नदियों को जोड़ने में कब तक हिचकेंगे

Last Updated 25 May 2015 05:16:03 AM IST

मौजूदा समय में मौसम के बदलते मिजाज के कारण बाढ़ और सूखा की लगातार पुनरावृत्ति हो रही है.


नदियों को जोड़ने में कब तक हिचकेंगे

नदियों को आपस में जोड़कर इस समस्या का समाधान निकाला जा सकता है, लेकिन इस दिशा में अब तक ठोस कदम उठाया नहीं जा सका है. नदियों को जोड़कर खाद्यान्न संकट, सिंचाई के रकबे में इजाफा, बिजली की कमी आदि को दूर किया किया जा सकता है. बिहार में बूढ़ी गंडक, नोन, बाया और गंगा नदी को आपस में जोड़ने की योजना है. कहा जा रहा है कि परियोजना के पूरा होने पर समस्तीपुर, बेगूसराय और खगड़िया जिलों को बाढ़ एवं सूखे से निजात दिलाई जा सकती है. उम्मीद है कि इस योजना को अमलीजामा पहनाकर ढाई लाख एकड़ क्षेत्र की सिंचाई की जा सकेगी. पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने भी बिहार को सूखे और बाढ़ से बचाने के लिए बिहार की नदियों को आपस में जोड़ने की वकालत की है.

गौरतलब है कि चीन ने नदियों को जोड़ने का काम शुरू कर दिया है. नदियों का रुख सूखे क्षेत्र की तरफ मोड़ने के लिए यांग्त्जे और पीली नदी को जोड़ने की परियोजना के पहले चरण की शुरुआत कर दी गई है. इस परियोजना के पूरा होने के बाद यांग्त्जे नदी से लगभग डेढ़ अरब घनमीटर पानी को शांदोंग प्रांत भेजा जाएगा. फिलहाल यह प्रांत पानी की भारी किल्लत का सामना कर रहा है. 

भारत में नदियों को जोड़ने की संकल्पना अब भी अपने प्रारंभिक चरण में है. सबसे पहले 1972 में 2640 किमी लंबी नहर के माध्यम से गंगा और कावेरी को जोड़ने का प्रस्ताव तत्कालीन सिंचाई मंत्री केएल राव ने रखा था. देश में नदियों को जोड़ने की दिशा में पहली पहल आर्थर कॉटन ने की. बीसवीं शताब्दी के आरंभिक चरण में आर्थर कॉटन देश में बहने वाली सभी नदियों को आपस में जोड़ना चाहते थे, लेकिन उनका मकसद कृषि क्षेत्र को विकसित करना या प्रदेशों को बाढ़ और सूखे से बचाना नहीं था. वे नदियों को जोड़कर भारत पर अंग्रेजों की पकड़ को मजबूत बनाना चाहते थे.

बहरहाल, 1982 में नेशनल वाटर डेवलपमेंट एजेंसी (एनडब्लूडीए) का गठन किया गया, जिसका काम था नदी को आपस में जोड़ने से संबंधित परियोजनाओं की सफलता की संभावनाओं को तलाशना एवं अमलीजामा पहनाना. इसके तहत पहले चरण में हिमालय से निकलने वाली उत्तर भारत और दक्षिण भारत की पेनिनसुलर नदियों को आपस में नहर के माध्यम से जोड़ना था. इस आलोक में उत्तरी भारत में बांधों एवं नहरों की श्रृंखला के द्वारा गंगा, ब्रह्मपुत्र, महानदी आदि की सहायता से प्रारंभिक चरण में 2.2 लाख वर्ग किमी क्षेत्र में सिंचाई एवं 30 गीगाबाइट बिजली उत्पादन करने जैसे कायरे को मूर्त रूप देने की परिकल्पना की गई थी. दक्षिण भारत की पेनिनसुलर नदियों में महानदी, कृष्णा, गोदावरी, कावेरी आदि को जोड़ने की बात कही गई.

दूसरे चरण में पश्चिम दिशा में मुंबई की तरफ बहने वाली नदियों और दक्षिण दिशा में तापी नदी को जोड़ने का प्रस्ताव था. तीसरे चरण में मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश के सूखाग्रस्त इलाकों में पानी उपलब्ध करवाने हेतु केन एवं चंबल नदी को जोड़ने की परिकल्पना की गई. पुन: पश्चिम दिशा की तरफ पश्चिमी घाट के किनारे से बहती हुई अरब सागर में मिलने वाली नदियों का मार्ग बदल कर 1.3 लाख वर्ग किमी क्षेत्र में सिंचाई करने एवं चार गीगाबाइट बिजली उत्पादन करने की योजना बनाई गई. लेकिन बाद में पैसे की कमी, पर्यावरण से जुड़ी समस्याओं, भूमि प्रयोग और वातावरण में होने वाले संभावित बदलाव, कृषि पर पड़ने वाले  नकारात्मक प्रभाव, बड़ी संख्या में संभावित विस्थापन की आशंका, भूमि अधिग्रहण आदि समस्याओं के कारण नदियों को जोड़ने का प्रस्ताव ठंडे बस्ते में डाल दिया गया.

