कैसे निकले जलवायु बदलाव का समाधान!

Last Updated 28 Nov 2015 04:45:40 AM IST

जलवायु बदलाव की समस्या विश्व की सबसे गंभीर व जटिल पर्यावरणीय समस्या के रूप में सामने आ चुकी है.


कैसे निकले जलवायु बदलाव का समाधान!

यदि समय रहते इसके नियंत्रण की समुचित व्यवस्था नहीं की गई तो समुद्र के जल स्तर में अधिक वृद्धि होगी, घनी आबादी व उपजाऊ  भूमि के बहुत से तटीय क्षेत्र डूब जाएंगे व अनेक टापूनुमा देशों के लिए तो अस्तित्व का संकट उत्पन्न हो सकता है. इसके अतिरिक्त जलवायु बदलाव से कृषि, खाद्य, स्वास्थ्य व अन्य अहम क्षेत्रों में कई नई समस्याएं व कठिनाइयां पैदा हो सकती हैं जिसके लिए वे तैयार नहीं हैं. अभी जलवायु बदलाव का बहुत आरंभिक दौर माना जा रहा है तो भी प्रतिकूल मौसम से खेती-किसानी की बहुत क्षति पंहुच रही है जबकि अनेक स्थानों पर आपदाओं के अधिक विनाशकारी होने को भी जलवायु बदलाव से जोड़ा जा रहा है.

सवाल यह है कि यदि समय रहते जलवायु बदलाव को रोकना है तो इसके लिए क्या कदम किस हद तक उठाने जरूरी हैं? चूंकि जलवायु बदलाव की समस्या ग्रीनहाऊस गैसों विशेषकर कार्बन डाइआक्साइड की अधिकता से उत्पन्न हुई है, अत: इसके नियंत्रण का स्पष्ट एजेंडा है कि ग्रीनहाऊस गैसों के उत्सर्जन को इस हद तक कम किया जाए जिससे तापमान वृद्धि को दो डिग्री सेल्सियस तक नियंत्रित किया सके. कुछ देशों विशेषकर टापू देशों ने मांग की थी यह कमी 1.5 डिग्री तापमान वृद्धि तक की जाए, पर उत्सर्जन इतना आगे बढ़ चुका था कि इस लक्ष्य को व्यवहारिक नहीं माना गया. 2 डिग्री से. का लक्ष्य अपनाते हुए विशेषज्ञों ने यह स्वीकार किया कि इतना नियंत्रण होने पर भी कई गंभीर समस्याएं तो उत्पन्न होंगी, पर इन्हें सीमा के दायरे से बाहर जाने से रोका जा सकेगा. वैज्ञानिकों ने अपने स्तर पर चेतावनी देने का काम इस हद तक कर दिया है (हालांकि यह चेतावनी काफी देर से दी गई). अब आगे यह देखना है कि इस चेतावनी के आधार पर जरूरी सुधार समय रहते हो सकते हैं कि नहीं.

संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा अनेक विश्व स्तर के जलवायु बदलाव के महासम्मेलनों का आयोजन किया गया ताकि विश्व में समय रहते ग्रीनहाऊस गैसों के उत्सर्जन पर पर्याप्त नियंत्रण लगाया जा सके पर इस बारे में अभी तक सफलता नहीं मिली है. इस संदर्भ में पेरिस में आयोजित होने वाले जलवायु बदलाव के महासम्मेलन से बहुत उम्मीदें लगाई गई हैं. इस उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए सभी देशों को कहा गया कि वे ग्रीनहाऊस गैसों के उत्सर्जन के अपने लक्ष्य व योजना तैयार कर संयुक्त राष्ट्र संघ के जलवायु कार्यालय को अक्टूबर के प्रथम सप्ताह तक भेज दें. 146 देशों में यह योजनाएं प्राप्त हो चुकी हैं. इन योजनाओं के आरंभिक आकलन से पता चला है कि यदि इन योजनाओं को सभी देशों ने ईमानदारी से लागू कर दिया तो भी 2 डिग्री से. तक तापमान वृद्धि नियंत्रित करने के लिए ग्रीनहाऊस गैसों के उत्सर्जन में जितनी कमी करना जरूरी है, उतनी कमी नहीं हो पाएगी व इन सब योजनाओं के लागू होने पर भी तापमान वृद्धि 2.7 डिग्री से. तक पंहुच सकती है.



एक अन्य समस्या यह है कि अभी कोई गारंटी नहीं है कि जो योजनाए विभिन्न देशों ने भेजी हैं वे इसका पूरी तरह पालन कर पाएंगे या करेंगे. कई देशों ने कहा है कि उन्हें इसके लिए पर्याप्त आर्थिक व तकनीकी सहायता दी जाए तभी वह जिम्मेदारी पूरी कर पाएंगे. इसके लिए धनी व औद्योगिक देशों ने वर्ष 2020 तक 100 अरब डालर की सहायता प्रतिवर्ष देने का एक विश्व कोष तैयार करने का वायदा किया था, पर अभी इसके लिए उन्होंने उम्मीद से बहुत ही कम धनराशि प्रदान की है. बार-बार देखा गया है कि पहले धनी देश इस संदर्भ में जितनी सहायता देने की बात करते हैं, बाद में उससे मुंह मोड़ते नजर आते हैं. कम से कम तकनीकी सहायता तो ये बिना पेटेंट के मुनाफे के दे ही सकते हैं.

