तेलंगाना सरकार का सकारात्मक फैसला
इस सप्ताह उर्दू प्रेस पर मोदी सरकार के एक वर्ष के परिणाम, दिल्ली में मुख्यमंत्री और उपराज्यपाल में रस्साकशी, राहुल गांधी की राजनीतिक सक्रियता, एक हीरा कंपनी द्वारा किसी मुस्लिम को नौकरी देने से इंकार पर विवाद सबसे ज्यादा छाए रहे.
मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव (फाइल फोटो) |
इनके अलावा, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की चीन, मंगोलिया और दक्षिण कोरिया की यात्राएं, महाराष्ट्र में बीफ मांस पर पाबंदी के खिलाफ दलित विरोध, तेलंगाना सरकार का उर्दू के लिए सकारात्मक फैसला, देश में बढ़ती अपराधिक घटनाएं और जयललिता की पुन: ताजपोशी जैसे मुद्दे ही अधिक छाए रहे और इन्हीं पर अधिकांश उर्दू अखबारों ने संपादकीय भी प्रकाशित किए हैं.
उर्दू दैनिक ‘सहाफत’ ने ‘बीफ पर पाबंदी के खिलाफ दलित विरोध प्रदर्शन’ शीषर्क के तहत अपने संपादकीय में लिखा है कि महाराष्ट्र में दलितों का एक संगठन, जो भाजपा सरकार का साथी है, बीफ के मांस पर लगाई गई पाबंदी के विरुद्ध खुलकर मैदान में आ गया है. इसका एक विशेष कारण यह भी हो सकता है कि दलित जातियों के लोग पशुओं के चमड़े के कारोबार में बड़े स्तर पर शामिल हैं. रिपब्लिकन पार्टी के नाम से दलितों के कई दल राज्य की सियासत में भाग लेते हैं. रामदास अठावले राज्यसभा के सदस्य हैं और इस नाम की एक पार्टी के प्रमुख हैं जो भाजपा की सरकार में सहयोगी है और इस दृष्टि से एनडीए का घटक है. बांद्रा में कलेक्टर कार्यालय के सामने अठावले के नेतृत्व में ‘बीफ’ के व्यापारियों का प्रदर्शन हुआ.
उर्दू दैनिक ‘राष्ट्रीय सहारा’ ने ‘तेलंगाना सरकार का सकारात्मक फैसला’ शीषर्क के तहत अपने संपादकीय में लिखा है कि तेलंगाना के मुख्यमंत्री चंद्रशेखर राव ने स्कूल और उच्च शिक्षा में उर्दू को प्रथम भाषा के रूप में इस्तेमाल करने के प्रस्ताव को स्वीकृति दे दी है. मुख्यमंत्री ने अपने इस निर्णय से साबित कर दिया है कि यदि नीयत सही हो तो जनता से किए गए वादों को अमलीजामा पहनाया जा सकता है. पिछले विधानसभा चुनाव के अवसर पर राव की पार्टी ने अल्पसंख्यकों के संबंध में कई वादे किए थे. उन्होंने उर्दू को वैधानिक स्थान देने की भी बात कही थी और अब अपनी सत्ता के लगभग एक वर्ष में उनके अनेक फैसले ऐसे हैं कि जो सेकुलर पार्टियों के लिए रास्ते की मशाल हो सकते हैं, बशत्रे कि वादों के संबंध में उनकी नीयत भी इसी प्रकार सही हो.
वास्तव में उर्दू को दूसरी सरकारी भाषा बनाने और उसे रोजी-रोटी से जोड़ने के संबंध में विभिन्न दलों की सरकारें वादे तो बहुत करती हैं, परंतु इन वादों पर अमल कम ही हुआ है. विशेष रूप से कांग्रेस की पूर्व केंद्र सरकारें और विभिन्न राज्यों में इस पार्टी की सरकारें उर्दू को उसका वैधानिक अधिकार देने का बार-बार वादा तो करती रही हैं, लेकिन इन वादों को किस हद तक पूरा किया जा सका, ये सबके सामने है. लोकसभा चुनावों से पहले केंद्र की मनमोहन सरकार ने उर्दू के संबंध में कई प्रशंसनीय फैसले लिए लेकिन इसके बावजूद उनके आशा अनुसार परिणाम नहीं निकले. दिल्ली की शीला सरकार ने उर्दू को दूसरी सरकारी भाषा बनाने की घोषणा की, लेकिन इसके बावजूद न तो उर्दूवालों को नए रोजगार के अवसर मिले और न उर्दू के विकास के लिए कोई बड़ा काम हुआ.
उर्दू दैनिक ‘इंकलाब’ ने अपने संपादकीय ‘कौन है शर्मिदा?’ में लिखा है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पिछले वर्ष टोक्यो की अपनी यात्रा के दौरान जापानी बादशाह को गीता पेश करने के अपने अमल पर रोशनी डालते हुए देश के धर्मनिरपेक्ष वर्ग को आलोचना का निशाना बनाया था और फिर बर्लिन में भी संस्कृत बनाम जर्मन विवाद को बहस का मुद्दा बनाते हुए सेकुलरिज्म और उस पर विश्वास रखने वालों की चुटकी ली थी. कनाडा में भी उन्होंने पूर्व सरकार को आड़े हाथों लेते हुए जो बात कही थी उसका तात्पर्य यह था कि उनकी सरकार को पिछली सरकार के कर्मो का खामियाजा भुगतना पड़ रहा है. अब उन्होंने यह कहते हुये एक नया विवाद खड़ा कर दिया है कि एक वर्ष पहले तक (जब तक उनकी सरकार सत्ता में नहीं आई थी) भारतीयों को यह कहते हुये शर्म आती थी कि वे भारतीय हैं. इस तरह का बयान उन्होंने चीन में भी दिया और दक्षिण कोरिया में भी. स्पष्ट है कि यह अपने ही देश को नीचा दिखाने की कोशिश है जो दुनिया के मानचित्र पर एक महत्वपूर्ण देश के रूप में सिर्फ पिछले एक वर्ष के दौरान स्वीकार नहीं किया गया बल्कि पिछले साठ पैंसठ वर्षो में अन्य देशों के जितने भी नेता इस धरती पर आए, सबने इस देश की प्रशंसा की.
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