सूरज और जंगल के बूते बचाएंगे धरती

Last Updated 06 Oct 2015 12:29:55 AM IST

जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर पेरिस में इस साल दिसम्बर में होने वाले महा-सम्मेलन से पहले भारत ने व्यापक व न्यायसंगत करार के प्रति वचनबद्धता दोहराई है.




सूरज और जंगल के बूते बचाएंगे धरती

संयुक्त राष्ट्र को आश्वासन दिया गया है कि भारत 2030 तक कार्बन उत्सर्जन में 33-35 फीसद कटौती करेगा. यह कमी 2005 को आधार मानते हुए की जाएगी. इसके साथ ही भारत ने 2030 तक नॉन फॉसिल फ्यूल सोर्सेस के जरिए 40 फीसद बिजली उत्पादन का भी लक्ष्य रखा है. यह पिछले लक्ष्य का ही विस्तार है. पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने बताया कि भारत ने आईएनडीसी में आठ गोल तय किए हैं. इनमें सबसे महत्वाकांक्षी लक्ष्य वर्ष 2030 तक गैर जीवाश्म ऊर्जा का हिस्सा बढ़ाकर 40 प्रतिशत करने का है. बता दें कि ये फ्यूल परंपरागत फ्यूल सोर्सेस से तैयार फ्यूल की तुलना में कम प्रदूषण फैलाते हैं. इसके अलावा इतने जंगल विकसित होंगे, जो 2.5 से 3 टन कार्बन डाइऑक्साइड सोखेंगे. शुरुआती अनुमान के मुताबिक, भारत को इसके लिए करीब 14 लाख करोड़ रुपये खर्च करने पड़ेंगे.

हालांकि, भारत पहले ही कह चुका है कि वह 2022 तक 1 लाख 75 हजार मेगावाट बिजली का उत्पादन सोलर और विंड एनर्जी के जरिए करेगा. भारत ने यह लक्ष्य पेरिस में प्रस्तावित विश्व पर्यावरण संधि के लिए ‘यूनाइटेड नेशंस फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज (यूएनएफसीसीसी) के सामने रखा. इसे इंटेंडेड नेशनली डिटरमाइंड कांटिब्यूशन (आइएनडीसी) नाम दिया गया है. इसमें जलवायु परिवर्तन से जुड़ी चुनौतियों व दुष्प्रभावों से निटपने की विस्तृत जानकारियों व उपायों का उल्लेख है.

गौरतलब है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मार्गदशर्न में आईएनडीसी तैयार किया गया. पेरिस में 30 नवम्बर से 11 दिसम्बर तक होने वाले जलवायु परिवर्तन सम्मेलन के लिए सभी देशों को अपना-अपना आईएनडीसी देना जरूरी था. लिहाजा अगले डेढ़ दशक में उत्सर्जन को करीब एक तिहाई घटाने का वायदा पूरा हो सकता है. पर इस दौरान गैर जीवाश्म ईधन से चालीस प्रतिशत विद्युत उत्पादन करने का लक्ष्य व्यावहारिक नहीं लगता. खासकर तब, जब स्वच्छ ऊर्जा पर अतिशय जोर देने और इसके लिए समुचित संसाधन होने के बावजूद अमेरिका में 2030 तक गैर जीवाश्म ईधन से विद्युत उत्पादन कुल उत्पादन के तीस फीसदी से अधिक नहीं हो पाएगा.

वैश्विक आंकड़ों को देखें तो चीन दुनिया का सबसे अधिक प्रदूषण फैलाने वाला (करीब 25 प्रतिशत) कार्बन डाइऑक्साइड छोड़ने वाला देश है. यहां जैव ईधन की सबसे ज्यादा खपत है. जबकि औद्योगिक देशों में प्रति व्यक्ति के हिसाब से अमेरिका दूसरे नंबर पर (लगभग 19 फीसद) सबसे अधिक प्रदूषण फैलाता है. ये दोनों देश मिल कर दुनिया के लगभग आधे प्रदूषण के लिए जिम्मेदार हैं और तीसरे पर भारत (करीब छह फीसद) है. ये सभी देश आज जैव ईधन की सबसे ज्यादा खपत करते हैं. इस आधार पर कहा जा सकता है कि चीन, अमेरिका और भारत दुनिया में सबसे अधिक प्रदूषण उत्पन्न करने वाले देश हैं. जहां तक पर्यावरण बचाने की वकालत करने और खुद को इसका झंडाबरदार बताने वाले देश जर्मनी और ब्रिटेन की बात है तो यह भी दुनिया में सबसे ज्यादा प्रदूषण फैलाने वाले शीर्ष 10 देशों में शुमार हैं. बहरहाल, पूरी दुनिया के सामने यह बड़ी चुनौती है कि जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों को कैसे कम किया जाए.

हालांकि इस घोषणा से भारत के सामने कई चुनौतियां खड़ी हो सकती है. यहां अभी गरीबी और भुखमरी की स्थिति है और भारत का प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन भी बेहद कम, यानी करीब 3.5 टन है जबकि अमेरिका और चीन का कार्बन उत्सर्जन प्रति व्यक्ति 12 टन है. भारत के पास दुनिया की कुल भूमि का कुल 2.5 प्रतिशत हिस्सा है जबकि उसकी जनसंख्या विश्व की कुल आबादी की साढ़े 17 प्रतिशत है और उसके पास दुनिया का कुल साढ़े 17 प्रतिशत पशुधन है.

