कठिन सवालों से गुजरेगा दूसरा साल

Last Updated 31 May 2015 01:35:15 AM IST

भारतीय राजनीति में युवा और मध्यवर्ग महत्वपूर्ण किरदार बन गए हैं. यह मतदाता वर्ग राजनीति की दिशा तय कर रहा है.


कठिन सवालों से गुजरेगा दूसरा साल

केंद्र में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी को अभूतपूर्व चुनावी सफलता दिलाने में इस मतदाता वर्ग की अहम भूमिका रही है. उनकी भावनाओं को उभारकर ही नरेंद्र मोदी को अविस्मरणीय चुनावी सफलता मिली है. इसलिए उनके समक्ष इस मतदाता वर्ग को साधने की बड़ी चुनौती भी है जिससे पार पाना रोजगार, आर्थिक विकास और महंगाई पर नियंत्रण के जरिए ही संभव है. किंतु यह सहज नहीं है. प्रधानमंत्री मोदी की असल अग्निपरीक्षा कार्यकाल के दूसरे वर्ष में शुरू होगी. उन्हें और उनकी सरकार के लिए अब अपने कहे पर अमल करके दिखाने का समय शुरू हो गया है.

अभूतपूर्व बहुमत की सरकारों के समक्ष खतरे भी बड़े होते हैं. बड़ा खतरा आमजन के बीच किए गए उन चुनावी वायदों को निभाने का होता है, जिनके सहारे सत्ता हासिल की जाती है. मोदी सरकार के साथ भी ऐसा ही है. अच्छे दिन आने के नारे और बेपनाह वायदों के चलते आमजन की अपेक्षाएं आसमान छू रही हैं. लोग अपने सपनों को पंख लगने के इंतजार में हैं. वैसे भाजपा सरकार अपने पहले साल में ही अपनी एक चूक (भूमि अधिग्रहण बिल) के कारण किसानों और गांव से कट गई है, जबकि किसान उसके वोट बैंक का मजबूत हिस्सा बन गया था जो नरेंद्र मोदी की छवि और लोकलुभावन सपना दिखाने के कारण साथ था.

किंतु सरकार के एक साल के इस कार्यकाल में जाने-अनजाने उसकी छवि कारपोरेट घरानों का हितैषी होने की बन गई है. फलत: किसान और आमजन बड़ी दुविधा में हैं. ऐसे में इस मतदाता वर्ग को साधने की बड़ी चुनौती मुंह बाए खड़ी है क्योंकि इस तरह का मतदाता भावनाओं के आवेग का शिकार होता है. इसलिए उसका मोहभंग भी तेजी से होता है. वह चुनावी वायदों को हकीकत में बदलते देखना चाहता है ताकि उसके सपने जमीन पर उतर सकें. पिछले एक दशक में देश में मध्यवर्ग तेजी से उभरा है जिसकी सोच में रोटी, कपड़ा और मकान का जुगाड़ ही अहम होता है.

उसकी कोई भी चर्चा इसके बिना पूरी नहीं होती. ऐसे में महंगाई उसकी बड़ी दुश्चिंता होती है, क्योंकि देश के लगभग दस प्रतिशत लोग ही स्थायी वेतनभोगी हैं और खासकर आमजन अपनी कमाई का लगभग पचास से अधिक हिस्सा खाने पर खर्च करता है. वैसे सरकार थोक महंगाई दर के शून्य होने का दावा कर रही है, लेकिन पेट्रो उत्पादों की कीमतों में जिस तरह वृद्धि हो रही है उसे देखते हुए महंगाई की आग बढ़ने से रोकना आसान नहीं होगा. यद्यपि सरकार ने कीमतों में तेज वृद्धि को रोकने के लिए 500 करोड़ रुपए का ‘प्राइस स्टेबलाइजेशन’ फंड जरूर बनाया है, लेकिन यह नाकाफी है. फुटकर महंगाई में कोई सुधार नहीं है जो आमजन के जीवन को बुरी तरह प्रभावित कर रही है.

रबी की फसल के खराब होने का भी असर उपभोक्ता वस्तुओं पर दिखने लगा है और अब सर्विस टैक्स में दो प्रतिशत की बढ़ोत्तरी महंगाई की आग को और भड़काने वाली है. यदि मानसून ने धोखा दिया तो सरकार की मुश्किलें और बढ़ जाएंगी, क्योंकि महंगाई से परेशान होकर ही जनता ने कांग्रेस को सत्ताच्युत किया था. यदि अब भी लोगों को इस सरकार से राहत नहीं मिली तो उन्हें बड़ी निराशा होगी. उन्हें यकीन हो जाएगा कि इस सरकार के पास भी जीवन जीने की लागत को कमतर करने की कारगर सूझ नहीं है, जैसा कि वह आम चुनाव में महंगाई कम करने को लेकर ढोल पीट रही थी.

