाशाही का ढांचा जुड़ा हुआ था.



इस बारे में संविधान सभा में बहस करते हुए अंबेडकर ने कहा था कि आर्थिक लोकतंत्र हासिल करने के तमाम तरीके हैं, इसीलिए हमने नीति निर्देशक तत्वों में उस भाषा का प्रयोग नहीं किया है जो ज्यादा सख्त हो. इसका उद्देश्य यह है कि अलग अलग सोच के लोग जनता को आर्थिक लोकतंत्र तरफ जाने के लिए अलग तरह से प्रेरित कर सकते हैं. आज हमारे नेताओं और राजनीतिक दलों की दिक्कत यह है कि वे संविधान में दिए गए लचीलेपन का लाभ उठाकर आपस में एकजुट होकर काम करने के बजाय भ्रम फैलाकर जनता को बांटने में लगे हुए हैं. वे धर्मनिरपेक्षता पर बहस करें, समाजवाद पर बहस करें अच्छी बात है, लेकिन उनकी इस बहस का मकसद भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने या इसे महज पूंजीपतियों का लोकतंत्र बना देने का नहीं होना चाहिए. यह सही है कि जो मूल संविधान बना उसकी उद्देश्यिका में यह दोनों शब्द नहीं थे और उन्हें लोकतंत्र और संविधान के लिए सबसे बदनाम समय आपातकाल के दौरान 42 वें संविधान संशोधन के माध्यम से जोड़ा गया, लेकिन जब जनता पार्टी की सरकार आई तो 44 वें संशोधन के माध्यम से 42 वें संशोधन को पूरी तरह पलट दिया गया.

हैरानी की बात है कि जनता पार्टी की सरकार ने न तो धर्मनिरपेक्षता शब्द हटाया और न ही समाजवाद, जबकि उस सरकार में घटक के रूप में जनसंघ भी शामिल था. इतना ही नहीं 42 वे संशोधन के माध्यम से संपत्ति के मौलिक अधिकार को भी हटा दिया गया था लेकिन 44 वें संशोधन के माध्यम से उसे वापस नहीं लाया गया. हालांकि यह शब्द संविधान में कहीं परिभाषित नहीं है, लेकिन संविधान के भाग-तीन और चार की भावना इन्हीं के अनुरूप है. अगर यह शब्द न भी लाए गए होते तो भी संविधान न तो बहुसंख्यकों को यह हक देता है कि वे अल्पसंख्यकों के मौलिक अधिकार छीन लें और न ही इस देश को किसी एक धर्म के आधार पर शासित होने की इजाजत देता है. जाहिर सी बात है यह महज मतभिन्नता का मामला नहीं बल्कि उद्देश्य भिन्नता का मामला भी है. इसीलिए देश में संविधान के उद्देश्यों के अनुरूप ऐसी क्रांति की दरकार है जहां पार्टियां और सामाजिक संस्थाएं इक्कीसवीं सदी में रहकर सोचें और पूर्व आधुनिक और मध्ययुगीन सोच से बाहर निकलें. 

 

 

अरुण कुमार त्रिपाठी
लेखक


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