प्रगति का भ्रामक अस्त्र है आरक्षण

Last Updated 26 May 2015 12:52:09 AM IST

राजस्थान सरकार की बेरुखी से आजिज गुर्जर समुदाय आरक्षण की अपनी पुरानी मांग को लेकर फिर पटरी पर है.


प्रगति का भ्रामक अस्त्र है आरक्षण

आरक्षण की रूढ़ हो चुकी परिपाटी आगे बढ़ाने की जिम्मेदारी ‘गुर्जर आरक्षण आंदोलन समिति’ के संयोजक कर्नल किरोड़ी सिंह बैसला निभा रहे हैं. इन्हीं के नेतृत्व में 23 मई 2008 से 17 जून 2008 तक आरक्षण आंदोलन परवान चढ़ा था. तब आंदोलन ने जबरदस्त हिंसा का रूप ले लिया था. नतीजतन एक पुलिसकर्मी और 15 गुर्जर मारे गए थे, लेकिन नतीजा शून्य रहा. गौरतलब है कि गुर्जर पांच प्रतिशत आरक्षण की मांग को लेकर संघर्षत हैं. उनका तर्क है कि जब वसुंधरा राजे सरकार जाट समुदाय को एक दिन में आरक्षण दे सकती है तो गुर्जरों को क्यों नहीं? गुर्जरों का तर्क अपनी जगह वाजिब हो सकता है, लेकिन हकीकत यह है कि जब आरक्षण इस तरह की रूढ़ परिपाटी बनकर रह गया है, तो इसका वास्तविक लाभ उन वंचित व जरूतमंदों को नहीं मिल पा रहा है, जो वास्तव में इसके हकदार हैं.

आर्थिक रूप से सक्षम व दबंग जातीय समूहों में आरक्षण की बढ़ती महत्वाकांक्षा अब आरक्षण की राजनीति को महज पारंपरिक र्ढे पर ले जाने का काम कर रही है. नैतिक रूप से एक समय आरक्षण का विरोध करने वाली, प्रतिष्ठित व संपन्न जातियां भी धीरे-धीरे आरक्षण के पक्ष में आती दिख रही हैं. जाट जाति को जब राजस्थान और उत्तर प्रदेश में पिछड़े वर्ग की आरक्षण सूची में शामिल कर लिया गया था, तब उसका अनुसरण 2008 में गुर्जरों ने राजस्थान में किया था. तब  राजस्थान की वसुंधरा सरकार ने हिंसक हो उठे आंदोलन को शांत करने की दृष्टि से पिछड़ा वर्ग के कोटे में गुर्जरों को पांच प्रतिशत अतिरिक्त आरक्षण देने का प्रावधान कर दिया था.

किंतु आरक्षण का यह लाभ सर्वोच्च न्यायालय द्वारा आरक्षण की निर्धारित सीमा से अधिक था. इस आधार पर राज्य सरकार के इस फैसले को राजस्थान उच्च न्यायालय में चुनौती दी गई और अदालत ने आदेश पर रोक लगा दी. फिलहाल मामला विचाराधीन है. इसलिए सरकार ने मुद्दे से दूरी बनाते हुए साफ कह दिया है कि मामला हाईकोर्ट में लंबित है और हल न्यायालय से ही निकलेगा. सरकार के इस दो टूक उत्तर से खफा गुर्जर समुदाय ने शुक्रवार को लाखों लीटर दूध सड़कों पर बहा गुस्सा जताया. कोई नतीजा न निकलने के कारण आंदोलन का विस्तार पूरे राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में दिखने लगा है. आंदोलन पर नियंत्रण नहीं किया गया तो इसके हिंसक होने का खतरा है.

आरक्षण के कमोवेश ऐसे ही संकट से महाराष्ट्र सरकार दो चार हो रही है. यहां की सत्ताच्युत कांग्रेस और राकांपा गठबंधन ने विधानसभा चुनाव के ऐन पहले वोट-बटोरने की दृष्टि से मराठों को 16 और मुसलमानों को पांच  फीसद आरक्षण दे दिया था. इसे तत्काल प्रभाव से शिक्षा के साथ सरकारी व गैर-सरकारी नौकरियों में भी लागू कर दिया गया था. इसके लागू होते ही महाराष्ट्र में आरक्षण की सीमा 52 प्रतिशत से बढ़कर 73 फीसद हो गई थी. यह व्यवस्था भी संविधान के उस बुनियादी सिद्धांत के विरुद्ध थी, जिसके अनुसार 50 फीसद से ज्यादा आरक्षण का लाभ नहीं दिया जा सकता है.

