कृषि क्षेत्र के उपचार की आवश्यकता

Last Updated 19 Apr 2015 01:35:04 AM IST

जीवन की आधारभूत आवश्यकता है अन्न और जल. घर-वस्त्र बाद की जरूरतें हैं. अन्न प्रथमा है. कृषि अन्न उत्पादन की व्यवस्था है.


कृषि क्षेत्र के उपचार की आवश्यकता

सम्मुनत कृषि ही भरपेट अन्न की प्रतिभूति है. भारतीय अध्यात्म भी अन्न प्रतिष्ठा से भरापूरा है. ऐतरेय उपनिषद् का संबंध ऋग्वेद से है. कहते हैं, परमचेतन एक अकेला था. उसमें सृजन की इच्छा हुई. उसने लोक रचे. उसने जल आदि मूलभूत तत्व तपाए तो अन्न आया. यहां अन्न उत्पादन का कर्म आधारित विकासवादी सिद्धांत है. आगे मजेदार प्रसंग है, उसने अन्न को वाणी द्वारा पकड़ना चाहा. असफल रहा. ऐसा होता तो अन्न के वर्णन से ही तृप्त मिल जाती. फिर देखने, सूंघने, सुनने आदि से भी अन्न पकड़ में नहीं आया. वह मुख के माध्यम से उपयोगी बना. अन्न अन्नायु है. आयु का संबंध अन्न से है. अन्न का संबंध कृषि कर्म से है. अन्न नहीं तो आयु नहीं. जीवन नहीं. कृषि नहीं तो अन्न नहीं. कृषि समृद्धि अपरिहार्य है.

ऋग्वेद कृषि कर्म से भरापूरा है. ऋग्वेद के देवता भी किसान बताए गए हैं. मानना चाहिए कि ऋग्वैदिक समाज में कृषि की प्रतिष्ठा थी. कृषि सम्मान का कर्म थी. ऋग्वैदिक कवियों ने अपने देवों को भी कृषि करते हुए देखा और गाया है. वैदिक समाज में कृषि न करने वाले लोग सम्मानित नहीं हैं. अिनी कुमारों को श्रेष्ठ वैद्य बताया गया है लेकिन वे भी हल चलाते हैं. इंद्र भी हल जोतते हैं. एक देवता हैं क्षेत्रपति. वे कृषि कर्म में सहायता करते हैं. वष्रा के देव भी कृषि से ही जुड़े हुए बताए गए हैं. वैदिक समाज में वर्ण या जाति के विभाजन नहीं थे. गण समूह थे. गणों के नेता या आस्था के केंद्र गणपति कहे जाते थे. गण से बड़ी इकाई थी जन. ऋग्वेद में पांच मुख्य जन समूहों की अनेका: चर्चा है. उन्हें पंचजना:, पांचजन्य आदि कहा गया है. ऐसे सभी पांच जन समूह कृषि से भी जुड़े हुए हैं. इसलिए वे ‘पंचकृष्टया:’ भी कहे गए हैं. कृषि अन्नदायिनी थी और अतिसम्मान का काम.

उत्तरवैदिक काल के साहित्य में अन्न की व्यापक महिमा है. अन्न पृथ्वी से आकाश तक प्रतिष्ठित है. तैत्तिरीय  उपनिषद् में कहते हैं, सभी प्राणी अन्न से ही पैदा होते हैं, अन्न से ही जीवित रहते हैं और अन्न में ही लौट जाते हैं. अन्नं हि भूतानां ज्येष्ठम्- अन्न सबका वरिष्ठ है. यह सवरेपरि औषधि- सवरेषधम् है. इसी उपनिषद् में कहते हैं, अन्नं न निंद्यात- अन्न की निंदा न करें. तत् वतम- यह व्रत है. प्राण अन्न है. शरीर अन्न का भोक्ता है. शरीर में प्राण है, अन्न प्राण है. अन्न में अन्न ही प्रतिष्ठित हो रहा है. ऋषि की उदात्त घोषणा है कि जो यह बात जानते हैं वे अन्न संपन्न और यशस्वी होते हैं. अन्न प्राप्ति जरूरी है. अन्न अपरिहार्यता की समझ और भी जरूरी.

अन्न का आदर प्राचीन भावना है. इसी प्रसंग में आगे कहते हैं अन्नं न परिचक्षीत- अन्न की अवहेलना न करें. यह व्रत संकल्प है. जल अन्न है. अन्न जल ज्योति है. ज्योति-तेज अन्न लेते हैं. अन्न में अन्न प्रतिष्ठित है- अन्नम् अन्ने प्रतिष्ठितम्. आगे आग्रह है अन्नं बहुकुर्वीत- बहुविधि अन्न पैदा करें. यह व्रत है. पृथ्वी अन्न है, आकाश भी अन्न है. पृथ्वी में आकाश प्रतिष्ठित है. अन्न में अन्न की प्रतिष्ठा है. पृथ्वी, जल, आकाश और तेज को अन्न बताना अटपटा लग सकता है, लेकिन ऋषि वेदांत की मनोभूमि पर अन्न आवश्यकता पर टिप्पणी कर रहे हैं.

अन्न उत्पादन का कर्म खेती-किसानी ही है. कारखानों में अन्न उत्पादन होता नहीं. लेकिन खेती सर्वनाश की ओर है. वैदिक काल की सम्मानित कृषि परंपरा ही उत्तर भारतीय देहाती कहावतों में आज भी सुनी जाती है. उत्तम खेती, मध्यम बान, निषिद्ध चाकरी वाली कहावत में कृषि सवरेत्तम सम्मान है. तो भी भारतीय कृषि की हालत लगातार पतन की ओर है. किसान खेती छोड़ रहे हैं, किसान आत्महत्या बढ़ी है. खाद्यान्न सुरक्षा खतरे में है. कृषि विज्ञान बढ़ा है, कृषि संबंधी जानकारियां भी बढ़ी हैं. मौसम के पूर्वानुमान की शक्ति बढ़ी है. बावजूद इसके किसान परिवार मर रहे हैं. कृषि प्रथम वरीयता में नहीं है. औद्योगिक क्षेत्र को सुविधा ही सुविधा है और किसान के लिए द्विविधा ही द्विविधा. कृषि क्षेत्र में फौरन उपचार और हस्तक्षेप की आवश्यकता है.

हृदयनारायण दीक्षित
लेखक


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