विराट पाखंड का महाघोष

Last Updated 01 Feb 2015 02:33:11 AM IST

इस सप्ताहांत में होने वाले दिल्ली के बहुचर्चित, बहुप्रतीक्षित तथा राजनीतिक पार्टियों के लिए जीवन-मरण के प्रश्न वाले भारी दांव लगे चुनावों की यह पूर्व पीठिका आखिर लोकतंत्र के किन पहलुओं की प्रतीक है?


विभांशु दिव्याल, लेखक

दिल्ली पोस्टरों, होर्डिंगों और प्रचार पत्रों से पट गई है. टेली मीडिया दिल्ली-चुनावमय हो गया है. सोशल मीडिया पर धुंआधार प्रचार जारी है. आप मीडिया के संपर्क में पांच मिनट ऐसे नहीं गुजार सकते जब कोई पार्टी या प्रत्याशी टेलीविजन के परदे से न झांक रहा हो या आपके मोबाइल फोन पर कोई चुनावी संदेश न आ रहा हो या किसी प्रत्याशी की आवाज आपके फोन में न घनघना रही हो. तय करना कठिन है कि किस पार्टी ने इस प्रचार में कितनी धनाक्ति, जनाक्ति झोंकी है. आम आदमी पार्टी और कांग्रेस ने तो जो प्रचार-प्रवाह खड़ा किया है, वह तो किया ही है, लेकिन बीजेपी ने तो अपनी समूची केंद्रीय सत्ता ही प्रचार में झोंक दी है.

इस चुनावी महासमर में जो प्रचार-प्रहार किये जा रहे हैं, उनकी विषयवस्तु क्या है? क्या है पार्टियों के अपने-अपने पक्ष प्रस्तुत करने की रणनीति के औजार? जबर्दस्त आत्मप्रशंसा और दूसरे की जबर्दस्त निंदा, इन दो तत्वों के अलावा भी कुछ दिखाई-सुनाई देता है? जो अच्छा हुआ है, वह हमने किया है और जो अच्छा हो सकता है, वह हमारे द्वारा हो सकता है,जबकि दूसरा झूठ बोलता है, वादे करके मुकरता है, कथनी-करनी में अंतर रखता है, भ्रम फैलाता है, जनता को बरगलाता है, वह जनता की भलाई के लिए नहीं अपनी भलाई के लिए सत्ता चाहता है. भ्रष्टाचारी है, भ्रष्टाचारियों से सांठगांठ रखने वाला है आदि-आदि. और अगर दूसरा सत्ता में आया तो जनता का नुकसान करेगा, देश का नुकसान करेगा और देश तरक्की की दौड़ में पिछड़ जाएगा और ऐसा होगा तो कतई अच्छा नहीं होगा. इसलिए आप सिर्फ हमें वोट दीजिए दूसरे को वोट देने की गलती करके पछताने का अवसर मत आने दीजिए. किसी भी पार्टी का नेता या प्रवक्ता सिर्फ यही बोल रहा है. यानी सिर्फ वही ठीक है और दूसरा अगर कुछ है तो सिर्फ गलत है.

अगर आपके प्रति सवाल खड़े किये जा रहे हैं तो वह सवाल बेहूदा हैं और अगर आप दूसरे के प्रति सवाल खड़े कर रहे हैं तो वे सवाल जायज हैं, दमदार हैं और जनता को उनका उत्तर जानने का हक है. आपको सत्ता इसलिए चाहिए कि आप जनता का हित करना चाहते हैं और दूसरे को सत्ता इसलिए चाहिए कि वह अपना हित करना चाहता है, जनता का नहीं. जनता अगर आपको वोट देती है तो यह जनता की ऐतिहासिक समझदारी होगी और अगर जनता दूसरे को वोट देती है तो यह उसकी ऐतिहासिक भूल होगी. जनता आपके पक्ष में है तो यह जनता की अग्रगामिता है और अगर जनता दूसरे के पक्ष में है तो यह जनता की अधोगामिता है, मूर्खता है, जड़ता है. अब यह जनता  को तय करना है कि वह किसके पक्ष में समझदारी दिखाती है और किसके पक्ष में अपनी मूर्खता का प्र्दान करती है. बेचारी जनता!

