स्मार्ट बनना हर शहर का सपना

Last Updated 02 Sep 2015 12:11:26 AM IST

मोदी सरकार शहरों को स्मार्ट बनाने के अपने चुनावी वादे को लेकर कितनी गंभीर है, इसकी मिसाल उसने उन 98 शहरों की सूची जारी करके दे दी है.


स्मार्ट बनना हर शहर का सपना

जिन्हें अगले पांच साल में करीब 48 हजार करोड़ रुपयों के खर्च से स्मार्ट शहरों में बदला जाना है. जम्मू-कश्मीर और यूपी से एक-एक और शहरों के चुनाव के साथ सौ शहरों की सूची में अगले एक-दो दशकों में कुछ सौ शहर और जुड़ेंगे या फिर यही सौ शहर इतनी चुनौतियां पेश कर देंगे कि सारे अभियान की हवा निकल जाएगी- यह तो वक्त ही बताएगा. फिलहाल इतना जरूर हुआ है कि जिन शहरों के नाम मौजूदा लिस्ट में नहीं जुड़े हैं, वहां के बाशिंदे खुद को उपेक्षित और निराश महसूस कर रहे हैं. उन्हें समझ नहीं आ रहा है कि जिस तरह का बेतरतीब शहरीकरण देश में अब तक होता रहा, पिछली सरकारों ने उसकी सुध क्यों नहीं ली और अब भी क्या वह कथित स्मार्टनेस उनके लिए सपना ही रहेगी, जिसकी एक अलख मौजूदा सरकार ने जगा दी है.

शहर कैसे भी क्यों न हों- उनकी जरूरत से अब इनकार नहीं किया जा सकता. गांव-कस्बों में रोजगार की कमी और बढ़ती आबादी के बरक्स खेत-खलिहानों का घटता आकार लोगों को शहरों की तरफ पलायन करने के लिए मजबूर करने लगा है. इस पलायन को अब रोकना मुमकिन नहीं है क्योंकि अब रोजगार के साथ शहरीकरण देश के विकास की पहली जरूरत है. देश में एक नया मध्यवर्ग उन्हीं लोगों के बीच से उभर रहा है जो ग्रामीण इलाकों से शहरों की ओर इसीलिए पलायन कर रहे हैं क्योंकि वे बेहतर जीवनशैली वाला जीवन चाहते हैं.

आंकड़े इसके गवाह हैं- साल 2008 में 34 करोड़ भारतीय शहरों के बाशिंदे बन चुके थे और उम्मीद है कि 2030 तक यह तादाद बढ़कर 59 करोड़ पहुंच जाएगी. पर इतने लोग रहेंगे कहां? क्या उन्हीं शहरों में जहां का इंफ्रास्ट्रक्चर आबादी के बोझ के कारण पहले से ही कराह रहा है और जहां रहने के लिए घर खरीदना आम आदमी के पहुंच के बाहर की चीज हो गई है या फिर वहां जहां नए सपनों की नींव रखी जानी है? यह सपना देश में नए 100 स्मार्ट शहरों का है, जिसकी एक ठोस रूपरेखा बनती दिख रही है. असल में सरकार देश में ऐसे 100 स्मार्ट चाहती है जो लोगों को रोजगार, सस्ते आवास ही न दें, बल्कि इंफ्रास्ट्रक्चर और डिजाइन आदि के मामले में भी दुनिया के स्मार्ट शहरों को टक्कर दें.

हालांकि अभी ये सवाल बाकी हैं कि आखिर कैसे होंगे ये शहर और कैसे ये हमारी दिक्कतों का समाधान करेंगे? क्या पुराने शहरों को नए सिरे से संवार कर उन्हें स्मार्ट बनाया जाएगा या नए स्मार्ट शहर उनके आसपास बसाए जाएंगे? यूं शहरी विकास मंत्री वेंकैया नायडू इस बारे में कह चुके हैं कि स्मार्ट शहर दो तरह से बसाए जाएंगे. सबसे पहले कुछ पुराने शहरों को ही स्मार्ट सिटी में तब्दील किया जाएगा और फिर कुछ नए शहर बसाए जाएंगे. दोनों ही तरीकों से इन शहरों को विकसित करने में 20 से 30 साल लग जाएंगे. खैर, ये सौ शहर तो जैसे-तैसे करके थोड़े स्मार्ट बन भी जाएंगे पर उन सैकड़ों शहरों का क्या होगा, जहां का अनियंत्रित और अनियोजित विकास गंभीर मर्ज बन चुका है और उससे निजात पाने की कोई योजना या पेशकश किसी भी कोने से होते हुए दिखाई-सुनाई नहीं पड़ रही है.

