वापसी की शर्तों से झांकती साजिश

Last Updated 06 May 2015 01:41:24 AM IST

विस्थापितों को वापस कश्मीर घाटी में बसाने के प्रश्न पर अक्सर घाटी के कुछ अलगाववादी तत्व हायतौबा मचाते रहते हैं.


वापसी की शर्तों से झांकती साजिश

सक्रिय राजनीतिक दल भी कभी खुलकर तो कभी दबी जुबान से अलगाववादियों का ही समर्थन करते दिखाई देते हैं. आखिर कश्मीरी पंडितों की वापसी से ऐसा क्या बदलने वाला है कि अलगाववादी गुट इसे रोकने में एकजुट दिखते हैं? कश्मीरी पंडितों को भारत के बहुसंख्यक समाज का प्रतिनिधि माना जाता है और अलगाववादी नहीं चाहते कि घाटी में भी पंडितों के प्रभाव और राष्ट्रवादी तत्वों की उपस्थिति से भारत विरोधी राजनीति में व्यवधान पड़े. विस्थापित किसी भी हालत में वापस न जा पाएं, यही उनकी समरनीति का एक मात्र लक्ष्य है और इसे पाकिस्तान सरकार का भी पूरा समर्थन हासिल है. इस समरनीति के तीन तत्व हैं.

एक, विस्थापितों की वापसी का सीधे-सीधे विरोध न हो अपितु उनकी वापसी का स्वागत ही किया जाए, लेकिन उनको एक समुदाय या समाज के रूप में बसाने की हर कोशिश को नाकाम कर दिया जाए. कश्मीरी समाज समूह में रहेगा तो शिक्षा, चिकित्सा, उद्योग और उच्च तकनीक के क्षेत्र में अपने योगदान से व्यापक कश्मीरी समाज को प्रभावित कर सकता है. वे अपने प्राचीन इतिहास और अपनी विशिष्ट संस्कृति को फिर से सक्रिय कर सकते हैं और कथित कश्मीरियत के ऐसे नए आयाम खोल सकते हैं जिनसे जम्मू-कश्मीर और वहां के व्यापक समाज का वह रूप भी दुनिया के सामने आएगा जिसे आज अलगाववादी ही नहीं, भारत-पाकिस्तान टकराव का व्यापार करने वाले दल भी छिपाना चाहते हैं.

दो, विस्थापितों को बताया जाए कि वे अपने-अपने पुराने घरों में ही वापस जाएं, जहां से वे भागे थे ताकि अपने पुराने पड़ोस में सहअस्तित्व के साथ रह सकें. इस बात को सही संदर्भ में समझने के लिए हमें यह जान लेना चाहिए कि कश्मीरी पंडित कहां रहते थे. यूं तो पंडित घाटी के सभी क्षेत्रों में थोड़ी-बहुत संख्या में रहते थे, लेकिन कुछ कस्बों को छोड़ कर अधिकतर ग्रामीण क्षेत्रों में उनकी संख्या नगण्य ही थी. चार-पांच घरों से लेकर पंद्रह-बीस घरों तक. अधिकतर पंडित कुछ चुने हुए कस्बों और श्रीनगर में ही रहते थे. बारामुला, अनंतनाग, सोपोर, बांडीपुरा, त्राल, बडगाम वे प्रमुख कस्बे थे जहां उनकी संख्या सौ परिवारों से लेकर तीन-चार सौ परिवारों तक हुआ करती थी.

लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात है कि घाटी में लगभग सत्तर प्रतिशत कश्मीरी पंडित राजधानी श्रीनगर में ही रहते थे. श्रीनगर में कश्मीरी पंडित अधिकतर हिंदुओं के लोकप्रिय मंदिर गणपतयार-गणपति का घाट से हब्बा कदल के नीचे बाना मोहल्ला तक और उसके ही समानांतर नदी पार रघुनाथ मंदिर से टांकी पुरा तक के इलाके में ही सिमटे थे. यानी श्रीनगर के कुल तीन वर्ग किलोमीटर  की परिधि में ही श्रीनगर के सत्तर प्रतिशत कश्मीरी पंडितों के घर थे. यह क्षेत्र राजधानी का पांचवां भाग ही था. आजादी से पहले एक ही बड़ी पुरानी बस्ती इस केंद्र से हटकर थी- रैनावारी, जो मुख्य नगर का एक उपनगर जैसा ही था. शेष दो-तीन बस्तियां- राजबाग, इंदिरा नगर आदि तो अपेक्षाकृत आजादी के बाद ही विकसित हुई. थोड़े समय से ही आधुनिक जीवन शैली के प्रभाव और कुछ स्थानाभाव के कारण पंडितों ने अपने मुख्य नाभिक से हट कर किंचित बाहर जाने का साहस करना आरंभ किया था.

