इस जंग के पीछे की असलियत

Last Updated 24 May 2015 03:12:12 AM IST

आम आदमी पार्टी किसी कर्म के केंद्र में हो और कुरकुरे कांड न हों, यह संभव नहीं है.


नजीब जंग और अरविंद केजरीवाल (फाइल फोटो)

भविष्य में जनता इस पार्टी के कर्मकांडों को अपने अनुष्ठानों में बदलती है या इनसे ऊबकर फिर किसी पुराने खोल में जा घुसती है, यह देखने वाली बात होगी. फिलवक्त यह पार्टी और इसकी दिल्ली सरकार, दिल्ली के उपराज्यपाल से जंग लड़ रही है. यह जंग जितनी दुखद है, इस अभागे कथित लोकतंत्र के लिए जितनी अशुभ है, उतनी ही रोचक भी.

सरकार का मुख्यमंत्री जिस अधिकारी की नियुक्ति करता है, केंद्र सरकार का प्रतिनिधि उपराज्यपाल उसे तत्काल निरस्त कर देता है. और जब यह उपराज्यपाल किसी की नियुक्ति करता है तो मुख्यमंत्री उसे निरस्त कर देता है. शीषर्स्थ अधिकारी दनादन फेंटे जा रहे हैं- कुछ बिदक रहे हैं, कुछ खिसक रहे हैं तो कुछ अपनी कुव्वत के अनुसार जमने की कोशिश भी कर रहे हैं. जाहिर है कि कुछ को मुख्यमंत्री का समर्थन मिल रहा है तो कुछ को उपराज्यपाल का वरदहस्त. अब तक की स्थिति यह है कि महामहिम उपराज्यपाल ने चपरासी से लेकर सचिव तक की वे सारी नियुक्तियां रद्द कर दी हैं जो भारी बहुमत से चुने गये मुख्यमंत्री ने पिछले कुछ दिनों में की हैं. और डिक्टेटर की तरह काम करने वाला मुख्यमंत्री पिलपिले लोकतंत्र की पोली परंपराओं की दुहाई देता हुआ ‘रक्षामि, रक्षामि’ की रट लगा रहा है. यह अद्भुत दृश्यावली इस अद्भुत लोकतंत्र में ही संभव है.

वैसे अगर केंद्रीय ताकतें, उनके अभिकर्ता, उनके प्रवक्ता बिना किसी स्पष्ट और उजागर कारण के एक चुनी हुई सरकार के पीछे पड़ गये हैं और उसे पंगु बनाने की कोशिश कर रहे हैं तो एक बात तो निश्चित तौर पर कही जा सकती है कि यह चुनी हुई सरकार निहित स्वार्थो के विरुद्ध और वास्तविक जनता के हित में जरूर कुछ न कुछ अच्छा करने का इरादा बनाए हुए हैं. क्योंकि वास्तविक जनता के हित बड़ी-बड़ी कंपनियों और उनके राजनीतिक दलालों के हितों से सीधे-सीधे टकराते हैं. इसलिए ये बड़े-बड़े अप्रत्यक्ष सत्ताधारी किसी भी सूरत में किसी भी ऐसी सरकार को सफल नहीं होने दे सकते जो उनके इशारों पर नहीं चले, अपने चाल-चलन में इनके स्वार्थो का ध्यान न रखे या इनके द्वारा पोषित-पल्लवित हित साधक तंत्र को चोट पहुंचाने की कोशिश करें. लगता है दिल्ली सरकार कुछ ऐसा ही कर रही है.

दिल्ली के मुख्यमंत्री के विचार-व्यवहार में लाख कमियां-खामियां सही, उनकी पार्टी के नैतिक आचरण में लाख झोल सही, अपनों और परायों की नैतिकताओं को लेकर भले ही उनके दुहरे-तिहरे मापदंड सही, भले ही उन पर अन्य कथित लोकतांत्रिक, राजनीतिक दलों के आरोपों की अटूट बौछार सही, लेकिन इस सच्चाई से कैसे आंखें मूंदी जा सकती हैं कि दिल्ली की जनता का भरोसा सिर्फ उन्होंने जीता है, सरकार को चलाने का अधिकार जनता ने सिर्फ और सिर्फ उन्हें ही दिया है. अब तमाशा देखिए की जनता के बीच जाने, लोगों की समस्याओं और कठिनाइयों को सुनने-समझने, उन्हें उचित निराकरणों का आश्वासन देने और उनके हित में काम करने का वादा तो कोई और करे और जब वह वादे पर अमल करने की कोशिश करे तो इस कोशिश पर पांव कोई और रख दे.