इसे लागू करते समय सरकार ने चतुराई बरतते हुए ‘मराठी उपराष्ट्रीयता’ का एक विशेष प्रवर्ग बनाया था. किंतु ये उपाय संविधान की कसौटी पर खरे नहीं उतरते हैं, क्योंकि संविधान में धर्म और उपराष्ट्रीयताओं के आधार पर आरक्षण का प्रावधान नहीं है. गोया यह मामला भी महाराष्ट्र उच्च न्यायालय में लटका है. वैसे मौजूदा परिदृश्य में गुर्जर, जाट व मराठा समुदाय ऐसे बदहाल नहीं हैं कि उन्हें उद्धार के लिए आरक्षण की जरूरत हो. राजस्थान, हरियाणा, उत्तरी उत्तर प्रदेश में तो ये जाति समुदाय राजनीतिक ही नहीं, बल्कि आर्थिक, सामाजिक व शैक्षिक नजरिए से भी उच्च व धनी हैं. महाराष्ट्र में यही स्थिति मराठों की है. सत्तर के दशक में हरित क्रांति ने भी इन्हीं के पौ-बारह किए. लिहाजा ये हर स्तर पर सक्षम हैं.

हालांकि संवैधानिक स्वरूप के अनुसार आरक्षण की सीमा 50 फीसद से ऊपर नहीं ले जायी सकती है. बावजूद यदि गुर्जरों को आरक्षण मिलता है तो यह वंचितों व जरूरतमंदों की हकमारी होगी. आरक्षण के दायरे में नई जातियों को शामिल करने की भी सीमाएं सुनिश्चित हैं. कई संवैधानिक अड़चनें हैं. किस जाति को पिछड़े वर्ग में शामिल किया जाए, किसे अनुसूचित जाति में और किसे अनुसूचित जनजाति में-संविधान में इसकी परिभाषित कसौटियां हैं. इन पर किसी जाति विशेष को जब आर्थिक व सामाजिक रूप से दरिद्रता पेश आती है, तब कहीं उस जाति के लिए आरक्षण की खिड़की खुलने की संभावना बनती है. इसके बाद राष्ट्रपति का अनुमोदन भी जरूरी होता है.

हालात यह हैं कि आरक्षण का अतिवाद अब हमारे राजनीतिकों में वैचारिक पिछड़ापन बढ़ाने का काम कर रहा है. नतीजतन रोजगार व उत्पाद के नए अवसर पैदा करने के बजाय, हमारे नेता नई जातियां व उप-जातियां खोज कर उन्हें आरक्षण के लिए उकसाने का काम कर रहे हैं. यही वजह थी कि मायावती ने तो उत्तर प्रदेश में ब्राह्मणों तक को आरक्षण देने का शगूफा छोड़ दिया था. आरक्षण के टोटके छोड़ने की बजाय सत्तारूढ़ नेता रोजगार के अवसर उपलब्ध नौकरियों में ही तलाशने की शुरुआत करें तो बेरोजगारी दूर होने के कारगर परिणाम निकलें! इस नजरिए से सेवानिवृत्तों के सेवा विस्तार व प्रतिनियुक्तियों पर प्रतिबंध लगाया जाए.

यह बात प्रावधान में सख्ती से लागू हो कि जिस किसी व्यक्ति को एक बार आरक्षण का लाभ मिल चुका है, उसकी संतान को इस सुविधा से वंचित किया जाए. क्योंकि एक बार आरक्षण का लाभ मिलने के बाद जब परिवार आर्थिक रूप से संपन्न हो चुका है तो उसे खुली प्रतियोगिता की चुनौती मंजूर करनी चाहिए ताकि उसी जाति के अन्य जरूरतमंद युवाओं को आरक्षण का लाभ मिल सके. इससे नागरिक समाज में सामाजिक समरसता का निर्माण होगा, नतीजतन आर्थिक बदहाली के चलते जो शिक्षित बेरोजगार कुंठित हो रहे हैं, वे कुंठामुक्त होंगे.

जातीय समुदायों को यदि हम आरक्षण के बहाने संजीवनी देते रहे तो न जातीय चक्र टूटने वाला है और न किसी एक समुदाय का समग्र उत्थान अथवा कल्याण होने वाला है. स्वतंत्र भारत में बाह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और कायस्थों को निर्विवाद रूप से सबसे ज्यादा सरकारी व निजी क्षेत्रों में नौकरी के अवसर मिले लेकिन क्या इन जातियों से जुड़े समाजों की समग्र रूप में दरिद्रता दूर हुई ? यही स्थिति अनुसूचित जाति व जनजातियों की है. दरअसल आरक्षण को सामाजिक असमानता खत्म करने का अस्त्र बनाने की जरूरत थी, लेकिन हमने इसे भ्रामक प्रगति का साध्य मान लिया है. नौकरी के वही साधन सर्वग्राही व सर्वमंगलकारी होंगे जो खुली प्रतियोगिता के भागीदार बनेंगे. अन्यथा आरक्षण के कोटे में आरक्षण थोपने के उपाय जातिगत प्रतिद्वंद्विता को ही बढ़ाने का काम करेंगे.

प्रमोद भार्गव
लेखक


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