न्यायिक नियुक्तियों में पारदर्शिता की राह

Last Updated 21 Apr 2015 12:53:18 AM IST

कई पूर्व न्यायाधीशों और कानून विशषज्ञों का मानना है कि नई व्यवस्था का फायदा तभी होगा, जब यह पूरी तरह पारदर्शी और न्यायाधीशों के चयन में वरीयता का ध्यान रखे.


न्यायिक नियुक्तियों में पारदर्शिता की राह

उच्च अदालतों में न्यायाधीशों की नियुक्ति की कोलेजियम प्रणाली समाप्त करने के लिए लाए गए संविधान संशोधन विधेयक, एनजेएसी कानून 2014 और इससे जुड़े 99वें संविधान संशोधन कानून, 2014 को हाल में सरकार ने अधिसूचित कर दिया. इसके साथ ही न्यायिक नियुक्ति आयोग (एनजेएसी) कानून अब अमल में आ गया है और पुरानी प्रणाली स्वत: खत्म हो गई. नए कानून के तहत न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए आयोग का गठन होगा, जो बीस साल पुराने कलेजियम का स्थान लेगा.

छह सदस्यीय इस आयोग में देश के मुख्य न्यायाधीश सीजेआई अध्यक्ष के रूप में होंगे. सदस्यों में कानून मंत्री, सर्वोच्च न्यायालय के दो पूर्व न्यायाधीश और दो अन्य नामचीन हस्तियां होंगी. नामचीन हस्तियों का चयन प्रधानमंत्री, सीजेआई और नेता विपक्ष या लोकसभा में सबसे बड़े दल के नेता करेंगे. नामित व्यक्तियों में से कम से कम एक सदस्य अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अन्य पिछड़ा वर्ग, महिला अथवा अल्पसंख्यक वर्ग से होगा. कोशिश है कि आयोग के अंदर सभी वर्गों की नुमाइंदगी हो. कानून मंत्रालय के सचिव (न्याय) आयोग के संयोजक होंगे. आयोग को संवैधानिक दर्जा मिलने के बाद पैनल के स्वरूप में छेड़छाड़ नहीं की जा सकेगी. इसमें बदलाव के लिए संविधान संशोधन करना होगा. नई व्यवस्था के अमल में आने के बाद हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जजों की नियुक्तियों के अलावा उनके स्थानांतरण का फैसला भी आयोग ही करेगा.

गौरतलब है कि लोकसभा ने बीते साल 13 अगस्त को राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग विधेयक, 2014 और तत्संबंधी संविधान (121वां संशोधन) विधेयक, 2014 पारित किया था. राज्यसभा में यह अगले दिन यानी 14 अगस्त को पारित हुआ. संसद में मंजूरी मिलने के बाद, राष्ट्रपति ने इस पर अपनी संस्तुति प्रदान की थी. इससे पहले देश के 29 में से 16 राज्य विधानमंडलों ने न्यायाधीशों द्वारा न्यायाधीशों को नियुक्त करने वाली कोलेजियम प्रणाली समाप्त करने वाले 124वें संविधान संशोधन विधेयक, 2014 को मंजूरी दे दी थी. किसी भी संविधान संशोधन बिल के लिए कम से कम आधे राज्यों की रजामंदी जरूरी होती है. इसके बिना यह प्रक्रिया पूरी नहीं मानी जाती. न्यायिक नियुक्ति आयोग के गठन के बाद उम्मीद है कि ऊपरी अदालतों में न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रक्रिया में ज्यादा पारदर्शिता और तेजी आएगी. एक अनुमान के मुताबिक कोलेजियम में होने वाले मतभेदों के चलते फिलवक्त देश भर के उच्च न्यायालयों में 200 से ज्यादा न्यायाधीशों के पद खाली हैं. जाहिर है इन पर नई नियुक्ति न होने की वजह से ही अदालतें अपना काम ठीक ढंग से नहीं कर पा रही हैं.