ध्यान रहे कि लंबे समय तक गांवों का मुल्क कहलाने वाले भारत में शहरीकरण एक ऐतिहासिक बदलाव है. असल में, आबादी के परिप्रेक्ष्य अब जितने भी परिवर्तन होने हैं, उनका सीधा असर हमारे शहरों की दशा-दिशा पर पड़ेगा. खास तौर से उन शहरों पर, जिनकी सूरतेहाल अभी कुछ ठीक नहीं है. समस्या यह है कि विकसित देशों की देखा-देखी हमने शहरीकरण को तो बढ़ावा दिया, लेकिन इस तब्दीली का हमारी सरकारों और योजनाकारों ने कोई गंभीर नोटिस नहीं लिया. नतीजा यह निकला है कि आज देश के ज्यादातर शहर बेकाबू और अनियोजित फैलाव के शिकार हो गए हैं. रोजी-रोटी के बेशुमार मौके देने के लिहाज से ये बेरोजगारों के स्वर्ग कहे जाते हैं पर अनियंत्रित शहरीकरण ने इन्हें असल में कहीं का नहीं छोड़ा है. स्मार्टनेस का सपना देख रहे इन सारे शहरों की पहली मौलिक समस्या हर तरह के इंफ्रास्ट्रक्चर की खराबी है. सड़कें, सीवर, बिजली, पानी की मूलभूत कमियों के बाद अवैध कब्जों और बिना किसी नियोजन के विकास ने ऐसे ज्यादातर शहरों को नर्क जैसी स्थितियों में धकेल दिया है.

इसके बाद सामाजिक परिवेश और कानून व्यवस्था जैसे सवाल हैं जो इन ज्यादातर शहरों में बड़ी समस्या बनकर सामने आए हैं. यह सिर्फ एक विडंबना नहीं है कि आज महिलाओं के साथ होने वाले अपराधों, दहेज हत्या, बलात्कार, बच्चों की सुरक्षा आदि के मामले में शहरों का ही रिकॉर्ड सबसे ज्यादा खराब है. अवैध निर्माण और जल-वायु और जमीनी प्रदूषण तो देश की राजधानी दिल्ली तक में बेइंतहा है, बाकी शहरों के बारे में क्या कहा जाए.

यह अनियोजित विकास का ही नतीजा है कि आज हमारे शहरों में बसी आबादी का एक बड़ा हिस्सा बिजली, पानी और स्वास्थ्य जैसी मूल सुविधाओं से महरूम है, वही सबसे ज्यादा जलीय-थलीय प्रदूषण का कारक बन रहा है. ये लोग खुले में दैनिक कार्यों से निवृत्त होते हैं, घरों का कूड़ा-कचरा सड़कों पर फेंकते हैं और जितने भी तरीकों से पर्यावरण को क्षति पहुंचती है, उनमें इन्हीं बहुसंख्य लोगों का विवशता में योगदान होता है. कारोबार, औद्योगीकरण, उपभोक्तावाद तथा जीवन के प्रति लोगों के बदलते नजरिये के कारण ज्यादातर शहरों का हाल यह है कि वे जहरीले और मरते हुए शहरों में तब्दील हो चुके हैं. ऐसे में सवाल यह है कि अगले 15 वर्षो में लाखों की जो आबादी शहरों की छाती पर काबिज होने वाली है, क्या उसके रहन-सहन के प्रबंध की कोई ऐसी योजना हमारी सरकारों के पास है जिससे न सिर्फ  इन लोगों को मूलभूत सुविधाएं आसानी से मिल सकें, बल्कि शहरों के इंफ्रास्ट्रक्चर और हवा-पानी पर इस दबाव को कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़े.

शहरों को स्मार्ट बनाने का जिम्मा सिर्फ  सरकारों पर छोड़ने का ही खामियाजा है जो हमारे शहर आज भुगत रहे हैं. शहरों में रह रहे लोगों और वहां बसने के लिए आने वाली आबादी ने अगर कभी इसकी फिक्र की होती कि पूजास्थल वहां की सड़कों के रास्ते में अड़चन न बनें, अवैध कब्जों की अनदेखी न की जाए या कूड़ा निष्पादन की एक उचित व्यवस्था सामुदायिक स्तर पर ही बना ली जाए- तो शायद हम शहरियों के कष्ट इतने ज्यादा नहीं होते.

क्योटो (जापान) का एक उदाहरण है कि वहां स्थानीय लोग सफाई के लिए सरकारी व्यवस्था का मुंह नहीं देखते, बल्कि साप्ताहिक अवकाशों में खुद ही कुदाल-फावड़े लेकर इस काम में जुट जाते हैं. क्या हमारे देश में किसी शहर ने आज तक ऐसी कोई मिसाल पेश की है? इसी तरह योजनाओं का शुरु आती खाका पेश करके और पैसा आवंटन के बाद उनकी सुध नहीं लेने वाली नीति ने जिस तरह तमाम सरकारी अभियानों की हवा निकाली है, शहरीकरण के मर्ज दूर करने की नीतियों का भी वैसा ही हश्र हुआ है. अच्छा हो कि जनता और सरकार, दोनों अपने गिरेबान में झांके, तो उन्हें शहरों की बीमारियों और उनके निदान के सही रास्ते मालूम पड़ जाएंगे.

अभिषेक कुमार
लेखक


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