बाघ को बचाना और बढ़ाना बड़ी चुनौती

Last Updated 29 Jul 2015 12:55:46 AM IST

देश में बाघों की तादाद में आज बेशक बढ़ोतरी का दावा किया जा रहा हो लेकिन कुछ बरस पहले तक कहा जा रहा था कि वह दिन दूर नहीं जब विश्व विख्यात बंगाल टाइगर यानी बाघ के दर्शन दुर्लभ हो जाएंगे.


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देश में बाघों की तादाद में बढ़ोतरी के दावे पर विचार करें तो 2006, 2010 और 2014 में बाघों की गणना के सम्बंध में तीन बार सव्रे हुए हैं. 2006 की गणना में बाघों की तादाद 1411 आंकी गई, जबकि 2010 में यह 1706 पहुंची और 2014 में बढ़कर 2226 तक जा पहुंची. जिस देश में बाघ विलुप्ति के कगार पर पहुंच गए हों, वहां 2226 की तादाद संतोष का विषय है. 2014 में भी बाघों की गणना और संख्या पर सवाल उठाये गए थे और दावा किया जा रहा है कि इसके बाद बाघों की तादाद में 30 प्रतिशत तक की बढ़ोतरी हुई है जिस पर सहज विश्वास नहीं होता.

बाघ जिसकी तादाद देश में कभी 40 हजार के आसपास थी और आज जिसके 2226 होने का दावा किया जा रहा है, 2007 में यह संख्या मात्र 1500 के आसपास सिमट गई थी. 1972 में यह तादाद 1827 थी. देश में 1980 के दशक में 1300 बाघों की जबर्दस्त बढ़ोतरी हुई लेकिन 90 के दशक में 600 से 650 तक बाघ कैसे कम हो गए, इसका जवाब किसी के पास नहीं है.  इसमें दो राय नहीं कि 80 का दशक जहां बाघों की संख्या में वृद्धि के लिए जाना जायेगा, वहीं 90 का दशक 80 के दशक में बाघ संरक्षण की दिशा में किए गए प्रयासों यथा-बाघों के शिकार पर प्रतिबंध, 1972 में वन्य जीव संरक्षण अधिनियम की नये रूप में प्रस्तुति व 1973 में ‘टाइगर प्रोजेक्ट’ को धता बताने वाले दशक के रूप में जाना जाएगा.

1989 में बाघों की तादाद जहां 4300 का आंकड़ा पार कर गई, वहीं 1997 से इसमें गिरावट का लंबा सिलसिला जारी रहा. सूत्रों के अनुसार महज छह सालों यानी 2002 से इनकी संख्या घटकर 3642 से 1657 रह गई. उस समय बाघों की घोषित संख्या के बारे में बाघ संरक्षण प्राधिकरण के डा. राजेश गोपाल ने कहा था कि छह वर्ष पूर्व बाघों की गणना पदचिह्नों के आधार पर की गई थी जबकि इस बार बाघों के आने-जाने के रास्ते, ठिकाने और मल के आधार पर की गई है जो प्रामाणिक है.

असम के तत्कालीन मुख्य वन्य जीव संरक्षक एन.सी. माकड का भी मानना रहा कि बाघ गणना की नई पद्धति में गणना के समय बाघ का दिखना जरूरी नहीं. यह आंकड़ा संदेहास्पद है. बिहार के मुख्य वन्य जीव संरक्षक बी.एन.झा और ओडिशा के मुख्य वन्य जीव संरक्षक एस.सी.मोहंती ने भी इस पद्धति को सही नहीं बताया था जबकि उत्तर प्रदेश के प्रधान मुख्य वन्य जीव संरक्षक डी.एन.एस. सुमन के अनुसार इस पद्धति में बाघों के शावकों की गणना की संभावना न के बराबर है. ऐसे में सही गणना का दावा कितना सटीक है, सहज ही समझ में आ जाता है.

यह सच है कि बीसवीं सदी में भारत में 35,000 से ज्यादा बाघ मारे गए. अंग्रेजों द्वारा बाघों का शिकार, व्यावसायिक व औषधि उपयोग हेतु बाघों की हत्या, वनों का अंधाधुंध कटान और मानव आवास हेतु कंक्रीट के भवनों का तेजी से निर्माण प्रमुख कारण रहा. 80 के दशक में प्रोजेक्ट टाइगर में सफलता के बाद इसके बजट में लगातार करोड़ों की कमी की जाती रही और प्राणी उद्यानों का बजट बढ़ाया जाता रहा. यह सरकार की प्राणी उद्यानों में बाघ दिखाये जाने को बढ़ावा और वनों में उनके संरक्षण व प्राकृतिक तौर पर तादाद बढ़ाने के प्रयासों के प्रति उपेक्षा की नीति का ज्वलंत प्रमाण है. बीते 15-20 सालों में देश में पूरे एक हजार से अधिक बाघों का खत्म होना बाघ संरक्षण के प्रति सरकारी उदासीनता का सबूत है. अब तो केन्द्र सरकार ने राजनीति के चलते नेशनल पार्क और अभयारण्यों के विकास के लिए मिलने वाले फंड में भारी कटौती कर दी है. ऐसे में स्वाभाविक है कि एक तो नेशनल पाकरे और अभयारण्यों, टाइगर रिजर्व पार्कों का व्यवस्था-प्रबंधन बिगड़ेगा, वहीं दूसरी ओर बाघों की तादाद बढ़ाने के प्रयासों को भी धक्का लगेगा.

