हमदर्दी की जगह बेदर्दी

Last Updated 26 Apr 2015 01:07:10 AM IST

दिल्ली में मरना वाराणसी में मरने की तरह नहीं है. बनारस में मरना स्वर्ग की कामना है.




हमदर्दी की जगह बेदर्दी

दिल्ली में मरना राजनीतिक नर्क की कामना है जो मिथकीय स्वर्ग से अधिक किसी बेशर्मी की तरह सच है. दिल्ली में मरना एक नई राजनीति करना है. दिल्ली में मरना राजनीति पर थूकना है और कविता की जगह राजनीति रखकर धूमिल की तरह पूछना है कि: ‘जब इस राजनीति से न चोली बन सकती है न चोगा, तो तुम ही कहो इसका क्या करूं, क्या मैं निष्ठा की तुक विष्ठा से मिला दूं!’

राजनीतिक निष्ठाएं अगले ही पल अपनी सिद्धांतिकी से बाहर आ आकर दृश्य को बदरंग करने पर तुल गई. सब टीवी में लाइव रहा और जितना लाइव रहा, उतना ही दृश्य खराब हुआ. आत्महत्या और राजनीति, दोनों ही एक-दूसरे से गुत्थमगुत्था होकर दृश्य में बैठ गई. नेताओं के साथ बहसों का पतन यहां तक हुआ कि मरने वाले की आत्महत्या पर भी शंकाए की जाने लगीं. एक अखबार ने लिखा कि वह नाटक था जो अचानक ‘दुर्घटना’ में बदल गया. दूसरे ने कहा कि उसे आत्महत्या के लिए प्रेरित किया गया. मरना पीछे रह गया, कारण प्रमुख हो गए और कारण आगे कर दिए गए, उस पर कानूनी कारण प्रमुख हो गए. एक ने कहा कि यह ‘अबेटमेंट ऑफ सूसाइड’ है. माफी नकली है, अपराध बोध नकली है, रोना भी नकली है.

एक पत्रकार ने कहा कि पुलिस ने ‘अबेटमेंट ऑफ सूसाइड’ किया, मीडिया कर्मियें ने भी किया. इस पर एंकर ने आपत्ति की कि मीडिया अपना काम कर रहा था. उसे कवर करना था, कर रहा था.

यह पीपली लाइव नहीं था, जंतर मंतर लाइव था. यह एक ऐसी लाइव फिल्म थी जिसकी पटकथा की भूमिका एक सप्ताह पहले से मीडिया लिख रहा था. एक सप्ताह तक भूमि कानून के बहाने किसानों की दुर्दशा पर जो लंबी बहसें चलीं उनमें किसान के प्रति इतनी हमदर्दियां बरसी कि लगा बेचारा किसान इनमें कहीं डूब ही न जाए!

हर अंग्रेजी चैनल अंग्रेजी में किसानों की दुर्दशा पर इस कदर रोया कि शायद उस किसान तक को दया आ गई और शायद मीडिया और नेताओं को दिखाने जंतर मंतर चला आया! क्या पता? क्या हुआ? इस बेदर्द समय में कौन किसकी सुनता है. मीडिया भी कहां सुनता है. वह ताकतवर की सुनता है, वरना अब तक विदर्भ के मरते किसानों की न सुन लेता और हंगामा न मचा देता? कारण कुछ भी हो आत्महत्या जिस किसान ने की है, हमदर्दी उसे चाहिए थी. लेकिन उसका कंपटीशन हो उठा और ब्लेमगेम हो उठा.

उसकी मौत राजनीति का कारण तो बनी ही, मीडिया के लिए टीआरपी बढ़ाने का कारण भी बन उठी. मीडिया ने जिम्मेदारी आयद करनी शुरू की, लेकिन अपनी जरा भी जिम्मेदारी नहीं मानी.

कौन जिम्मेदार रहा? बहसें उठती रहीं, गिरती रहीं. नेता रोते रहे, माफी मांगी जाती रही. लेकिन एंकर न्यायाधीश बनकर कहने लगे कि माफी नकली है, आंसू नकली हैं.

जहां आत्महत्या की गई उस जगह तीन-चार प्रकार के लोग थे और मीडिया लाइव दिखा रहा था. भीड़ थी, नेता थे, पुलिस भी और मीडियाकर्मी थे. उसी दौरान कहीं कभी वह पेड़ पर चढ़ा, वहां देर तक रहा और पता नहीं कब उसने फांसी का फंदा लगाया और कब उससे झूल गया? किसी को नहीं मालूम. दृश्य बहुत बिखरा हुआ था और बड़ा था.

मीडिया ने उसे झूलते दिखाया, फिर उसे उतारे जाते दिखाया, फिर उस पर बहस की कि किसने उसे उकसाया, उसे किसने बुलाया, किसने उसे मरने के लिए उकसाया. किसी ने कहा कि पब्लिक ने उकसाया, किसी ने कहा कि वह गलती से झूल गया वरना वह सिर्फ नाटक करने आया था.

लेकिन हमने देखा कि हमारे मीडिया में तरह-तरह के विचार आए, तरह-तरह के वक्ता-प्रवक्ता आए और कहानी हमदर्दी के नाम पर सख्त बेदर्द बनती रही. हम हमदर्दी की जगह बेदर्दी ने ले ली.

मुख्यमंत्री ने गलती मानकर माफी मांगी तो कहा गया कि माफी से क्या होगा. एक नेता रोया तो कहा गया कि रोना नकली है. एक कहता रहा कि यह ‘अबेटमेंट ऑफ सूसाइड’ है, अपराध है, सजा मिलनी चाहिए. एक ने कहा कि उसे उकसाया गया.

बराबर लगता रहा कि अपना मीडिया बेहद संवेदनशील है और अगर कोई संवेदना नहीं दिखाता तो उसकी खबर लेता है. ‘आप’ के लोगों ने उसे सही समय पर सही तरीके से नहीं दिखाया तो उनकी खबर ली, लेकिन जब आप वालों ने तीन दिन बाद माफी मांगी, तो कहा कि ये तो आदतन माफी मांगते रहते हैं. जो गलती आप ने की, वही मीडिया कर रहा है कि उसके पास मांगने वाले के लिए माफी तक नहीं है.

हमारे मीडिया की एक बड़ी गलती यह है कि वह इस घटना की अचानकता और उसकी जटिलता को समझने की जगह राजनीतिक ब्लेमगेम का हिस्सा बन गया है. जांच से पहले सारे फैसले हो रहे हैं. इस हाय-हाय में मृतक की आत्मा तक को चैन नहीं मिल रहा होगा.

क्या यह सच नहीं है कि जिस तरह से नेता अपेक्षित संवेदनशीलता नहीं दिखा सके, उसी तरह हमारा मीडिया भी इस घटना की अचानकता को नहीं समझ सका?

दरअसल यह पहली साक्षात लाइव दृश्य की अचानकता भरी राजनीति है, इसीलिए उसे संभालना कठिन है. इसके लिए न आप तैयार थी, न मीडिया तैयार था, न नेता तैयार थे और न पुलिस तैयार थी. सही जांच ही बता सकेगी कि क्या हुआ, किस कारण हुआ.

जिस जमाने में सेल्फी हर आदमी का एक नशा हो, जिस जमाने में मीडिया में आना, रहना, खबर बनना, विवाद में रहना एक उपलब्धि बन रहा हो, जिस जमाने में मीडिया में आकर एक घटना अपने आकार से बहुत-बहुत बड़ी बन जाती हो, उसका अपना भयानक दुराकर्षण हो सकता है. यह नया खतरा है.

सुधीश पचौरी
लेखक


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