इस समूचे चुनावी परिदृश्य में से आत्मनिरीक्षण गायब है. किसी में इतनी हिम्मत नहीं दिखती कि वह अपने भी गिरेबान में झांककर देखे. अपने झूठ, अपनी गलत बयानी और अपनी वादाखिलाफी के बारे में भी जनता को कुछ बताए. केवल व्यक्तिगत आचरण पर ही नहीं नीतियों, व्यवस्थाओं, व्यवहारों पर भी आत्मनिरीक्षण नदारद है. जनता को भ्रमित करने, उत्तेजित करने, उकसाने और दूसरे प्रति भड़काने के सारे उपादान मौजूद हैं लेकिन उसे जागरूक करने, समझदार बनाने, समस्याओं के प्रति उसे चेतना संपन्न करने, उसमें दायित्वबोध पैदा करने, उसे तटस्थता से निर्णय लेने में सक्षम बनाने और उसे ठोस लोकतांत्रिक संस्कार देने की बातें गायब हैं, प्रक्रियाएं गायब हैं. वे प्रक्रियाएं गायब हैं, जो जनता को लोकतांत्रिक मूल्यों में प्रशिक्षित करती हैं, उसे समझदार बनाती हैं, संवेदनशील बनाती हैं तथा उनमें पारस्परिक संवेदनशीलता का विस्तार करती हैं.

इस परिदृश्य में वे प्रक्रियाएं कहां हैं, वे वक्तव्य और बयान कहां हैं जो लोगों को एक-दूसरे का सम्मान करना सिखाते हों, एक-दूसरे की वैचारिकता, मान्यताओं और आस्थाओं के प्रति सहिष्णु बनाते हों, एक-दूसरे के लिए सामाजिक-सांस्कृतिक क्षेत्र उपलब्ध कराते हो? वे प्रक्रियाएं कहां हैं जो लोगों को सामाजिक-आर्थिक ढांचे की कमियों और कमजोरियों के प्रति सचेत करती हों, अनेकानेक सामाजिक कुरीतियों, जड़ताओं, अंधविश्वासों और अपसंस्कृतियों के प्रति जागरूक करती हों या उन्हें विभिन्न आपराधिक प्रवृत्तियों के प्रति सतर्क करती हों? वे प्रक्रियाएं कहां हैं जो लोगों को अपने विचार और व्यवहार में ईमानदार रहने के लिए तैयार करती हों, उन्हें सार्वजनिक जीवन में व्याप्त भ्रष्टाचार के विरुद्ध खड़ा करती हों या स्वयं को भ्रष्टाचार से मुक्त रखने के लिए प्रेरित करती हों?

वे प्रक्रियाएं कहां हैं जो नागरिकों में दायित्वबोध पैदा करती हों या उन्हें एक सभ्य समाज का सभ्य नागरिक बनने के लिए उत्साहित करती हों, या उन्हें एक सभ्य-सुसंस्कृत, नागरभाव संपन्न नागरिक बनने के लिए बाध्य करती हों? अगर यह सब करना राजनेताओं की जिम्मेदारी नहीं है तो फिर किसकी है? अगर चुनाव का यह अवसर इन सब बातों का अवसर नहीं है तो फिर इनके लिए कौन-सा अवसर है-होली, दिवाली, ईद, क्रिसमस या गुरुपर्व ?

दिल्ली बता रही है कि चुनावों के दौरान जनता की वास्तविक समस्याओं और उनसे संबंधित ठोस मुद्दों पर चर्चा करने के लिए आपके पास कोई गुंजाइश नहीं है. आप एक-दूसरे को चोर-झूठा-बेईमान तो बता सकते हैं, एक-दूसरे को छोटा करने, नीचा दिखाने की महा प्रतियोगिता तो रच सकते हैं लेकिन एक-दूसरे के विचारों-अनुभवों को सम्मान देते हुए नीतियों-व्यवस्थाओं पर विचार-विमर्श नहीं कर सकते, स्वस्थ संवाद नहीं कर सकते. यानी बाकी सब कुछ कर सकते हैं सिर्फ वही नहीं कर सकते जो एक स्वस्थ लोकतंत्र के लिए बेहद जरूरी है. राजनीतिक दलों ने चुनाव प्रचार को जिस तरह से विराट पाखंड के महाघोष में बदला है, वह शर्मनाक है और देश के लिए निराशाजनक.



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