जलवायु परिवर्तन बड़ा मुद्दा

Last Updated 26 Nov 2015 01:00:12 AM IST

अगले महीने दिसम्बर में जलवायु परिवर्तन पर पेरिस शिखर सम्मलेन को लेकर सरगर्मी तेज हो गई हैं.


जलवायु परिवर्तन बड़ा मुद्दा

पिछले दिनों जी-20 समूह की बैठक में जलवायु परिवर्तन और विकास पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सात सूत्री एजेंडा पेश किया था. इसमें कार्बन क्रेडिट की जगह ग्रीन क्रेडिट लाने और 2030 तक शहरों का 30 फीसदी ट्रैफिक पब्लिक ट्रांसपोर्ट में शिफ्ट करने जैसी बातें हैं. उन्होंने जीवन शैली में बदलाव पर भी जोर देते हुए कहा कि ऐसा विकास हो जिसमें प्रकृति के साथ समन्वय हो. उन्होंने सोलर एनर्जी से समृद्ध देशों का गठबंधन बनाने का प्रस्ताव रखा. साथ ही, बड़ी अर्थव्यवस्थाओं से सुनिश्चित करने को कहा कि हर साल ग्रीन क्लाइमेट फंड के लिए 100 अरब डॉलर जुटाए जाएं. पेरिस में होने वाले जलवायु शिखर सम्मेलन में इसे औपचारिक रूप दिया जाना है.
शिखर सम्मेलन के पहले प्रधानमंत्री मोदी ने जलवायु परिवर्तन को दुनियां के लिए सबसे बड़ी चुनौती माना है. जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर शुरू से भारत का स्पष्ट रु ख रहा है कि कार्बन उत्सर्जन के मामले में विकसित देश अपनी जिम्मेदारी ठीक से निभाएं.

इसी क्रम में जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर भारत ने कार्बन उत्सर्जन में 33 से 35 फीसदी तक कटौती का स्पष्ट ऐलान कर दिया जो कि एक बड़ा कदम है. यह कटौती साल 2005 को आधार मान कर की जाएगी. इमिशन इंटेसिटी कार्बन उत्सर्जन की वह मात्रा है, जो 1 डॉलर कीमत के उत्पाद को बनाने में होती है. सरकार ने यह भी फैसला किया है कि 2030 तक होने वाले कुल बिजली उत्पादन में 40 फीसदी हिस्सा कार्बनरहित ईधन से होगा यानि भारत साफ-सुथरी ऊर्जा के लिए बड़ा कदम उठाने जा रहा है. भारत पहले ही कह चुका है कि वह 2022 तक वह 1 लाख 75 हजार मेगावाट बिजली सौर और पवन ऊर्जा से बनाएगा. वातावरण में फैले ढाई से तीन खरब टन कार्बन को सोखने के लिए अतिरिक्त जंगल लगाए जाएंगे. साथ ही, भारत में स्वच्छ ऊर्जा को बढ़ावा देने के लिए तीन अरब डॉलर का राष्ट्रीय स्वच्छ ऊर्जा कोष बनाया जाएगा. अमेरिका, चीन, यूरोपियन यूनियन जैसे देशों ने पहले ही अपने रोडमैप की घोषणा कर दी है. भारत का रोडमैप इन देशों के मुकाबले ज्यादा प्रभावी दिखता है.

पिछले दिनों अपनी अमेरिका यात्रा के दौरान प्रधानमंत्री मोदी ने ब्रिटेन के प्रधानमंत्री और फ्रांस के राष्ट्रपति से भी मिलकर जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर भारत द्वारा सकारात्मक भूमिका निभाने के लिए अपनी प्रतिबद्धता दिखाई. प्रधानमंत्री मोदी ने तीनों ही राष्ट्राध्यक्षों से कहा कि भारत इस मामले की अगुवाई करने को तैयार है. विश्लेषकों का कहना है इस साल के आखिर में पेरिस में होने वाले जलवायु सम्मेलन से पहले राष्ट्रपति ओबामा इस मुद्दे पर एकमत कायम करने की कोशिश कर रहे हैं. अगर भारत इस मुहिम में उनके साथ आता है, तो जलवायु परिवर्तन रोकने के लिए एक बड़े समझौते की उम्मीद बनती है. न्यूयॉर्क में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के साथ मुलाकात के बाद अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने कहा था कि जलवायु परिवर्तन के खिलाफ जंग में आने वाले कई दशकों तक भारत के नेतृत्व की बेहद अहम भूमिका होगी.

