संकट में आधार की अनिवार्यता
पहचान-पत्र ‘आधार’ को अनिवार्य करने के मुद्दे पर सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार को झटका दिया है.
संकट में आधार की अनिवार्यता |
न्यायालय ने 11 अगस्त 2015 को दिए अंतरिम आदेश में संशोधन से मना कर दिया. इस आदेश के तहत केवल राशन और रसोई गैस ही आधार के जरिए उपभोक्ता को वितरित किए जा सकते हैं. जबकि सरकार की दलील थी कि आधार के जरिए अकेली गैस सब्सिडी में उसे 14 हजार करोड़ रुपए का फायदा हुआ है और देश के करीब 92 करोड़ लोगों की पहचान को आधार से जोड़ दिया गया है, इसलिए आधार को मनरेगा, पेंशन, छात्रवृत्ति और अन्य कल्याणकारी योजनाओं से जोड़ने का उपाय बेहतर होगा. लेकिन अदालत ने आधार को एलपीजी और पीडीएस तक ही सीमित रखा. हालांकि तीन सदस्यीय पीठ ने आधार को जो संस्थाएं स्वैच्छिक आधार पर अपनाना चाहती हैं, उनको अनुमति के प्रावधान तय करने के लिए बड़ी संविधान पीठ को सौंप दिया. यही पीठ व्यक्ति के निजता के हनन से संबंधित याचिकाओं का निराकरण करेगी. सरकार को इस स्थिति का सामना इसलिए करना पड़ा है, क्योंकि अभी तक आधार को संसदीय वैधता हासिल नहीं हो पाई है.
आधार के जरिए संप्रग सरकार ने लोक कल्याणकारी योजनाओं की नकद सब्सिडी देने की शुरुआत कुछ राज्यों के चुनिंदा जिलों से की थी. मोदी सरकार ने एक कदम आगे बढ़कर इसकी अनिवार्यता देश की पूरी आबादी पर थोप दी. ऐसा करते हुए इसके कानूनी पहलू को नजरअंदाज किया गया. आधार के साथ सबसे बड़ी समस्या इसकी कानूनी वैधता नहीं होना है.
बावजूद योजना को गतिशीलता देने के लिए केंद्रीय मंत्रिमंडल ने 1200 करोड़ रुपए की मंजूरी सितम्बर 2014 में ही दे दी थी. यह राशि बिहार, झारखंड, छत्तीसगढ़ और उत्तर प्रदेश में नए आधार पहचान-पत्र बनाने के लिए दी गई थी. इसके साथ ही मोदी सरकार ने यह भी घोषणा कर दी कि आधार के जरिए ही लाभार्थियों की सब्सिडी सीधे उनके खाते में नकद राशि के रूप में जमा होगी. अब तक 60 हजार करोड़ रुपए खर्च करके करीब 92 करोड़ कार्ड बन चुके हैं. सरकार की मंशा थी कि कालांतर में आधार के मार्फत वृद्धावस्था पेंशन, सभी तरह की छात्रवृत्तियां, मनरेगा की मजदूरी और उवर्रक पर मिलने वाले लाभ भी जोड़ दिए जाएं. जन-धन योजना के तहत खोले जा रहे बैंक खातों से भी आधार को जोड़ा जाना था. किंतु अदालत ने आधार को सीमित रखने का आदेश सरकार को दिया है.
इतनी उपयोगी बहुउद्देश्यीय योजना होने के बावजूद आधार के परिप्रेक्ष्य में कई सवाल उठते रहे हैं और इसके क्रियान्वयन के बाबत भी कई पेचीदगियां जताई जाती रही हैं. बावजूद न तो इनके समाधान तलाशे गए और न ही इसे कानूनी रूप देने की पहल हुई. संप्रग सरकार हर समय संसद की सर्वोच्चता की दुहाई देती रही, लेकिन 66 हजार करोड़ की लागत वाली इस आधार योजना की संसदीय वैधता को टालते रहे. संसद के दोनों सदनों को दरकिनार कर ‘भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण’ को मंजूरी दे दी गई थी और तत्काल देश भर में आधार पहचान-पत्र देने का काम भी युद्धस्तर पर शुरू कर दिया गया.
