विज्ञापित सरकारें

Last Updated 05 Jul 2015 02:15:09 AM IST

मीडिया में हल्ला है कि केजरीवाल ने प्रचार के लिए सैकड़ों करोड़ का बजट बनाया है.


अरविंद केजरीवाल (फाइल फोटो)

सरकार के विज्ञापन के बहाने वे अपना विज्ञापन करते रहते हैं. यह ठीक नहीं है. लेकिन केजरीवाल ठहरे जिद्दी टाइम के आम आदमी, सो जितना ऐसा कहा जाता है उतना ही वे अपने विज्ञापन देते रहते हैं. ऐसे विज्ञापनों की खासियत यह भी होती है कि वे केजरीवाल की ही आवाज और शुद्ध केजरीवाल की शैली में ही होते हैं.
जैसे कि एक नए रेडियो विज्ञापन में वे अपनी आवाज में दिल्ली की जनता को कहते रहते हैं कि जब चुनाव थे तो लोग पूछते थे कि आप इतने वादे कर रहे हैं, पूरा कैसे करेंगे, इतने पैसे कहां से आएंगे, फिर वे जनता को याद दिलाते हैं कि वे तब कहा करते थे कि सरकार के पास पैसे की कमी नहीं है, कमी नीयत की होती है, नीयत सही हो तो सब ठीक है, हमने अपने कई वादे पूरे किए हैं. फिर कहते हैं कि रमजान का महीना चल रहा है, आपको रमजान मुबारक, अपनी दुआओं में हमें भी याद कर लेना.

विज्ञापन का आखिरी वाक्य एकदम मारक है मानो किसी फिल्मी गाने के बोल हों- जैसे रफी का गाना बजता हो कि ‘आंचल में छिपा लेना कलियां जुलफों में सितारे भर लेना, ऐसे में कभी जब शाम ढले तब याद हमें भी कर लेना’.

हम केजरीवाल की इसी अदा पर मरते हैं और हमारे जैसे कई होंगे जो मरते होंगे. कारण यह कि वे जनता की भाषा में ही बोलते हैं और वह सीधे समझ में आती है. समझ में ही नहीं आती, मजा भी देती है जैसे किसी हिट फिल्म का डायलाग हो. यही कारण रहा कि चुनाव के बाद जो पहला काम केजरीवाल की टीम ने किया वह था कि वे सब हिंदी फिल्म देखने गए और उसकी खबर बनवाई. खबर बनी तो लगा कि केजरीवाल है सही मानी में आम आदमी और मीडिया को लेकर उसकी चाहत आम आदमी जैसी ही है.

अगर मजाक छोड़ें तो हम पाते हैं कि इन दिनों की राजनीतिक भाषा मीडिया के लिए बनी भाषा है, विज्ञापन के लिए बनी भाषा है जिसे हर दल, हर नेता इस्तेमाल करता है. इससे वह मीडिया में अपनी उपस्थिति दर्ज कराते रहना चाहता है. लगभग सब दलों को और उनके बड़े नेताओं को महसूस होता है कि अगर उनकी खबर हर दिन नहीं लगी, अगर वे जनता की आंखों के आगे न आए तो वे खत्म हो जाएंगे. उनका दुश्मन उनको हरा देगा.

विज्ञापन देना, विज्ञापन में दिखना अब राजनीतिक जरूरत बन चली है. राजनीति का ऐसा नया दिखाऊ और प्रदर्शन-प्रिय मनोविज्ञान बन चला है कि अगर नेता एक दिन खबर न बने, एक दिन उसकी बात न छपे, विवादित न हो और चर्चा न हो तो नेता सोचता है कि वह तो गया. सो इन दिनों हर नेता मीडिया में अपने को किसी न किसी तरह बनाए रखने की जुगत में दिखता है. इस मानी में केजरीवाल अकेले नहीं हैं. चूंकि मीडिया प्रचार का मंत्र सबने साध लिया है, इसलिए हर नेता मीडियामें स्पर्धा करता है कि वह जितनी देर रहे, उससे ज्यादा देर दूसरा न रहे. अगर उसका स्पर्धी ज्यादा देर रहता है तो उसको उससे ज्यादा देर तक रहना चाहिए. विज्ञापन इसी की खातिर दिए जाते हैं.

