यूनान के संकट में छिपे सबक

Last Updated 03 Jul 2015 04:37:21 AM IST

पश्चिमी सभ्यता का पालना माना जाने वाला ग्रीस, जो बाकायदा विकसित दुनिया का हिस्सा ही नहीं है.


यूनान के संकट में छिपे सबक

बल्कि यूरोप के आर्थिक एकीकरण के लिए बने यूरोपीय यूनियन तथा एकीकृत यूरो बाजार का भी हिस्सा है, जून के आखिरी दिन कम से कम विकसित दुनिया में ऐसा पहला देश बन गया जो निर्धारित तिथि पर अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के 1.5 अरब यूरो के ऋण का भुगतान नहीं कर पाया. याद रहे कि एक कर्जदार के रूप में यह एक संप्रभु विकसित देश के डिफाल्टर हो जाने भर का मामला नहीं है. जैसा कि सभी जानते हैं कि ग्रीस के इस संकट का सीधा रिश्ता 2008 के विश्व वित्तीय संकट से निकले उस अंतरराष्ट्रीय आर्थिक संकट से है, जिसकी आंच देर से ही सही, चीन तथा भारत जैसी तेजी से विकास कर रही ‘उदीयमान’ अर्थव्यवस्थाओं तक भी पहुंची है और विकसित दुनिया में तथा सबसे बढ़कर यूरोप में तो यह संकट जैसे घुटने तोड़कर ही बैठा हुआ था. इसी संकट से निकालने के नाम पर अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष तथा विश्व बैंक की अगुआई में दुनियाभर के लिए ‘ऑस्टेरिटी’ यानी कटौतियों का नुस्खा पेश किया गया था. यूरोप में, जहां मजदूरी तथा सामाजिक सुरक्षा की स्थिति कहीं बेहतर थी, इन कटौतियों की मार और भी भारी तथा प्रत्यक्ष थी.

बेशक, किसी प्रत्यक्ष राजनीतिक चुनौती के अभाव में अंतरराष्ट्रीय वित्त का कटौतियों का नुस्खा कमोबेश सफलता के साथ थोप भी दिया. लेकिन यूरोप के अनेक देशों और खासतौर पर ऐसे देशों में जहां अब भी मजदूर आंदोलन में दम है, इन कटौतियों के खिलाफ इसी दौर में जबर्दस्त लड़ाइयां भी हुई हैं. ग्रीस, स्पेन, फ्रांस आदि में इन कटौतियों के खिलाफ खासतौर पर बड़ी विरोधी कार्रवाइयां हुई हैं. अंतरराष्ट्रीय वित्तीय पूंजी द्वारा थोपे गए इस नुस्खे के खिलाफ, जो बुनियादी तौर पर मेहनत की कमाई खाने वालों के हाथों से संसाधन छीनकर पूंजी के हवाले करने का ही काम करता है, बढ़ते जनविरोध के क्रम में नई-पुरानी राजनीतिक ताकतों से मिलकर कुछ राजनीतिक मंच भी उभरे हैं. जाहिर है, राजनीतिक विकल्प के रूप ग्रहण करने की इस प्रक्रिया को इस ठोस सचाई से और बल मिला है कि अंतरराष्ट्रीय वित्तीय पूंजी का यह नुस्खा बड़ी पूंजी के मुनाफों की रक्षा करने में तो सफल रहा है, पर आर्थिक संकट से उबारने में पूरी तरह से विफल ही रहा है.

अचरज की बात नहीं है कि ग्रीस में, जहां कटौतियों के हमले का विरोध बहुत ही जबर्दस्त था, जब पांच साल तक अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं से ऋण लेने और ऋणों के साथ थोपी गई कटौतियां तेज करने की शर्तों के लागू किए जाने के बावजूद संकट के थमने के दूर-दूर तक कोई आसार नजर नहीं आए, तो इसी जनवरी के आखिरी सप्ताह में हुए आम चुनाव में, ग्रीस की जनता ने परंपरागत रूप से सत्ता में रही पार्टियों को ठुकारते हुए सिरिजा के हाथ में सत्ता सौंप दी. अंतरराष्ट्रीय ऋणदाताओं द्वारा थोपी जा रही इन ‘कटौतियों’ से मुक्ति दिलाने के वादे के आधार पर सिरिजा के पक्ष में यह जनादेश कोई अचानक उठी तरंग का मामला भी नहीं था. वास्तव में इससे चंद महीने पहले हुए आम चुनाव में भी सिरिजा ही सबसे बड़ी पार्टी बनकर सामने आई थी, लेकिन अन्य ताकतों का समर्थन न मिल पाने के चलते वह सरकार नहीं बना पाई थी. जनवरी में दोबारा हुए आम चुनाव में ग्रीस की जनता ने और जोरदार तरीके से, नवउदारवादी नुस्खे को ठुकराने के अपने फैसले को दोहराया था.