अब अगर विस्थापितों को अपने ही पुराने घरों में जाने के लिए मजबूर कर दिया गया और वे किसी कारण इस प्रस्ताव को मान गए तो फिर उन पुराने घरों की खोज आरंभ होगी. आतंकवाद के तुरंत बाद आतंकवादियों की शह पर कश्मीरी पंडितों के मकान योजनागत रूप से जला दिए गए. बहुत से जलने से सिर्फ इसलिए बच गए क्योंकि इन मोहल्लों में भी पंडितों के बहुत से घर मुसलमान पड़ोसियों के घरों से सटे हुए थे. एक के जलने से दूसरे के भी जलने का खतरा था. जो मकान बच गए, उनमें से भी अधिकतर अगले तीन-चार सालों में ही बिक गए. विस्थापति सब कुछ छोड़ कर आए थे. उन्हें दिल्ली और देश के अनेक नगरों में नई गृहस्थी बसानी थी, बच्चों को पढ़ाना था, बेटियों की शादी करनी थी या यहीं कोई फ्लैट खरीदना था. पैसा जुटाने के लिए एक ही स्रोत था- कश्मीर में छोड़े हुए अपने घर. खरीदार शरणार्थी शिविरों में या किराए के मकान में ही आ पहुंचे और औने-पौने दाम में सौदा कर लौट गए.

विस्थापित निराश और बेबस महसूस कर रहे थे. उन्हें उम्मीद ही नहीं थी कि वे कभी वापस जा पाएंगे. इसलिए जिसने जो दिया, लेकर घर बेच दिए गए. आज थोड़े ही घर खड़े हैं जो नहीं जले हैं, किसी और नए मालिकों के कब्जे में नहीं हैं. ऐसा नहीं कि अलगाववादी यह बात नहीं जानते और न ही राजनीतिक दल इससे अनभिज्ञ हैं. जब पंडितों ने उन मोहल्लों को छोड़ा तो पड़ोसी अलग तरह केेलोग थे. उनके साथ वे पुश्तों से रह रहे थे. पर आज जब जाएंगे तो उनके पोते वहां होंगे, जिनकी विस्थापितों से कोई जान-पहचान नहीं, कोई लगाव नहीं और जिनमें से बहुतों पर आतंकवाद और अंतरराष्ट्रीय इस्लामी आंदोलनों का असर है और जिनमें आतंकवादी गुटों की पैठ है. दरअसल वापस बुलाने वाले यह सब जानते हैं कि विस्थापित ऐसे माहौल में अव्वल तो आएंगे ही नहीं और अगर किसी गलतफहमी आ भी गए तो रह नहीं पाएंगे. ऐसे में अपने ही घरों में बसाने की यह शर्त कश्मीरी पंडितों को उन्हें वापस आने के रास्ते बंद करने के लिए ही है.

तीन, यही कारण है कि विस्थापितों के कई गुट मानते हैं कि उन्हें एक नगर या उपनगर में बसा कर एक साथ रहने का मौका दिया जाए. इससे उनकी सांस्कृतिक पहचान बनी रहेगी, राज्य के विकास में उनकी आर्थिक गतिविधियां संभव होंगी और उनके लोकतांत्रिक अधिकार केवल कागज पर ही नहीं रहेंगे.

अलगाववादियों की बात छोड़ दें तो भी प्रमुख राजनीतिक दल जैसे नेशनल कांफ्रेंस और भाजपा के साथ सरकार चला रही पीडीपी भी इस प्रस्ताव को नहीं मानते, क्योंकि उनके अनुसार कश्मीरी पंडितों को अलग इलाके या नगर में बसाने से बहुसंख्यक समुदाय से उनके अलगाव का भाव पैदा होगा और इससे सांप्रदायिक शांति को खतरा होगा. वे इस तरह उनके पुनर्वास को विस्थापितों के एक गुट पनुन कश्मीर के अलग राज्य के प्रस्ताव का ही रूप मानते हैं. एक बात तो तय है कि विस्थापित समाज एकदम मुस्लिम रहित नगर या क्षेत्र में रह ही नहीं सकता है. यह शिक्षित समाज है जो परंपरागत रूप से विभिन्न प्रकार की नौकरियों पर ही निर्भर रहा है. किसान, मजदूर, कारीगर के पेशों पर तो कश्मीर में कश्मीरी मुसलमान का ही एकाधिकार है.

स्थानीय मुस्लिम समाज की सहायता के बिना पंडित समाज का दैनिक जीवनयापन नहीं हो पाएगा, इस बात को कश्मीरी पंडितों से बेहतर कौन जानता है? इसलिए जब अलग नगर की बात की जाती है तो उसका मतलब यह नहीं होता कि वहां जो पहले से बस रहे हैं वे हटाए जाएंगे, बल्कि उनके साथ मिलकर ही नगर बनेगा. अगर हब्बाकदल और गनपतयार, बाना मोहल्ला या रैनावारी की खुली नालियों की बगल में तंग और अंधेरी गलियों में रहने वाले कश्मीरी पंडितों से राजनीतिज्ञों को डर नहीं लगता था तो वे नगर के बाहर बेहतर तरीके से अधिक वैज्ञानिक तौर पर आयोजित स्थानीय मुसलमानों के साथ रहने वाले पंडितों से क्यों आतंकित हैं वे? कहीं यह मोदी सरकार के सामने भी वैसी ही मजबूरियां पैदा करने की रणनीति तो नहीं जैसी मजबूरियों ने पहले की सरकारों के हाथ बांध लिए थे?

(लेखक कश्मीर क्षेत्र के जानकार हैं)

जवाहरलाल कौल
लेखक


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