अटल बिहारी वाजपेयी के शासनकाल में नदियों को आपस में जोड़ने की जरूरत पर फिर से बल दिया गया और इस दिशा में तेजी से कुछ काम भी हुआ, लेकिन वह किसी निष्कर्ष तक नहीं पहुंच सका. वाजपेयी सरकार का मानना था कि नदियों को आपस में जोड़ने से पूरे देश में व्याप्त जलसंकट और बाढ़ की समस्या से निजात पाया जा सकता है. वाजपेयी ने सुरेश प्रभु के अगुआई में एक टास्क फोर्स का गठन किया था, जिसके मुताबिक सभी नदियों को आपस में जोड़ने के बाद 160 मिलियन हेक्टेयर भूमि की अतिरिक्त सिंचाई की संभावना 2050 तक बढ़ जाएगी, जबकि सामान्य परिस्थिति में उक्त अविधि में महज 140 मिलियन हेक्टेयर भूमि की ही सिंचाई की जा सकती है. 

नदियों को आपस में जोड़ने वाली देश की प्रथम परियोजना का उद्घाटन नवम्बर 2012 में लालकृष्ण आडवाणी द्वारा मध्यप्रदेश के उज्जैन जिला के उज्जैनी गांव में किया गया था. इसके तहत नर्मदा और क्षिप्रा को आपस में जोड़ना था ताकि क्षिप्रा नदी का पुनरुद्धार किया जा सके. विदित हो कि क्षिप्रा नदी फिलहाल मरणासन्न अवस्था में है. उल्लेखनीय है कि 21वीं सदी के प्रथम दशक में नदियों को जोड़ने की दिशा में कुछ प्रस्ताव राज्यों की तरफ से आए, लेकिन उनमें मतैक्य नहीं था. उत्तर प्रदेश, केरल, पंजाब आदि राज्य इस तरह की परियोजना के खिलाफ थे, वहीं मध्य प्रदेश नदियों को जोड़ने का हिमायती था. मध्य प्रदेश के पास टीकमगढ़ जिला में धसान एवं जामनी नदी को बुंदेलखंड पैकेज के तहत आपस में जोड़ने का प्रस्ताव है. इस परियोजना की मदद से 1980 हेक्टेयर भूमि की सिंचाई करने एवं चंदेल काल की झीलों के पुनरु द्धार की योजना है.

एनडीए-एक के समय गंगा को ब्रह्मपुत्र, महानदी एवं गोदावरी से; गोदावरी को कृष्णा, पेन्नार तथा कावेरी से; नर्मदा को तापी से एवं युमना को साबरमती से जोड़ने की योजना थी. महाराष्ट्र और गुजरात के बीच दमन, गंगा एवं पिंजाल को भी आपस में जोड़ने का प्रस्ताव था, जिसे 2016 तक पूरा किया जाना था, जिस पर 5.6 लाख करोड़ रुपए की लागत आकलित की गई थी. हालांकि कई जानकारों का मानना है कि इस तरह की कोई भी योजनाएं व्यावहारिक नहीं हैं, क्योंकि इन्हें पूरा करने के क्रम में कभी भी समय-सीमा का ध्यान नहीं रखा जाता है. इससे परियोजना की लागत में इजाफा होता है और उनका पूरा होना असंभव हो जाता है. इस तरह की परियोजनाओं के लिए जमीन की काफी आवश्यकता होती है और भूमि अधिग्रहण आज भी एक गंभीर मसला है. इस संबंध में पर्यावरण में होने वाले परिवर्तन से भी इंकार नहीं किया जा सकता और आज पर्यावरण और लोक कल्याण ऐसे मुद्दे हैं जिनकी अनदेखी नहीं की जा सकती है. इसलिए नदियों को जोड़ने से संबंधित परियोजना का विवादास्पद होना लाजिमी है.

भारत में नदियों को जोड़ने की संकल्पना का साकार होना आसान नहीं है. चीन की आर्थिक स्थिति भारत से बेहतर है और वहां शासनतंत्र के कड़े रुख की वजह से पर्यावरण, विस्थापन एवं भूमि अधिग्रहण जैसे मुद्दों को सुलझाया जा सकता है, जबकि भारत में ऐसा करना संभव नहीं है. फिर भी जलसंकट, बाढ़, सूखा आदि समस्याओं से निपटने के लिए नदी को आपस में जोड़ना जरूरी है, क्योंकि आपदाओं से होने वाली जान-माल की क्षति नदियों को जोड़ने में होने वाले खर्च एवं विस्थापितों के दुख-दर्द से अधिक है. इस दृष्टिकोण से नदियों को आपस में जोड़ना एक सकारात्मक कदम हो सकता है. 

 

सतीश सिंह
लेखक


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