पुलिस को कोसने के बदले सुधार कीजिए

Last Updated 28 Jul 2015 01:01:26 AM IST

दिल्ली पुलिस के बहाने पुलिस सुधार का मसला एक बार फिर चर्चा में है.




पुलिस को कोसने के बदले सुधार कीजिए

हालांकि दिल्ली पुलिस को ठुल्ला कहने के लिए वहां के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के बयान की आलोचना होनी चाहिए फिर भी अगर मान लिया जाए कि वाकई हमारी पुलिस व्यवस्था ऐसी हो गई है कि कोई उसे ऐसे शब्द से संबोधित करे तो इसके पीछे उन सारे लोगों को दोषी माना जाना चाहिए जो पुलिस सुधार नहीं होने दे रहे. अरविंद केजरीवाल भी पुलिस सुधार को लेकर उतने प्रयत्नशील नहीं दिखते जितने पुलिस पर अपनी पकड़ को लेकर.

केजरीवाल का मानना है कि पिछली बार की यूपीए सरकार और इस बार की मोदी सरकार ने ईमानदारी से उनकी सरकार को काम से रोकने के लिए पुलिस का सहारा लिया. ऐसे में अगर उनकी सरकार महिला सुरक्षा और भ्रष्टाचार जैसे अहम मुद्दों पर कुछ सकारात्मक काम करना चाहती है तो इसके लिए जरूरी है कि दिल्ली पुलिस पर उसका नियंत्रण हो. गौर करने वाली बात है कि दिल्ली सरकार के अधीन आते ही पुलिस को मिली सारी शक्तियां भी राज्य के पास आ जाएंगी और फिर केजरीवाल सरकार भी पुलिस का इस्तेमाल अपने हित में ठीक उसी तरह से कर पाएगी जैसी अन्य राज्यों में पुलिस के साथ किया जा रहा है.

केंद्र और दिल्ली सरकार के बीच पुलिस का मुद्दा अहम का मुददा बना हुआ है लेकिन दोनों तरफ से पुलिस सुधार के लिए ठोस रूपरेखा नहीं दी जा रही है. ऐसे में यह निष्कर्ष स्वाभाविक है कि दोनों ही पुलिस को सुधारना नहीं चाहते. दिल्ली सरकार के पास तो फिलहाल पुलिस है नहीं इसलिए वह ज्यादा नहीं कर सकती लेकिन इतना तो बता ही सकती है कि पुलिस को सुधारने के लिए ये-ये कदम उठाये जाने चाहिए. इससे पहले पुलिस सुधार को लेकर हमारे प्रधानमंत्री ने भी केवल पुलिस को स्मार्ट बनाने के लिए सूत्र ही दिए हैं, धरातल पर अभी कुछ विशेष नहीं किया गया है. पुलिस के लिए यह स्मार्टनेस जरूरी नहीं बल्कि अनिवार्य शर्त है. प्रधानमंत्री ने कुछ दिनों पहले कहा था कि पुलिस को एक साथ स्ट्रिक्ट, मॉडर्न, मोबाइलाइज्ड यानी गतिशील, अलर्ट और अकाउंटेबल यानी चुस्त-दुरुस्त और ईमानदार, रिस्पांसिव यानी तुरंत एक्शन में आने वाली और टेक्नोसेवी होना चाहिए. यह स्थिति पुलिस की आधुनिक परिभाषा के खांचे में फिट बैठती है. पुलिस को होना ऐसा ही चाहिए लेकिन सवाल है कि इसके लिए किया क्या जाए? जो परिवर्तन जरूरी हैं, उसे कैसे धरातल पर उतारा जाए? क्या पुलिस को लेकर खिचखिच पैदा कर ऐसा किया जा सकता है. पुलिस की छवि आम लोगों में नकारात्मक है और इसके लिए सिर्फ फिल्में ही दोषी नहीं.

फिल्म तो वही दिखाती है जैसा आम लोगों में पुलिसिया छवि है. फिर फिल्म पुलिस को सकारात्मक भूमिका में भी दिखाती है, इसमें दो राय नहीं. पुलिस की छवि खराब होने का सबसे बड़ा कारण है कि 1947 में आजादी मिलने के बाद पुलिस में गुणात्मक सुधार करने पर कभी ध्यान ही नहीं दिया गया. फिरंगी हुकूमत ने हमें विरासत में जो पुलिस व्यवस्था दी थी, वह दमनात्मक पृष्ठभूमि से ताल्लुक रखती थी. 1857 में लड़े गए पहले स्वतंत्रता संग्राम में अंग्रेजों को लगा कि ऐसा पुलिस बल चाहिए जिसे सिर्फ आदेशों का पालन करना हो. उसे इस बात पर विचार करने की जरूरत नहीं थी वे जिस आदेश का पालन करने जा रहे हैं, वह कानूनन सही है या गलत, संवैधानिक है या असंवैधानिक. शासन ने इसे मात्र दमन तंत्र के तौर पर अपनाया. अंग्रेजों ने पुलिस व्यवस्था के लिए अपने जो आरंभिक विचार रखे थे वे थे- एक ऐसे पुलिस बल का गठन जो राजनीतिक नजरिए से उपयोगी हो. इसके बाद 1861 का अधिनियम बना. इस अधिनियम के तहत ऐसे पुलिस बल का गठन किया गया जो सत्ता के हर आदेश का अक्षरश: पालन करे.

