पांच फुट पांच इंच का डर

Last Updated 01 Feb 2015 02:40:40 AM IST

अजीब बात हो रही है कि जिस समय भाजपा और नरेन्द्र मोदी का चुनाव प्रचार अपने चरम पर है, उसी समय उनके प्रचार की एक कमजोर-सी रग उभर कर सामने आने लगी है.


सुधीश पचौरी, लेखक

यह एक विज्ञापन है जो कई दैनिकों में आधे-आधे पेज में छपा है. जो केजरीवाल द्वारा अपने बच्चों की कसम खाने के बावजूद कांग्रेस के सहारे से सरकार बनाने की अवसरवादिता पर कटाक्ष करता  है और ‘केजरीवाल विश्वसनीय नहीं है’ जैसा कुछ संदेश देते हुए मतदाताओं को मोदी के साथ चलने के लिए कहता है.

हमारी चिंता है कि यह विज्ञापन कहीं भाजपा पर ही उलटवार करने वाला न बन जाय. इसका कारण इसका देशकाल, इसकी टेक्स्ट और प्रस्तुति है, जो भाजपा की ‘ईमानदारी’ के  बरक्स केजरीवाल की वादा तोड़ने वाली छवि की चरचा अधिक स्पेस में करती है. यह प्रकारांतर से केजरीवाल की सेवा करता है. इस बेईमान समय में यह विज्ञापन ईमानदारी की बात कुछ इस तरह करता है मानो भाजपा ने कभी वादाखिलाफी न की हो और दिल्ली की जनता इस चुनाव में किसी पुराणकालीन ‘राजा सत्य हरिश्चंद्र’ को खोजती हो. कहने की आवश्यता नहीं कि भाजपा के अन्य विज्ञापन जितने सटीक और अपनी जरूरतों के साथ पूरी तरह सिंक में नजर आए हैं. उनके मुकाबले यह पहला  विज्ञापन है, जो सटीक सिंक से बाहर गिरता है.

सब जानते हैं कि दिल्ली राजा हरिश्चंद्र की नगरी नहीं है, बल्कि वह  इंद्रपस्थ है, जो कभी जुए में हारी गई थी, जो पता नहीं कितनी बार उजड़ी है, बनी है जो राजनीति की राजधानी है सत्ता की राजधानी है, जो अपने आप में ईमानदारी और बेईमानी से परे एक तरल गरल सत्ता है, जिसके लिए कोई हरिश्चंद्र होड़ नहीं करते बल्कि वही होड़ करते हैं, जो हरिश्चंद्र हो नहीं सकते. यह शहर अवसर का और अवसरवादिता का शहर है. थोड़ी बेइमानी, थोड़ी-थोड़ी रिश्वत, थोड़ी खिदमत, थोड़ी चमचागीरी, थोड़ा झगड़ा, थोड़ा प्यार, थोड़ी बनावट और थोड़ी सजावट का शहर है. बनावट इसका स्वभाव है, जो हर मेट्रो शहर का स्वभाव है. यह राजनीति के एजेंटों, राजनीति के टाउटों और धंधेबाजों से लेकर राजनीति करने वालों का शहर है. राजनीति ईमानदारी का विलोम अगर कहीं हुई है तो सबसे पहले यहीं हुई है.

यह शहर अगर ईमानदारी की बात करता है तो उसके ठीक पीछे एक खास किस्म का चालूपन और बेइमानी लिपटी चली आती है. केजरीवाल की ईमानदारी तो तभी निपट गई थी, जब अन्ना आंदोलन के राजनीति से परे रहने के नारे को छोड़कर उन्होंने खुले आम और बाकायदा खुली सभा में आप पार्टी बनाई. दिल्ली के लोगों ने उनकी इस ‘अवसरवादिता’ का बुरा तो माना ही नहीं, उल्टे उनको दिल्ली की सत्ता सौंप दी. दिल्ली की जनता के बीच केजरीवाल एक ‘उलझन’ की तरह रहे हैं, जहां ईमानदारी और बेइमानी के बीच बचने वाली जगह अब भी केजरीवाल के नाम बताई जाती है.