यही नहीं, देश का लगभग दस करोड़ युवा रोजगार के इंतजार में है, जबकि हर साल एक करोड़ बीस लाख लोग रोजगार के लिए तैयार हो रहे हैं. देश के प्रमुख औद्योगिक सेक्टरों में रोजगार सृजन की स्थिति अपने सबसे निचले पायदान पर है. ऐसा इसलिए भी है कि रियल स्टेट, रिटेल और ट्रांसपोर्ट सेक्टरों में मंदी है. इन्हीं क्षेत्रों में ज्यादा नौकरियां पैदा होती हैं. रियल स्टेट पिछले कुछ वर्षों से गिरा हुआ है, रिटेल बाजार को सरकार खोलना नहीं चाहती, जबकि ट्रांसपोर्ट इन्हीं दोनों सेक्टरों पर निर्भर है. ऐसा नहीं है कि सरकार रोजगार के घटते अवसरों को लेकर फिक्रमंद नहीं है. उसे यह भय सताने लगा है कि यदि रोजगार के अवसर नहीं बढ़े तो युवाओं को बांधे रखना मुश्किल होगा. इसीलिए सरकार ने छोटे, मझोले और सूक्ष्म उद्योगों में रोजगार के अवसर बढ़ाने के लिए ‘मुद्रा बैंक’ की स्थापना की है.

हालांकि मुद्रा बैंक ने रिजर्व बैंक से बीस हजार करोड़ की मांग की थी, किंतु रिजर्व बैंक ने इसके लिए महज पांच हजार करोड़ रुपए ही उपलब्ध कराए हैं. इस बैंक के माध्यम से मटकी बनाने वाले, चाय-पान बेचने वाले, पतंग बनाने वाले, पंचर जोड़ने वाले तथा पंसारियों जैसे छोटे कारोबारियों को सस्ते दर पर ऋण उपलब्ध कराया जाना है ताकि इन क्षेत्रों में भी रोजगार पैदा हो सके. वैसे प्रधानमंत्री मोदी इन क्षेत्रों में ज्यादा रोजगार के अवसर पैदा होने की पहले ही वकालत कर चुके हैं. देखना होगा कि अपनी इस कोशिश और ‘मेक इन इंडिया’ के सहारे वे कितनी नौकरियां पैदा करने में सफल होते हैं. इसी पर युवाओं के बीच उनकी लोकप्रियता का ग्राफ तय होने वाला है.

इसके इतर अर्थव्यवस्था के फ्रंट पर जरूर उत्साहजनक प्रगति हुई है. चालू खाते के घाटे पर अंकुश लगता दिख रहा है. किंतु विदेशी निवेश उम्मीद के मुताबिक नहीं हो रहा है. निर्यात में भी गिरावट आई है. डालर के मुकाबले रुपया काफी गिरा हुआ है, जबकि मानसून डरा रहा है. इसलिए ग्लोबल एजेंसियों द्वारा भारत की ग्रोथ के लक्ष्य को घटाने का खतरा है. ऐसे में अर्थव्यवस्था को गतिमान बनाए रखने की चुनौती से भी सरकार को दो-चार होना है, जिसकी डगर कठिन दिखती है.

वर्ष 2010 में यूपीए सरकार के एक साल पूरा होने पर तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की भी अपराजेय स्थिति थी. उन्होंने सौ दिन में महंगाई कम करने का वायदा किया था. कांग्रेस के लोकलुभावन नारों और मनमोहन की ईमानदार छवि के कारण ही शहरी मध्यवर्ग पहली बार उनके साथ खड़ा था. किंतु महंगाई रोकने, रोजगार के अवसर बढ़ाने में विफलता, खस्ताहाल अर्थव्यवस्था के अलावा घोटालों की काली छाया ने मनमोहन सिंह को अलोकप्रिय व असफल प्रधानमंत्री बना दिया.

मोदी सरकार के सामने भी इससे मिलती-जुलती समस्याएं और चुनौतियां हैं. हालांकि उनके पक्ष में एक अहम कारक यह है कि उनकी सरकार स्पष्ट बहुमत के मजबूत आधार पर खड़ी है. लगभग तीस साल बाद किसी प्रधानमंत्री को यह अवसर मिला है. इसलिए उन्हें फैसले लेने में किसी की इजाजत की जरूरत नहीं है. इस स्थिति का लाभ उठाते हुए प्रधानमंत्री मनमाफिक दिशा में बढ़ रहे हैं, किंतु उन्हें अपनी छाप छोड़ने और जनता की उम्मीदों पर खरा उतरने में कितनी सफलता मिलती है, यह बड़ा सवाल है. उनके दूसरे साल का मूल्यांकन इसी आधार पर होना है.
 ranvijay_singh1960@yahoo.com

रणविजय सिंह
समूह सम्पादक, राष्ट्रीय सहारा दैनिक


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