वैश्विक स्तर पर बाघों के संरक्षण हेतु किये गए प्रयासों पर नजर डालें तो पाते हैं कि 12 देशों द्वारा मिलकर बनाया गया ‘ग्लोबल टाईगर फोरम’, ‘बाघ रक्षा सेल’ और सरकारी व निजी स्तर पर चलायी गई गैर सरकारी योजनाओं में बाघों के प्राकृतिक आवास यानी वनों की सुरक्षा पर ध्यान नहीं दिया गया. देश में 1987 से 1997 के बीच 6,40,819 वर्ग किलोमीटर वन क्षेत्र से 6,422 वर्ग किलोमीटर वन क्षेत्र और घट गया. जबकि एक समय बाघों का संरक्षित वन क्षेत्र तीन लाख वर्ग किलोमीटर था जो घटकर आज आधा ही रह गया. यह विडम्बना ही है कि हमारे यहां बाघ संरक्षण पर प्रति किलोमीटर 7000 रुपये जबकि औद्योगिक रूप से पिछड़े नेपाल में 60,000 रुपये खर्च किए जाते हैं.

बाघों की घटती तादाद के पीछे बाघों के अंगों की अन्तरराष्ट्रीय बाजार में लाखों की कीमत होना प्रमुख कारण है. हड्डी समेत उसके तमाम अंगों से शराब बनायी जाती है. यही वजह है कि जंगल की बात छोड़िए, सरिस्का और पन्ना अभयारण्यों से भी बाघ गायब हुए हैं. बाघ का मल चीन में फोड़े-फुंसियों और बबासीर के इलाज में काम आता है. बाघिन का दूध और योनि;  लिंग, पंजे घरेलू नुस्खों में इस्तेमाल होते हैं. बाघ की हड्डी से बनी शराब गठिया और सिरदर्द में काम आती है. इसको खून का दौरा बढ़ाने वाली बताया जाता है.

शिकारियों को बाघ की हड्डी की कीमत 1000 से 1500 रुपये किलो मिलती है जबकि दिल्ली-कोलकाता में इसे पांच से  छह हजार और सीमापार आठ से पंद्रह हजार रुपये प्रतिकिलो के भाव तक बेचा जाता है. अंतरराष्ट्रीय बाजार में बाघ की खाल की कीमत 25 से 28 हजार डॉलर, एक जोड़ी आंख 250 से 500 डॉलर, लिंग 3000 डॉलर, एक बोतल खून 200-350 डॉलर, हड्डी से बनी शराब की एक बोतल की कीमत 1500 डॉलर तक है. इसकी आपूर्ति जापान, अमेरिका, दक्षिण कोरिया, इंग्लैण्ड, कनाडा, हांगकांग, सिंगापुर, थाईलैंड सहित विश्व के 27 देशों में की जाती है.

जिस बाघ के शरीर का एक-एक अवयव इतना कीमती हो, उसकी तादाद में बढ़ोतरी की उम्मीन भला कैसे करें. बाघों की घटती तादाद के पीछे उसका शिकार न रोक पाना ही अहम कारण है. दुख इस बात का है कि यह काम ‘टाइगर टॉस्क फोर्स’ के गठन के बाद भी जारी है और सब वनकर्मियों व पुलिस की मिलीभगत से ही संभव है. इंटरपोल के अनुसार वन्य जीवों की खालों, हड्डियों की तस्करी का गैरकानूनी कारोबार समूची दुनिया में प्रतिवर्ष 7 से 20-25 अरब डॉलर के बीच है. इनमें बाघ के अंगों का धंधा प्रमुख है. आज बाघों को बचाने की जरूरत है क्योंकि वे हमारी वन्य जीव संस्कृति के प्रतिनिधि हैं. यदि वे लुप्त हो गए तो इस संस्कृति की अहम कड़ी खत्म हो जायेगी.

ज्ञानेन्द्र रावत
लेखक


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