दरअसल देश में लंबे समय से उच्चतर अदालतों में न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रक्रिया को और ज्यादा पारदर्शी और समावेशी बनाने की बहस चल रही थी. दुनिया भर में किसी विकसित लोकतंत्र में ऐसी कोई दूसरी मिसाल देखने को नहीं मिलती, जहां न्यायधीशों को खुद न्यायाधीश ही नियुक्त करते हों. यानी, उसमें विधायिका या कार्यपालिका की भूमिका न हो. हालांकि 1993 से पहले, उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति का अधिकार राष्ट्रपति के पास था. यानी एक तरह से सरकार ही उनका चयन करती थी लेकिन उसी साल सर्वोच्च न्यायालय ने एक फैसले के तहत कॉलेजियम व्यवस्था लागू कर दी, जिसमें न्यायाधीशों के चयन और पदोन्नति की सिफारिश का अधिकार राष्ट्रपति या कार्यपालिका से ले लिया गया. कॉलेजियम सिस्टम की शुरुआत के बाद सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के अलावा चार अन्य वरिष्ठ न्यायाधीश फैसला लेने लगे. एक लिहाज से इस नियुक्ति प्रक्रिया से शक्ति का विकेंद्रीकरण हुआ, लेकिन पहले के सिस्टम और बाद में कॉलेजियम सिस्टम दोनों में वक्त के साथ खामियां दिखने लगीं.

हाइकोर्ट व सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों की नियुक्ति, न्यायाधीशों द्वारा करने की कॉलेजियम प्रणाली से न्यायपालिका में आहिस्ता-आहिस्ता पक्षपात, संरक्षणवाद और भ्रष्टाचार में बढ़ोतरी हुई. चयनमंडल के अधिकार क्षेत्र की कॉलेजियम प्रक्रिया के दोषपूर्ण होने की सबसे गंभीर मिसाल पिछले दिनों पहले, कलकत्ता हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस सौमित्र सेन और बाद में जस्टिस पीडी दिनकरन के रूप में सामने आई, जिन पर भ्रष्टाचार के इल्जाम में संसद के अंदर महाभियोग की प्रक्रिया भी चली. इन्हीं कुछ कारणों से कॉलेजियम सिस्टम पर सवाल उठने लगे थे और नियुक्ति प्रक्रिया बदलना जरूरी हो गया था. न्यायाधीशों की नियुक्ति की प्रस्तावित प्रणाली से अब न्यायपालिका और कार्यपालिका दोनों समान रूप से उत्तरदायी होंगी. फिर भी नई व्यवस्था के अमल में आने के बाद पूरी तरह से आस्त नहीं हुआ जा सकता कि सब कुछ ठीक-ठाक ही होगा. नई व्यवस्था को लेकर आशंका बनी रहेगी कि कहीं अब सरकार की दखलअंदाजी न बढ़ जाए. न्यायाधीशों की नियुक्ति, पदोन्नति और स्थानांतरण में कार्यपालिका मनमानी न चलाए.

इन्हीं आशंकाओं को लेकर सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट्स ऑन रिकॉर्ड एसोसिएशन, बार एसोसिएशन ऑफ इंडिया और कुछ अधिवक्ताओं ने एनजेएसी अधिनियम की वैधता को चुनौती देते हुए सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दायर की हुई है जिसकी सुनवाई सुप्रीम कोर्ट की एक संविधान पीठ कर रही है. पीठ को इस बात का फैसला करना है कि क्या एनजेएसी के गठन में कार्यपालिका का हिस्सा होना चाहिए? अगर होना चाहिए तो वह कितना हो सकता है, ताकि न्यायपालिका की स्वायत्तता पर आंच न आए. बहरहाल इस कानून से न्यायिक क्षेत्र में कितना बदलाव आएगा, यह आने वाला वक्त ही बताएगा.

कई पूर्व न्यायाधीशों और कानून विशषज्ञों का मानना है कि नई व्यवस्था का फायदा तभी होगा, जब यह पूरी तरह पारदर्शी और न्यायाधीशों के चयन में वरीयता का ध्यान रखे. कानून अमल में आने के बाद भी न्यायपालिका की स्वायत्तता पहले की तरह बरकरार रहे. न्यायपालिका की स्वायत्तता और न्यायाधीशों का चयन जब तक पारदर्शी एवं वरीयता क्रम के आधार पर नहीं होगा, तब तक व्यवस्था में कोई बदलाव नहीं आएगा. क्योकि यह जानी-समझी बात है कि चाहे कोई सा भी कानून आ जाए, महत्वपूर्ण है कि व्यवस्था में कौन बैठा है? नई व्यवस्था का फायदा भी तभी होगा, जब लोग सही तरह से काम करें और व्यवस्था पारदर्शी हो.

जाहिद खान
लेखक


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