बाद में जब इसे संवैधानिक दर्जा देने की पहल शुरू हुई तो संसद की स्थायी समिति ने इसे खारिज कर दिया. समिति ने अपनी दलील को पुख्ता बनाने के लिए रक्षा संबंधी सुरक्षा को आधार बनाया. सुरक्षा के लिहाज से यह योजना निरापद नहीं है, क्योंकि इसके तहत व्यक्ति, मूल दस्तावेजों और उसकी स्थानीयता की जांच-पड़ताल किए बगैर कार्ड प्राप्त करने में सफल हो जाता है. आधार कार्ड देश के ज्यादातर साइबर कैफे में बनाए जा रहे हैं. इस कारण बांग्लादेशी घुसपैठियों, कश्मीरी आतंकियों और नेपालियों को भी बड़ी संख्या में कार्ड बना दिए गए हैं. यानी देश की नागरिकता के प्रमाण के रूप में आसानी से प्राप्त हो जाने वाले ऐसे पहचान-पत्र पर अंकुश जरूरी था. अब न्यायालय के फैसले के बाद भी सरकार आधार कार्ड बनाने का सिलसिला जारी रखना चाहती है तो उसे कड़ी शत्रे अमल में लाने की जरूरत है. नागरिकता में जो 18 तरह की व्यक्तिगत पहचानें शामिल हैं, उनमें से कोई एक नागरिक पहचान हासिल करने वाले व्यक्ति के पास हो. साथ ही 33 प्रकार के निवास प्रमाण वाले दस्तावेजों में से भी कोई एक होना जरूरी हो, तभी व्यक्ति आधार का हकदार हो?
आधार पत्र बनाना कितना आसान व सतही है, यह इस तथ्य से पता चलता है कि कुछ समय पहले भगवान हनुमान के नाम से ही सचित्र कार्ड बन गया था. हरेक खानापूर्ति व पंजीयन क्रमांक के साथ यह कार्ड बेंगलुरू से बना था. पता फर्जी था, इसलिए कार्ड राजस्थान के सीकर जिले के दाता रामगढ़ डाकघर पहुंच गया और सार्वजनिक हो गया. इससे पता चलता है कि नागरिक की पहचान और मूल-निवासी की शर्त जुड़ी नहीं होने के कारण कार्ड बनाने में कितनी लापरवाही बरती जा रही है. इस मामले में हैरानी में डालने वाली बात यह भी थी कि कार्ड बनाने वाले कंप्यूटर ऑपरेटर और कार्ड का सत्यापन करने वाले अधिकारी ने हनुमान के चित्र को व्यक्ति का फोटो कैसे मान लिया? जाहिर है, केवल धन कमाने के लिए कार्ड बनाने की गिनती का ख्याल रखा गया है.
आधार को जब मंजूरी मिली थी, उसके पहले से ही भारत सरकार के गृह मंत्रालय के अंतर्गत राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर (एनपीआर) के माध्यम से व्यक्ति को नागरिकता की पहचान देने वाले कार्ड बनाए जाने की कार्रवाई चल रही थी. लिहाजा देश के नागरिक को बायोमैट्रिक ब्यौरे तैयार करने की प्रक्रिया में किस विभाग की भूमिका को तार्किक व अहम माना जाए, इस नजरिए से संसद व सरकार के स्तर पर भ्रामक स्थिति बन गई थी. विधेयक के प्रारूप को खारिज करने का यही प्रमुख कारण संसदीय समिति ने माना था. यह विरोधाभास मोदी सरकार ने भी दूर नहीं किया. यही नहीं मोदी सरकार ने आधार विधेयक को संसद से पारित कराने की भी कोई पहल अब तक नहीं की. पहचान-पत्र निर्माण की प्रक्रिया निर्बाध चलती रहे इस हेतु धनराषि जरूर आवंटित की जाती रही.
अब तीन सदस्यीय पीठ ने स्पष्ट कर दिया है कि आधार पत्र पहचान का वैकल्पिक जरिया है न कि बाध्यकारी. इस क्रम में मोदी सरकार के समक्ष यह चुनौती है कि वह पहले आधार कार्ड बनाने वाले ‘भारतीय विशिष्ट पहचान प्रधीकरण‘ को संसद से विधेयक पारित कराकर कानूनी मान्यता हासिल कराए.
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