अब तक मीडिया द्वारा कराए और मीडिया में आए तीन-तीन चुनाव-पूर्व सर्वे इसी बात को पुष्ट करते हैं कि सब आलोचनाओं और आरोपों के बावजूद केजरीवाल अब भी दिल्ली में भाजपा को बराबर की टक्कर देने वाले हैं जबकि भाजपा के पास अब भी मोदी जैसे तूफानी चुनाव अभियानी की अब तक दुर्जेय रही छवि मौजूद है. अफसोस यह कि यह विज्ञापन केजरीवाल के मुकाबले मोदी को खड़ा करके एक बड़ी भूल करता नजर आता है जिसकी कीमत हो सकता है कि मोदी की अब तक की दुर्जेय छवि को ही चुकानी पड़े. मोदी राष्ट्रीय स्तर के नेता हैं, जिनकी छवि जितनी चुनौतीविहीन बनी रहे, उतना ही भाजपा के लिए लाभकर है जबकि केजरीवाल मोदी की तुलना में न कुछ बराबर हैं  और अचानकता से उपजे स्थानीय नेता हैं, जिनके पास खोने के लिए स्थानीयाता है और पाने के लिए बहुत कुछ है. ऐसा ‘जोड़’ कुछ जंचता नहीं है.

इसके अलावा, मीडिया की हमदर्दी इस कुश्ती में मोदी की तरफ अब न होकर केजरीवाल की तरफ ही झुकी नजर आती है. मीडिया  बराबर की कुश्ती पसंद करता है और कमजोर की तरफ रहता है. मीडिया का अपना स्वभाव ऐसा ही है कि एक बार किसी को महानायक बनाकर वह उसके बरक्स किसी न किसी को खड़ा करता रहता है ताकि कुश्ती का पूरा मजा आए और उसकी टीआरपी बढ़ती रहे. कहने की जरूरत नहीं कि यह विज्ञापन एक कमजोर रणनीति का विज्ञापन है, जो मोदी जी के अब तक के विजयोत्सुकी भाव को प्रगाढ़ करने की जगह भाजपा के हतोत्साह भाव और खिसियाहट को प्रकट करता है. यह आशंका, इस विज्ञापन के प्रकाशित होने से पहले की शाम की एक चैनल की उस बहस में खूब प्रकट हुई. पत्रकार हरतोष बहल को लगता है कि भाजपा केजरीवाल से डर गई  है क्योंकि वह अब उन्हीं को टारगेट करने लगी है. आरती आर जैरथ को भी लगा ‘भाजपा केजरीवाल की तरह ‘शूट एंड स्कूट’ की नीति अपनाने लगी है.’ सब जानते हैं कि दिल्ली की सत्ता या कहीं की सत्ता किसी सत्य हरिश्चंद्र के लिए नहीं बनी है.

हम नहीं जानते कि परिणाम क्या होगा लेकिन हमारा मानना है कि दिल्ली की जनता कोई विद्रोही स्वभाव की क्रांतिकारी जनता नहीं है, न वह भाजपा की दुश्मन है. दिल्ली भाजपा का एक सुरक्षित शहर रही है. उसका जनाधार यहां है और वह सत्ता में भी रही है. फर्क इतना ही है कि मोदी के ‘कांग्रेस मुक्त नारे’ को दिल्ली ने इतना सीरियसली लिया है कि कांग्रेस को एकदम किनारे कर दिया है. इस नारे ने भाजपा के लिए एक नई समस्या भी खड़ी कर दी है और वह यह कि अगर भाजपा के ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ में मुकाबले में कांग्रेस न होकर कोई और दल हो तो भाजपा क्या करेगी? तो वह विज्ञापन जिस विरोधी को नेस्तनाबूद करने के लिए बनाया गया है, वह अनजाने उसी को फोकस में लाए दे रहा है. भाजपा के इसी मर्म पर आप प्रवक्ता राघव ने चोट की कि एक पांच फुट पांच इंच का मामूली आदमी भाजपा के लिए परेशानी का कारण बन गया है.



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