लेकिन इस बढ़ती प्रचार और प्रदर्शनप्रियता की राजनीति में कुछ बातें चिंतनीय है. पहली यह कि राजनीति का अपने कामकाज से विास डिगा है. उसे विास नहीं होता कि जनता के लिए जो कुछ किया जाता है उसे जनता  कभी जान पाएगी कि किसने किया, इसलिए हर समय वह बताते रहना चाहती है कि यह मैंने किया है, मैंने! दूसरे, नेता का अपने आप पर भरोसा नहीं है कि उसका काम बोलेगा. इसीलिए काम की जगह वह खुद बोलने लगता है. वह अपने कामकाज की सेल लगाने लगता है कि मैंने किया है, मैंने ही किया है और तुम याद रखना कि किसने किया है, जिसने किया है उसके साथ रहना यानी वही कि ‘ऐसे ही कभी जब शाम ढले तब याद हमें भी कर लेना’!

अपने किए पर अविास का एक बड़ा कारण मीडिया पर ज्यादा ही भरोसा करना है और इस तरह यह मानना है कि आज की राजनीति सीधी जन-राजनीति नहीं है. उसका निर्माता और उसको बिगाड़ने वाला मीडिया है. मीडिया राजनीति की छवि है और इस तरह सारी राजनीति छवि से तय होती है और इस तरह अपनी छवि को बनाए रखने के लिए हमें मीडिया को नांधते रहना होगा. कहने की जरूरत नहीं कि पिछले चुनाव के दौरान और उसके बाद से राजनीतिक दलों और नेताओं के द्वारा अपनी और अपनी राजनीति की छवि को बनाए रखना, जमाए रखना और जोर-शोर से कहते रहना जरूरी बन गया है. इसीलिए इन दिनों हर महत्वाकांक्षी दल में, नेता के दिल में मीडिया पर सवार रहने की छटपटाहट बनी रहती है और इस तरह मीडिया में बने रहना प्रमुख हो जाता है. जमीन पर क्या हो रहा है, इसे देखने, सुनने, समझने का होश गायब हो जाता है.

अगर हम आज मोदी सरकार के कामों को देखें तो उनकी लिस्ट बड़ी लंबी है, आकषर्क है. लेकिन अगर जमीनी हकीकत में देखें तो उनके काम जनता को कितने फील होते हैं? इसी तरह केजरीवाल का कहना कि हमने ये कर दिया, वो कर दिया; तब यकीन करने लायक हो सकता है जब दिल्ली की जनता को सीधे महसूस होने लगे और यही नहीं होता. जनता फिर भी असंतुष्ट दिखती है.

जाहिर है कि आप विज्ञापन से मनोरंजन तो कर सकते हैं, कुछ देर मोहित कर सकते हैं कि सब ठीकठाक है. लेकिन यह तभी मालूम होता है जब आपके पास-पड़ोस के लोगों के चेहरे खुश नजर आएं. विज्ञापन की दुनिया में  चकाचक दिखे और जीवन में चकाचक न दिखे, तो जनता का असंतोष और बढ़ जाता है. मीडिया या बातों से पेट नहीं भरा करते, काम से भरते हैं और जब काम से ज्यादा बातें होने लगें तो फिर भगवान ही बेली है! इसलिए हमारा निवेदन है कि दल काम करें, फील कराए, न कि कहते रहे कि हमने ये किया वो किया. गाल बजाने वालों का कोई यकीन नहीं करता और तय मानिए अगली बार नहीं करेगा.

सुधीश पचौरी
लेखक


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