जलवायु परिवर्तन पर पेरिस शिखर सम्मेलन से पहले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने विकसित देशों से साफ तौर पर कहा कि विकासशील देश पर्यावरण के दुश्मन नहीं हैं. उन्होंने इस मनोवृत्ति को  बदलने पर जोर दिया कि विकास और प्रगति पारिस्थितिकी के प्रतिकूूल हैं. पीएम मोदी ने कहा कि विश्व, जो अब जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों से अच्छी तरह अवगत है, को जलवायु न्याय के सिद्धांत के बारे में अवगत होना चाहिए. प्रधानमंत्री ने इस बात पर भी जोर दिया कि विकसित देश स्वच्छ प्रौद्योगिकी साझा करने के संबंध में अपनी प्रतिबद्धताओं को पूरा करें और जलवायु परिवर्तन से लड़ने के लिए विकासशील दुनिया की मदद करें. 

फिलहाल, जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर विकसित और विकासशील देशों के बीच मतभेद साफ नजर आ रहा है. लेकिन अधिकांश देश मोटे तौर पर इस बात से सहमत हैं कि सभी देशों को कार्बन उत्सर्जन पर अंकुश लगाने के लिए काम करना चाहिए. कार्बन उत्सर्जन को ही लू, बाढ़, सूखा और समुद्र के जलस्तर में बढ़ोतरी का कारण माना जा रहा है. क्योटो प्रोटोकाल के अंतर्गत केवल सर्वाधिक विकसित देशों को ही अपना उत्सर्जन कम करना था, और यह एक मुख्य कारण था कि अमेरिका ने इसे स्वीकार करने से इनकार कर दिया था. अमेरिका का कहना था कि चीन और भारत जैसे तेजी से बढ़ रही अर्थव्यवस्था वाले देश हर हाल में इसका हिस्सा बनें. विकासशील देशों का यह तर्क सही है कि जब वैश्विक भूमंडलीय तापवृद्धि (ग्लोबल वार्मिग) में ऐतिहासिक रूप से उनका योगदान पश्चिम के औद्योगिक-विकसित देशों की तुलना में न के बराबर है, तो उन पर इसे कम करने की समान जवाबदेही कैसे डाली जा सकती है? जबकि  लीमा में क्योटो प्रोटोकोल से उलट धनी देश सब कुछ सभी पर लागू करना चाहते थे, खासकर उभरते हुए विकासशील देशों पर.

पिछले दिनों संयुक्त राष्ट्र समर्थित इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) ने चेतावनी देते हुए कहा कि कार्बन उत्सर्जन न रु का तो दुनिया नहीं बचेगी. दुनिया को खतरनाक जलवायु परिवर्तनों से बचाना है, तो जीवाश्म ईधन के अंधाधुंध इस्तेमाल को जल्द ही रोकना होगा. आईपीसीसी ने कहा है कि साल 2050 तक दुनिया की ज्यादातर बिजली का उत्पादन लो-कार्बन सोतों से करना जरूरी है, और ऐसा किया जा सकता है. इसके बाद बगैर कार्बन कैप्चर एंड स्टोरेज (सीसीएस) के जीवाश्म ईधन का 2100 तक पूरी तरह इस्तेमाल बंद कर देना चाहिए. संयुक्त राष्ट्र के महासचिव ने कहा, विज्ञान ने अपनी बात रख दी है. इसमें कोई संदेह नहीं है. अब नेताओं को कार्रवाई करनी चाहिए. हमारे पास बहुत समय नहीं है.

संयुक्त राष्ट्र के महासचिव ने कहा कि जैसा कि आप अपने बच्चे को बुखार होने पर करते हैं, सबसे पहले हमें तापमान घटाने की जरूरत है. इसके लिए तुरंत और बड़े पैमाने पर कार्रवाई किए जाने की जरूरत है. 1992 में रियो डि जेनेरियो में अर्थ समिट यानि पृथ्वी सम्मेलन से लेकर लीमा तक के शिखर सम्मेलनों के लक्ष्य अभी भी अधूरे हैं. आज आपसी विवादों के समाधान की जरूरत है. कटु सच्चाई यह है कि जब तक विश्व अपने गहरे मतभेदों को नहीं सुलझा लेता तब तक कोई भी वैश्विक कार्रवाई कमजोर और बेमानी सिद्ध होगी. पिछले 13 महीनों के दौरान प्रकाशित आईपीसीसी की तीन रिपोटरे में जलवायु परिवर्तन की वजहें, प्रभाव और संभावित हल का खाका रखा गया है. इस संकलन में इन तीनों को पेश किया गया है कि ताकि 2015 के अंत तक जलवायु परिवर्तन पर नई वैश्विक संधि करने की कोशिशों में जुटे राजनेताओं को जानकारी दी जा सके. हर वर्ष विश्व में पर्यावरण सम्मेलन होते हैं, पर आज तक कोई ठोस निष्कर्ष नहीं निकला. उम्मीद की जानी चाहिए कि पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन पर इस साल पेरिस में होने वाली शिखर बैठक में कुछ ठोस नतीजे सामने आएं जिससे पूरी दुनियां को राहत मिल सके.

शशांक द्विवेदी
लेखक


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