इस सिलसिले में यह भी गौरतलब है कि सिरिजा का रुख, ग्रीस की राजनीतिक पार्टियों में भी कोई सबसे रैडीकल रुख नहीं है. वास्तव में ग्रीस की कम्युनिस्ट पार्टी तो इस आधार पर सिरिजा की आलोचना भी करती आई है कि वह यूरोपीय यूनियन के दायरे में रहकर ग्रीस के संकट का समाधान निकालने की झूठी उम्मीद पाले है और जनता को भ्रमित कर रही है. यूरोपीय यूनियन के आर्थिक ढांचे से नाता तोड़े बिना ऋणदाताओं द्वारा थोपी जा रही कटौतियों से मुक्ति नहीं पाई जा सकती है. दुर्भाग्य से यूरोपीय केंद्रीय बैंक, यूरोपीय काउंसिल तथा अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष की तिकड़ी को पांच महीने की कड़ी सौदेबाजी के बाद भी, कटौतियों से मुक्त बेलआउट का सिरिजा सरकार का कोई प्रस्ताव मंजूर नहीं हुआ. यूरोप की सबसे बड़ी आर्थिक ताकत जर्मनी के दबाव में इन शर्तों पर ही ऋण लेने का अल्टीमेटम दिए जाने के बाद ही प्रधानमंत्री सिप्रास को इन शर्तों पर ऋण लेने के सवाल पर जनमत संग्रह कराने की घोषणा करनी पड़ी है. सिरिजा समेत तमाम वामपंथी तथा जनतंत्रकामी ताकतों ने ग्रीस की जनता से ऋणदाताओं की शर्तों के खिलाफ वोट करने की अपील की है. बहरहाल, रविवार के जनमत संग्रह में फैसला कुछ भी हो, इस पूरे प्रकरण से इतना तो साफ हो भी चुका है कि मेहनतकश जनता को और निचोड़कर पूंजी के मुनाफे सुरक्षित करने पर टिकी अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष-विश्व बैंक संचालित नवउदारवादी नीतियां पूंजीवादी संकट को हल करने के बजाए और बढ़ा रही हैं. ग्रीस के यूरोपीय यूनियन में रहने-न रहने को लेकर गंभीर और वास्तविक आशंकाएं पैदा हो जाना, जाहिर है, इस संकट के बहुत बढ़ने का ही संकेत है.

वास्तव में रघुराम राजन ने पिछले दिनों विदेश में अपने एक व्याख्यान में ठीक इसी सचाई को रेखांकित किया था कि फंड-बैंक नुस्खे द्वारा विश्व अर्थव्यवस्था को जिस रास्ते पर धकेला जा रहा है, वह रास्ता संकट से निकालेगा नहीं, उल्टे संकट और बढ़ा देगा. इस सिलसिले में उन्होंने सारे संकोच को ताक पर रखकर पहली बार 1930 के दशक की महामंदी के दुहराए जाने के खतरे का नाम ले दिया. बेशक, जैसा कि बाद में रिजर्व बैंक के स्पष्टीकरण में बताया गया, राजन का मकसद दहशत फैलाना नहीं था. उनका मकसद तो सिर्फ इसकी ओर ध्यान खींचना था कि अगर बड़ी आर्थिक ताकतें आर्थिक गतिविधियां बढ़ाने तथा वहनीय आधार पर इन गतिविधियों को बढ़ाने के लिए मेहनत की कमाई खाने वालों के हाथों में क्रय शक्ति बढ़ाने के लिए मिलकर प्रयास नहीं करेंगी और विश्व वित्तीय पूंजी को लुभाने के लिए आपस में होड़ कर के रियायतें देने के जरिए, अपने संकट का बोझ एक-दूसरे पर खिसकाने की ही कोशिश करती रहेंगी, तो सब की सब महामंदी के गड्ढे में जा पड़ेंगी. ग्रीस के संकट ने वास्तव में राजन की इस चेतावनी की पुष्टि भी कर दी है.

बहरहाल, मौजूदा शासन अगर देश के केंद्रीय बैंक के मुखिया की इस चेतावनी की ओर पीठ करना चाहता है, तो इसीलिए कि इसमें मौजूदा शासन की नीतिगत दिशा की सीमाओं की ओर भी इशारा है. ऊंची वृद्धि दर की पटरी पर देश को दोबारा ले जाने के सारे दावों के बावजूद, रोजगार और माल उत्पादन में वृद्धि निराशाजनक बनी हुई है. बुनियादी ढांचे में निवेश में जबर्दस्त बढ़ोत्तरी के जरिए, रोजगार मुहैया करा जनता के हाथों में क्रय शक्ति बढ़ाने तथा इस तरह घरेलू बाजार को बढ़ाने के जरिए इस स्थिति को बदला तो जा सकता है; लेकिन विदेशी निवेशों को ललचाने पर टिकी नीतियां इसकी गुंजाइश ही नहीं छोड़ती हैं. उधर विदेशी बाजार सिकुड़ रहे हैं. इन हालात में देसी-विदेशी पूंजी को कितनी ही रियायतें क्यों न दी जाएं, अर्थव्यवस्था का उछाल लेना मुश्किल है. याद रहे कि राजन ने पहले भी ‘मेक इन इंडिया’ के बहुत भरोसे न रहने और पहले ‘मेक फॉर इंडिया’ के लिए जमीन बनाने की जरूरत पर जोर दिया था. एक प्रकार से उन्होंने अपने इस परामर्श को यह इशारा कर और आगे बढ़ाया है कि मौजूदा रास्ता खतरे की ओर जाता है. राजन के परामर्श और ग्रीस के अनुभव के बाद ही सही, क्या सरकार अब भी खतरे की घंटी सुनेगी!

राजेंद्र शर्मा
लेखक


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