जहां एक ओर जलवायु बदलाव के नियंत्रण या मिटीगेशन की तैयारी पिछड़ी हुई है, वहां जलवायु बदलाव कर सामना करने की या अनुकूलन  (एडाप्टेशन) की तैयारी भी बहुत पीछे है. इसके लिए भी जरूरी संसाधन नहीं हैं. EOFप्टेशन का अर्थ है कि यदि आपदाएं बढ़ने व मौसम में बदलाव के सब संकेत सामने हैं तो हम गांवों व शहरों में इस बदलती स्थिति का सामना करने की भरपूर तैयारी करें. ऐतिहासिक स्तर पर देखें तो सबसे अधिक फॉसिल फ्यूल या जीवाशम ईधन (कोयला, तेल, गैस) का उपयोग उन्होंने ही किया व वर्तमान में भी प्रति व्यक्ति ग्रीनहाऊस गैस उत्सर्जन दर वहां ज्यादा है. दूसरी ओर अधिकांश विकासशील व अल्प-विकसित देशों की प्रति व्यक्ति उत्सर्जन दर ज्यादा है व उनकी सब लोगों की बुनियादी जरूरते पूरी करने की व विकास की चुनौतियां सामने हैं. अत: धनी व विकसित देशों को इस बहस के आरंभिक दौर में ही कहा गया है कि उत्सर्जन कम करने व आर्थिक संसाधन उपलब कराने की उनकी जिम्मेदारी ज्यादा है.

विश्व संकट को कम करने की सब देशों की जिम्मेदारी स्वीकार की गई यह साथ में कहा गया कि धनी औद्योगिक देशों पर यह जिम्मेदारी अधिक है. इसे कॉमन बट डिफरेंशियेटिड रिसपान्सीबलटी’ का सिद्धांत कहा गया है जिसे पहले तो सबने स्वीकार किया व इसकी बहुत चर्चा भी रही पर बाद में धनी देशों ने धीरे-धीरे चालाकी से इससे पीछे हटना शुरू किया व इस सिद्धांत की चर्चा भी कम होने लगी. अत: पेरिस महासम्मेलन में इस सिद्धांत की जोरदार वापसी होनी चाहिए. यह एक अवसर है कि विश्व में जितने भी विनाशक उत्पाद जैसे कि तरह-तरह के विध्वंसक हथियार, शराब, तंबाकू व तरह-तरह के जहरीले रसायन हैं उनका उत्पादन व खपत कम करने के प्रयासों को अतिरिक्त प्रोत्साहन दिया जाए. दूसरी ओर सभी लोगों की बुनियादी जरूरतें पूरी करने वाली वस्तुओं का उत्पादन बढ़ती आबादी के लिए बढ़ाना होगा.

विश्व में सभी वस्तुओं का उत्पादन अंतहीन नहीं हो सकता है. इसके लिए विभिन्न जरूरी संसाधनों जैसे पानी व विभिन्न खनिजों की उपलब्धि सीमित है. अब जलवायु बदलाव के दौर में यह कहना जरूरी है कि कार्बन स्पेस भी सीमित है. यानि विभिन्न वस्तुओं के उत्पादन के लिए एक हद तक ही ग्रीनहाऊस गैसों का उत्सर्जन संभव है. इसके लिए जहां फॉसिल फ्यूल के स्थान पर अक्षय ऊर्जा स्रोतों को लाना जरूरी है, वहां दूसरी ओर अंधाधुंध उपभोग व उत्पादन पर ऐसी रोक लगाना जरूरी है जो पर्यावरण व स्वास्थ्य की रक्षा के लिए जरूरी हो.

सभी लोगों की जरूरतों को पूरा करना ऊंची प्राथमिकता बन सके इसके लिए कुछ लोगों के लालच पर रोक लगाना भी जरूरी है. इस तरह से देखें तो जलवायु बदलाव के दौर में विषमता को कम करने व समता को बढ़ाने का एजेंडा पहले से और मजबूत होना चाहिए. पर दूसरी ओर ऐसे निहित स्वार्थ भी सक्रिय हैं जो जलवायु बदलाव नियंत्रण के एजेंडे को ऐसा रूप नहीं देना चाहते हैं जो समतावादी हो. अत: यह जोर देकर रेखांकित करना चाहिए कि जलवायु बदलाव के संकट का समाधान न्याय व समता की राह पर होना चाहिए. इस न्याय पक्ष को पेरिस जलवायु सम्मेलन में समुचित स्थान मिलना चाहिए.

 

 

भारत डोगरा
लेखक


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