भारत की 30 प्रतिशत आबादी अब भी गरीब है, 20 प्रतिशत के पास आवास नहीं है, 25 प्रतिशत के पास बिजली नहीं है जबकि करीब नौ करोड़ लोग पेयजल की सुविधा से वंचित हैं. इतना ही नहीं, देश की खाद्य सुरक्षा के दबाव में भारत का कृषि क्षेत्र कार्बन उत्सर्जन घटाने की हालत में नहीं है. सबके लिए भोजन मुहैया कराना फिलहाल प्राथमिकता है भारत में होने वाले कार्बन उत्सर्जन में कृषि क्षेत्र की हिस्सेदारी 17.6 फीसद है. कार्बन उत्सर्जन में कृषि क्षेत्र की कुल हिस्सेदारी में सबसे बड़ा हिस्सा पशुओं का है. पशुओं से करीब 56 फीसद उत्सर्जन होता है. सबको भोजन देने की सरकार की योजना के अंतर्गत राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून बन चुका है. इसके तहत देश की 67 फीसद आबादी को अति रियायती दर में अनाज उपलब्ध कराया जाना है.

इसके लिए 6.10 करोड़ टन से अधिक खाद्यान्न की जरूरत हर साल पड़ेगी. दूसरी बड़ी चुनौती भारत की असिंचित खेती की है, जो पूरी तरह मानसून पर निर्भर है. लगातार पिछले चार सीजन से खेती सूखे से प्रभावित है. मानसून के रूखे व्यवहार को जलवायु परिवर्तन से ही जोड़कर देखा जा रहा है. ऐसे में भारत ने एक संतुलित आईएनडीसी तैयार किया है. गौर करने वाली बात यह है कि अब तक 85 प्रतिशत देश राष्ट्रीय निर्धारित योगदान (ईएनडीसी) कर चुके हैं, लेकिन उनकी प्रतिबद्धता धरती के तापमान को 2 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ने से रोकने के लिए काफी नहीं है. भारत जैसे देश को अभी विकिसित होना है और उसे गरीबी मिटानी है, इसलिए वह कार्बन गैसों के उत्सर्जन को कम नहीं कर सकता है. प्रधानमंत्री ने 2030 तक 375 गेगावाट सौर ऊर्जा के उत्पादन का लक्ष्य रखा है. यदि यह लक्ष्य प्राप्त हो जाता है तो संभव है भारत का कार्बन उत्सर्जन कम हो जाए.

गौरतलब है कि संयुक्त राष्ट्र महासभा की 70वीं वषर्गांठ पर बीते माह बोलते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पर्यावरण का जिक्र करते हुए कहा कि क्लाइमेट चेंज के साथ ही क्लाइमेट जस्टिस की बात भी होनी चाहिए ताकि पर्यावरण को लेकर एक संकल्प का भाव पैदा हो. जलवायु परिवर्तन पर उन्होंने कहा, अगर हम जलवायु परिवर्तन की चिंता करते हैं तो कहीं न कहीं हमारे निजी सुख को सुरक्षित करने की बू आती है. लेकिन यदि हम जलवायु न्याय की बात करते हैं तो गरीबों को प्राकृतिक आपदाओं से सुरक्षित रखने का संवेदनशीन संकल्प उभर कर सामने आता है. उन्होंने कहा कि जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों से निपटने में उन समाधानों पर बल देने की जरूरत है जिनसे हम अपने उद्देश्यों में सफल हो सकें. हमें वैश्विक जनभागीदार का निर्माण करना होगा जिसके बल पर प्रौद्योगिकी नवोन्मेष व वित्त का उपयोग करते हुए स्वच्छ और नवीकरणीय ऊर्जा सर्व सुलभ बना सकें. क्योंकि ऐसा किये बिना विश्व शांति, न्यायोचित व्यवस्था और सतत विकास  संभव नहीं हो सकता.

यह विडम्बना ही है कि ग्लोबल वार्मिग को लेकर ज्यादातर शोर उन पश्चिम देशों से ही उठता रहा है जो भौतिक विकास के लिए प्रकृति के विरुद्ध न जाने कितने अन्यायकारी कदम उठा रहे हैं. आज भी कार्बनडाईआक्साइड उत्सर्जन वाले देशों में 70 प्रतिशत हिस्सा पश्चिमी देशों का ही है. हालांकि इस समस्या को लेकर विश्व स्तर पर शिखर सम्मेलन का भी आयोजन किया जाता रहा है, लेकिन परिणाम ढाक के तीन पात रहते हैं.  जलवायु परिवर्तन ऐसा मुद्दा है जो पूरी दुनिया के लिए चिन्ता की बात है ओर इसे बिना आपसी सहमति और ईमानदार प्रयास के हल नहीं किया जा सकता है. भूमंडलीकरण के कारण आज दुनिया विग्राम में बदल चुकी है. वक्त कुछ करने का है न कि सोचने का. जाहिर है, कुछ देश एवं संगठन तब तक ज्यादा कुछ नहीं कर पाएंगे जब तक धनी देश ईमानदारी से प्रयास न करें.

रवि शंकर
लेखक


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