यानी ऐसा व्यक्ति पांव रख दे जो न कभी जनता के बीच गया, न जिसने जनता को कभी सुना, न जिसने जनता से कभी कोई वादा किया और न जनता के प्रति जिसकी कोई प्रत्यक्ष जवाबदेही है. जनता कामकाज का हिसाब तो मुख्यमंत्री और उसकी टीम से मांगेगी, उस उपराज्यपाल ने नहीं जिससे जनता को कोई सीधा रिश्ता ही नहीं है. तब आखिर एक जवाबदेह मुख्यमंत्री की कार्यशैली में एक गैर जवाबदेह उपराज्यपाल के जुनूनी हस्तक्षेप का औचित्य क्या है? सिवाय किसी गलत इरादे के?

अगर कोई भीतरी कुटिल या कुत्सित इरादा नहीं है तब तो मामला बिल्कुल साफ है. अरे भाई, दिल्ली की जनता ने जिस सरकार को चुना है, ऐसे-वैसे नहीं एक विशालतम बहुमत से चुना है और अपने लिए कामकाज करने के लिए चुना है तो उस सरकार को जनता की अपेक्षाओं के सापेक्ष काम करने दीजिए न! यह मामला तो सीधे-सीधे दिल्ली की जनता और उसके द्वारा उत्साहपूर्वक अपने लिए लाई गई सरकार के बीच का है. अगर सरकार कुछ गड़बड़ करेगी तो उससे स्वयं जनता निपटेगी. अगर कोई दुष्परिणाम सरकार की वजह से सामने आता है या कुछ अनापेक्षित होता है तो इसका फैसला भी जनता को ही करने दीजिए. यह फैसला अपनी निष्क्रिय कुर्सी पर बैठकर करने वाले आप कौन होते हैं कि सरकार सही काम नहीं कर रही है. और इस सूत्र को छोटा बच्चा भी समझता है कि कोई भी सरकार अपना कामकाज अफसरशाही के जरिए ही करती है, इसलिए किसी भी चुनी हुई सरकार का यह विशेषाधिकार है कि वह अपनी अफसरशाही को अपने अनुसार चुने. जो उसके मंसूबों को उसकी नीतियों और निर्णयों के अनुसार क्रियान्वित करे. बड़े-बड़े विधि विशेषज्ञों की भी यही राय है. तब इस या उस लंगड़े बहाने से इस विशेषाधिकार में टांग अड़ाने का मंतव्य क्या है? क्या कोई भी लिखित नियम इस व्यावहारिक नियम से बड़ा है या बड़ा हो सकता है? और ऐसा भी नहीं है कि उपराज्यपाल को इस पक्ष का भान न हो और अगर उपराज्यपाल को ही शासन चलाना है तो फिर दिल्ली में चुनाव का नाटक क्यों?

मुख्यमंत्री-उपराज्यपाल जंग का एक ही ग्राह्य तर्क शेष रहता है कि हमारा यह लोकतंत्र वस्तुत: उतना पाक-साफ नहीं है जितना कि ऊपर से देखने-सुनने में प्रतीत होता है. जब कभी किसी घोटाले, किसी शत्रुता या किसी व्यावसायिक प्रतिस्पर्धा के चलते इस लोकतंत्र की कोई भीतरी परत उजागर होती है तो उसके तार किसी न किसी कंपनी या व्यावसायिक घराने से जुड़े पाये जाते हैं. सामान्य या गैर-घोटाला स्थितियों में भी विभिन्न समूहों के व्यावसायिक हित राजनीति या सरकारों की दशा-दिशा तय करते हैं. जब ऐसे व्यावसायिक हितों से कोई सरकार समझौता नहीं करती, यह कार्य आमतौर पर असंभव होता है, तो उस सरकार के पहिए किसी न किसी बहाने से जाम कर दिये जाते हैं. ये बहाने भी संविधान के नाम पर ही गढ़ जाते हैं, जैसे कि इस समय दिल्ली में गढ़े जा रहे हैं. दिल्ली का मौजूदा विवाद इस लोकतंत्र की असली सूरत को दिखाने वाला है.

विभांशु दिव्याल
लेखक


Post You May Like..!!

Latest News

Entertainment