हमने आजादी मिलने के बाद केवल एक बार भारतीय पुलिस बल का गठन किया लेकिन इसका चरित्र आजाद देश के अनुकूल नहीं था. पुलिस बल का ढांचा अंग्रेजों के बनाए ढांचे की तरह ही था. अगर शुरू में दिक्कत हुई होती तो शायद हमारे शुरुआती नेताओं ने इसमें सुधार कर लिया होता, लेकिन आजादी मिलने के बाद हम नए उत्साह और ईमानदारी के साथ देश निर्माण में लगे थे इसलिए सब कुछ ठीक-ठाक रहा. दिक्कत तब हुई जब अधिकारियों व राजनेताओं में स्वतंत्रता का उन्माद कम होता गया. राजनीति धीरे-धीरे भ्रष्ट होती गई और पुलिस तंत्र का दुरुपयोग होना शुरू हो गया. इसका सबसे भयानक रूप आपातकाल के समय दिखा. शासन के शीर्ष पद पर बैठे लोगों ने इसे निजी सेना के तौर पर लिया. इस दुरुपयोग का पर्दाफाश शाह आयोग ने किया था. आयोग ने अपनी रिपोर्ट में भविष्य में ऐसे दुरुपयोग को रोकने के लिए पुलिस को राजनीतिक प्रभाव से मुक्त रखने और उसे देश के कानून और संविधान के प्रति जिम्मेदार बनाने का सुझाव दिया लेकिन तब तक पुन: कांग्रेस की सरकार बन चुकी थी. रिपोर्ट की बातों की अनदेखी की गई और पुलिस तंत्र ज्यों का त्यों बना रहा. ज्यादातर नेताओं की राय यही थी कि पुलिस प्रशासन में समर्पित लोग ही होने चाहिए. इससे उन्हें फायदा था. खैर ये बातें पुरानी हैं और इसका जिक्र केवल समस्या की गंभीरता को समझने के लिए ही होना चाहिए.

हमें आगे यह देखना होगा कि कैसे पुलिस का आधुनिकीकरण हो. पुलिस को स्मार्ट बनाने के लिए प्रत्येक साल गृह मंत्रालय की ओर से धन आवंटित किया जाता लेकिन इसका उपयोग सही तरीके से नहीं हो पाता. व्यवस्था ऐसी है कि पुलिस की जवाबदेही सरकार के प्रति होती है, जनता के प्रति नहीं. राष्ट्रीय पुलिस आयोग ने कहा था कि पुलिस को जनता, कानून और संविधान के प्रति जिममेदार होना चाहिए. पुलिस आयोग की सिफारिशों के आधार पर ही सुप्रीम कोर्ट ने 2006 में राज्यों में सुरक्षा आयोग गठित करने के निर्देश दिए थे. कहा गया कि आयोग का स्वरूप ऐसा हो कि सरकारी प्रतिनिधियों का वर्चस्व नहीं हो.

आयोग को सुनिश्चित करना था कि राज्य सरकार पुलिस के कामकाज में हस्तक्षेप न करे. कोर्ट के इस आदेश के बाद कई राज्यों में कागज पर आयोग बना दिया गया है लेकिन इसमें सरकार के लोगों की प्रमुखता बनाये रखी गई. सच्चाई यही है कि सरकारों की मंशा ही नहीं है कि पुलिस स्वतंत्र होकर काम करे. यही कारण है कि पुलिस के पास न संसाधन हैं और न उनकी ट्रेनिंग की आधुनिक व्यवस्था. यहां तक की संख्या भी पर्याप्त नहीं. यूएन के अनुसार प्रति एक लाख की आबादी पर 222 पुलिसकर्मी होने चाहिए, लेकिन हमारे यहां यह संख्या औसतन 175 है. इसमें भी पांच लाख रिक्तियां हैं. रही ट्रेनिंग की बात तो इसके लिए ऐसे अफसर बहाल किए जाते हैं जिन्हें सरकार अपने लायक नहीं समझती. एक तरह से इसे सेटिंग पोस्ट माना जाता है. ट्रेनिंग देने वाले अफसरों के लिए कोई इंसेंटिव, कोई मोटिवेशन नहीं होता. जब वे खुद टेक्नोसेवी नहीं होते तो बाकियों को कैसे ऐसा होने की सीख दे पाएंगे.

पूर्व सॉलीसीटर जनरल सोली सोराबजी ने 2006 में मॉडल पुलिस एक्ट का प्रारूप रखा था जिसे 2007 में दिल्ली और केंद्र शासित प्रदेश में लागू कर दूसरे राज्यों के सामने आदर्श रूप में रखने की बात कही गई थी, लेकिन प्रत्यक्षत: कुछ नहीं हुआ. इससे राज्यों को मनमर्जी करने की छूट मिल गई. उन्होंने अपने मुताबिक पुलिस एक्ट बनाने शुरू कर दिए. साफ है, हालात बहुत खराब हैं. प्रधानमंत्री ही नहीं, सभी मुख्यमंत्रियों को भी विचार रखने से आगे बढ़ना चाहिए. वे धरातल पर प्रयास भी करें तो अच्छा होगा. पुलिस को राज्य सूची से बाहर निकाल समवर्ती सूची में शामिल कर दिया जाए तो यह इस दिशा में मील का पत्थर साबित होगा. इससे दिल्ली पुलिस पर नियंत्रण का मसला भी एक तरह से हल हो जाएगा.
(लेखक आतंरिक सुरक्षा विशेषज्ञ हैं)

प्रकाश सिंह
लेखक


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